कथा-श्रवण का उद्देश्य मात्र मनोरंजन न होकर जीवन में परिवर्तन प्राप्त करने का होना चाहिए। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में अलग-अलग प्रकार के म...
कथा-श्रवण का उद्देश्य मात्र मनोरंजन न होकर जीवन में परिवर्तन प्राप्त करने का होना चाहिए।
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में अलग-अलग प्रकार के मानवीय विकार (मानस-रोग) विद्यमान होते हैं। व्यक्ति में काम, क्रोध और लोभ आदि विकारों में से किसी-न-किसी की प्रमुखता रहती ही है। और कथा की विशेषता यही है कि वह इन सब विकारों की दवा है। पर इसके लिए रोगी को कथा-श्रवण से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि 'मुझमें यह बुराई है'। और तब यदि उसे दूर करने के उद्देश्य से वह कथा-श्रवण करे, तो कथा उसके लिए औषधि बनकर उसे स्वस्थ कर देगी! अतः कथा -श्रवण का उद्देश्य यह नहीं होना चाहिए कि इससे हमारी समस्त कामनाएँ पूरी हो जाएँगी और तब हमारे विकार दूर होंगे। क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि हमारे भीतर उठने वाली सब कामनाएँ कल्याणकारी ही हों।
गोस्वामीजी 'मानस' की कथा की विशेषता बताते हुए कहते हैं कि यदि --
'श्रोता सुमति सुसील रुचि कथा रसिक हरिदास।'
ये सब हों तो यह श्रेष्ठ स्थिति है ही, पर ऐसे श्रोता तो बिरले ही होते हैं, अतः यदि श्रोता दोषयुक्त भी हो और उसे अपने आप में कमी दिखाई पड़े तो ऐसी स्थिति में भी --
सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरेै।
दारुन अविद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।
(७/१२९/छं-२)
वह कथा श्रवण से दोषमुक्त हो जाता है। सतीजी से पार्वती बनने के बाद उनके जीवन में हमें यह बात दिखाई देती है। पार्वती के रूप में वे अपने दोषों को स्वीकार करते हुए दिखाई देती हैं जबकि सती को अपने दोष नहीं दिखाई देते हैं। 'पार्वतीजी भगवान शंकर के चरणों में प्रणाम करती हैं और जब कथा सुनाने की प्रार्थना करती हैं तो यही कहती हैं कि 'महाराज!' मैंने बड़ा अपराध किया है और अब भी मेरे मन में संशय बना हुआ है --
अजहूँ कछू संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।।
उनका संकेत यही है कि 'महाराज! पिछले जन्म में मेरी भूल यह थी कि संशय आने पर मैंने उसे आपसे छिपाया।' क्योंकि यदि रोगी वैद्य से अपना रोग न बताए, तो फिर इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा ? पार्वतीजी को अनुभव होता है कि 'मुझमें जो संशय और भ्रम है उसका निवारण रामकथा के द्वारा ही होगा।' इसलिए वे प्रार्थना करती हैं --
कहहु पुनीत राम गुन गाथा।
“महाराज! आप रामकथा सुनाइए।" गरुड़जी भी भशुण्डिजी से यही बात कहते हैं कि --
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता।
लोग भले ही यह कहते हैं कि मैं सर्पों को खा सकता हूँ पर इस संशय के सर्प ने मुझे ही डस लिया है। भरद्वाजजी भी अपने आप को संशयालु बनाकर प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं --
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेद तत्व सबु तोरें।। (१/४४/७)
"आप मेरा संशय दूर करें।”
इसका मूल सूत्र यही है कि 'मानस' के ये श्रोता अनुभव करते हैं कि हममें दोष हैं, रोग हैं। सुनने वाला कथा का पूरा लाभ भी तभी ले सकता है जब वह अपने दोष को जाने और उसे दूरे करने के उद्देश्य से कथा-श्रवण करे और जो औषधि उसे बताई जाए उसका सेवन करे।' फिर यदि मन का रोग कुछ घटने लगे तो उसे ज्ञात हो जायगा कि दवा से लाभ हो रहा है। पर यदि रोग घटने के स्थान पर बढ़ता चला जाय, तब तो वह दवा ठीक नहीं।
कभी-कभी व्यक्ति के सामने यह समस्या भी आती है। कहा जाता है कि मीराजी ने गोस्वामीजी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने पूछा कि “मैं धर्म का पालन करूँ या भगवान की भक्ति करूँ, यह निर्णय नहीं कर पा रही हूं, आप उचित मार्गदर्शन करे। वे कहती हैं --
स्वजन समाज जगत के जेते सबनि उपाधि बढ़ाई।
साधु संग और हरिभजन में देत कलेस सदाई।।
मेरे मातु पिता के सम हौ हरिभगतन सुखदाई।
मो कहँ कहा उचित करिबो है सो लिखिए समुझाई।
उस समय गोस्वामीजी ने जो सूत्र दिया वह बड़े महत्व का है। धर्म की तुलना उन्होंने 'अंजन' से की।
कथा आती है कि एक सज्जन प्रतिदिन अंजन लगाते थे। एक दूसरे सज्जन ने जब देखा कि वे एक दिन के लिए भी अंजन लगाना नहीं भूलते, तो उनसे पूछ लिया कि आप नित्य-नियम से अंजन क्यों लगाते हैं ? उन्होंने कहा - “क्योंकि मेरे पिताजी ने मुझसे कहा था कि सोते समय नेत्र में अंजन अवश्य लगाना, भूलना मत!” दूसरे व्यक्ति ने पूछ दिया - “इतने दिनों तक अंजन लगाने के बाद कुछ लाभ हुआ ?" - "बिलकुल नहीं, उल्टे दिखाई देना और कम हो गया।” अब कम दिखाई देने पर भी इस तरह धर्म मानकर अंजन लगाते चले जाने की बात तो उचित नहीं कही जा सकती। गोस्वामीजी ने मीराजी से यही कहा कि धर्म तो अंजन की तरह है, इसे धारण करने से यदि आँखों की ज्योति बढ़े और भगवान के दर्शन हो जायँ, तब तो यह अंजन का सदुपयोग हुआ, पर --
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं।
जिस अंजन को लगाने से आँख ही फूट जाय वह किस काम का ?
इसका अर्थ है कि यदि कथा-श्रवण के बाद हममें कुछ अंतर आ जाय, कम से कम अपने आप में दोष दिखने ही प्रारंभ हो मगर तब तो कथा का कुछ लाभ मिला! कथा-श्रवण का उद्देश्य मात्र मनोरंजन न होकर जीवन में परिवर्तन प्राप्त करने का होना चाहिए।
यही बात वक्ता के लिए भी कही जा सकती है। वक्ता बनना एक दृष्टि से बड़ा सरल है और दूसरी दृष्टि से बड़ा कठिन भी है। व्यक्ति अध्ययन-मनन करके, ग्रन्थों को पढ़-सुनकर भी वक्ता बन सकता है। मेरे प्रवचन के ग्रन्थ प्रकाशित होने लगे तो एक व्यक्ति ने कहा कि यह उचित नहीं है, क्योंकि इस तरह आप जो, 'मानस' के गंभीर रहस्यों की खोज करते हैं उसे सब लोग जान जाएँगे, और फिर उन्हें ही पढ़-पढ़कर लोग बोलने लगेंगे तो आपकी विशेषता क्या रह जायगी ? मैंने उनसे कहा - “भाई! एक बात तो यह है कि मैं कोई खोज नहीं करता। और दूसरी बात यह कि 'और लोग न जान जाएँ' इस डर से प्रकाशित न करने से बढ़कर विडंबना और क्या हो सकती है ? यह तो प्रभु का चरित्र है, गुण है और स्वयं प्रभु ही इसे प्रगट करते हैं। मुझे तो यह बिना किसी परिश्रम या मूल्य के ही मिला हुआ है। और मुफ्त में मिली हुई वस्तु को बाँटना क्या अनुचित है ?”
मुझे स्मरण आता है कि हिन्दू विश्वविद्यालय में मुझे आमंत्रित किया गया तो कथा सुनकर कई प्राध्यापक बड़े प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि यह तो बड़ी मौलिक और नई दृष्टि है। उन्होंने मुझसे पूछा कि इतनी बड़ी खोज आपने कैसे की ? अब मैंने यदि खोज की होती तब न बताता! मैंने यही कहा कि 'यदि किसी व्यापारी से पूछिए कि धन कैसे कमाया जाता है तो वह व्यापार की पद्धति बताएगा, पर यदि लाटरी खुलने पर धनवान बने व्यक्ति से पूछा जाय तो क्या वह धनवान बनने की कोई विधि बता पाएगा ?' मेरे लिए भी कृपा की 'लाटरी' खुल गई, मैं यही कह सकता हूँ। मुझे भले ही बड़ा सन्मान या श्रेय मिल जाता है पर एक क्षण के लिए भी मुझ यह अनुभूति नहीं होती कि इसके पीछे मेरी कोई, विशेषता है। इसमें मेरा श्रम, चिंतन, वैराग्य, संयम अथवा ज्ञान, रंचमात्र भी नहीं है। मुझे तो ऐसा लगता है कि प्रभु ने सोचा होगा कि कृपा के विषय में प्रमाण देने हेतु सबसे अयोग्य व्यक्ति को चुनकर वक्ता बना देना ठीक रहेगा। क्योंकि विद्वान व्यक्ति को वक्ता बनाने पर लोग कहेंगे कि इन्हें तो अपनी विद्वता से यह मिला। अयोग्य व्यक्ति को बोलते देखकर लोगों को यही लगेगा कि यह तो ईश्वर की कृपा का ही फल है।
मुझे बहुत से पत्र आते रहते हैं जिनमें लोग बड़ी प्रशंसा करते हुए ज्ञानी-ध्यानी, अध्ययन-मननशील और न जाने क्या-क्या विशेषताएँ मुझमें देखते रहते हैं। मुझे बहुत प्रसन्नता नहीं होती यह सब पढ़कर, पर जब कोई अपने पत्र में लिखते हैं - “भगवत्कृपापात्र" तो इससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता होती है। वस्तुतः सत्य तो यही है कि *भगवान के रहस्य को जान पाना किसी व्यक्ति के लिए संभव ही नहीं है। व्यक्ति यदि उस असीम के विषय में वाणी के माध्यम से कुछ कहना चाहे तो उसका यह प्रयास अपनी वाणी को धन्य बनाने की एक चेष्टा ही मानी जायगी।
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