एक कल्पवृक्ष जो इंसान समेत पृथ्वी के अन्य प्राणियों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं । महुआ के फूल , सुंदर, और मीठी सुंगंध वाले , जब पुष्पित होते हैं तो वातावरण में नशीली खुशबू छा जाती है।
मधुक अर्थात महुआ, आम आदमी का पुष्प और फल दोनों हैं। आम आदमी का फल होने के कारण यह जंगली हो गया, और जंगल के प्राणियों का भरपूर पोषण किया। आज के शहरी लोग इसे आदिवासियों का अन्न कहते हैं। सच तो यह है कि गांव में बसने वालों उन लोगों के जिनके यहां महुआ के पेड़ है, बैसाख और जेठ के महीने में इसके फूल नाश्ता और भोजन हैं।
पांचवे दशक में महुआ ग्रामीण जन-जीवन का आधार होता था। प्रत्येक घर में शाम को महुआ के सूखे-फूल को धो-साफ कर चूल्हों में कंडा-उपरी की मंद आंच में पकाने के लिए रख देते थे। रातभर वह पकता,पक कर छुहारे की तरह हो जाता। ठंडा हो जाने पर उसे दही, दूध के साथ खाने का आनन्द अनिर्वचनीय होता। कुछ लोग आधा पकने पर कच्चे आम को छीलकर उसी में पकने के लिए डाल देते। वह खटमिट्ठा स्वाद याद आते ही आज भी मुंह में पानी आ जाता है। लेकिन न वे पकाने वाली दादियां रहीं न, माताएं अब तो सिर्फ उस मिठास की यादें भर शेष हैं। इसे डोभरी कहते, इसे खाकर पटौंहा में कथरी बिछाकर जेठ के घाम को चुनौती दी जाती थी। लगातार दो महीने सुबह डोभरी खाने पर देह की कान्ति बदल जाती थी। डोभरी का अहसास आज भी जमुहाई ला देता है।
महुआ के पेड़ों के नीचे पडे मोती के दाने टप-टप चूते हैं सुबह देर तक, इन्हें भी सूरज के चढ़ने का इन्तजार रहता है। जो फूल कूंची में अधखिले रह जाते है, रात उन्हें सेती है, दूसरे दिन उनकी बारी होती है। पूरे पेड़ को निहारिये एक भी पत्ता नहीं, सिर्फ टंगे हुए, गिरते हुए फूल। दोपहर और शाम को विश्राम की मुद्रा में हर आने-जाने वाले पर निगाह रखते हैं। कुछ इतने सुकुमार होते हैं कि कूंची में ही सूख जाते हैं, वे सूखकर ही गिरते हैं, उनकी मिठास मधु का पूर्ण आभाष देती है। जब वृक्ष के सारे फूल धरती को अर्पित हो जाते हैं तब ग्रीष्म के सूरज को चुनौती देती लाल-लाल कोपलों से महुआ, अपना तन और सिर ढकता है। कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष लहक उठता है। नवीन पत्तों की छाया गर्मी की लुआर को धता बताती है। फूल तो झर गये लेकिन वृक्ष का दान अभी शेष है। वे कूंचियां जिनसे फूल झरे थे, महीने डेढ़ महीने बाद गुच्छों में फल बन गए। परिपक्व होने पर किसान इनको तोड़-पीटकर इनके बीज को निकाल-फोड़कर बीजी को सुखाकर इसका तेल बनाते है। रबेदार और स्निग्ध, इस तेल को गांव डोरी के तेल के नाम से जानता है। ऐंड़ी की विबाई, चमडे की पनही को कोमल करने देह में लगाने से लेकर खाने के काम आता है। गांव की लाठी कभी इसी तेल को पीकर मजबूत और सुन्दर साथी बनती थी, जिसे सदा संग रखने की नसीहत कवि देते थे।
महुआ गर्मी के दिनों का नाश्ता तो है ही कभी-कभी पूरा भोजन भी होता है। बरसात के तिथि,त्यौहारों में इसकी बनी मौहरी (पूड़ी) सप्ताह तक कोमल और सुस्वाद बनी रहती है। मात्र आम के आचार के साथ इसे लेकर पूर्ण भोजन की तृप्ति प्राप्त होती है। इस महुए के फूल के आटे का कतरा सिंघाडे के फूल को फीका करता है। सूखे महुए के फूल को खपड़ी (गगरी) में भूनकर, हल्का गीला होने पर बाहर निकाल भुने तिल को मिलाकर, दोनों को कूटकर बडे लड्डू जैसे लाटा बनाकर रख लेने से वर्षान्त के दिनों में पानी के जून में, नाश्ते के रूप में लेने से जोतइया की सारी थकान एक लाटा और दो लोटा पानी, दूर कर देता है। लाटा को काड़ी में छिलका रहित झूने चने के साथ कांड़कर चूरन बना कर सुबह एक छटांक चूरन और एक गिलास मट्ठा पीकर ताउम्र पेट की बीमारियों को दफा किया जा सकता है।
संसार के किसी भी वृक्ष के फूल के इतने व्यंजन नहीं बन सकते। व्रत त्यौहार में हलछठ के दिन माताएं महुआ की डोभरी खाती है। इसका वृक्ष भले सख्त हो फूल और फल तो अत्यंत कोमल हैं।
जब आपने नारियल जैसे सख्त फल को अपना लिया है तो महुए ने भला कैसा गुनाह किया है। अपनाईये खाईये और खिलाईये !
क्योंकि, महुआ का पेड़ वात (गैस), पित्त और कफ (बलगम) को शांत करता है, वीर्य व धातु को बढ़ाता और पुष्ट करता है, फोड़ों के घाव और थकावट को दूर करता है, यह पेट में वायु के विकारों को कम करता है, इसका फूल भारी शीतल और दिल के लिए लाभकारी होता है तथा गर्मी और जलन को रोकता है। यह खून की खराबी, प्यास, सांस के रोग, टी.बी., कमजोरी, नामर्दी (नपुंसकता), खांसी, बवासीर, अनियमित मासिक-धर्म, वातशूल (पेट की पीड़ा के साथ भोजन का न पचना) गैस के विकार, स्तनों में दूध का अधिक आना, फोड़े-फुंसी तथा लो-ब्लडप्रेशर आदि रोगों को दूर करता है।
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