मन ही मन को परेशान करता है

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 "आपके मन के अलावा कोई भी अन्य आपको परेशान नहीं कर सकता। भले ही आपको प्रतीत हो कि कोई आपको परेशान कर रहा है, लेकिन वह आपका मन ही होगा।...

 "आपके मन के अलावा कोई भी अन्य आपको परेशान नहीं कर सकता। भले ही आपको प्रतीत हो कि कोई आपको परेशान कर रहा है, लेकिन वह आपका मन ही होगा।" मन ही मन को परेशान करता है।

एक मित्र कहते हैं -उनके परिवार जन कलह करते हैं, सद्भाव नहीं रखते।'

किसीने लिखा-हमें फुर्सत ही नहीं इस बारे में सोचने की कि कौन हमारे बारे में क्या सोचता है!'

इसका मतलब उसका मन कहीं और है। जिसे कलह दिखती है उसका मन कलह में है। पहले का यह तमोगुणी संस्कार दृढ है।

महर्षि का कथन है-जो एक विचार आपको सबसे अच्छा लगता हो उसमें दृढ हो जाईये।'

सतत उसीका चिंतन कीजिए।बिना किये अपने आप नहीं होता।

अपने आप तो अस्तित्व बोध घट रहा है।उसके साथ रहा जाय तो द्रष्टा दृश्य रुपी मन मिट जाता है। समस्या ही खत्म हो जाती है।

हम एक को बचा लेना चाहते हैं।यह संभव नहीं है। द्रष्टा है तो दृश्य भी रहेगा, दृश्य है तो द्रष्टा भी होगा ही। दोनों संबंधित हैं।अलग नहीं रखा जा सकता।

"To be is to be related."

होने का मतलब संबंधित होना है अन्यथा हम नहीं हैं।हम किसी भी रुप में हो सकते हैं।हम देख रहे हैं तो हम द्रष्टा बन जाते हैं,हम दीख रहे हैं तो हम दृश्य बन जाते हैं।

दोनों मन है।

प्रश्न है जब हम किसीको देखते हैं तब क्या वह संबंधित महसूस नहीं होता?वह होता ही है भले ही हम उसे अनजान, अपरिचित कहें।

अनजान भी संबंधित अनुभव होता है तो वह अनजान कहां रहा? सर्वात्मभाव इसीसे तो आता है।

यहां सभी संबंधित अनुभव हो रहे हैं फिर क्लेश की समस्या कहां से आयी?

अपना पराया मानने के कारण।

यह मान्यता है।यह अहंबुद्धि की पृथकता है वर्ना यहां ऐसा कोई नहीं जो असंबंधित महसूस हो।

तथाकथित असंबंधित भी संबंधित ही है।

यह जो संबंध अनुभव है यह व्यक्तिगत तथा वैश्विक दोनों हैं।

पहले व्यक्तिगत -भीतर द्रष्टा -दृश्य के संबंधित होने को जाना जाय, अनुभव किया जाय तो आत्मविभाजन, आत्मदूरी समाप्त होने लगती है, अखंडता छाने लगती है। भीतर की दूरी मिटती है तो विश्व की दूरी समाप्त हो जाती है। अभी तो परिवार जनों से ही दूरी बनी हुई है,क्लेश मालूम पड रहा है।

इसे संबंध अनुभव से मिटाया जा सकता है।जब मित्र भी संबंधित अनुभव होता है, शत्रु भी संबंधित अनुभव होता है तो मित्र, शत्रु का भेद किसलिए?

क्या यह अपना अपने राग-द्वेष के वश में होना नहीं है?

यह राग-द्वेष का, दोस्त दुश्मन का, अपने पराये का, अनुकूल प्रतिकूल का चश्मा हटाकर क्यों नहीं देखते?

तब चित्त,हृदय में समाहित हो जाता है।हृदय सभी का जुडा हुआ है।एक ही हृदय है,अनेक नहीं।

जब चित्त,मन में रहता है तब भी सब संबंधित ही अनुभव होता है एक ही हृदय के होने के कारण

मगर मन में मैं मेरा है,वह उसका है,अपना है पराया है ऐसा भेद रहता है।

यह व्यक्तिगत है। मैं भी मन का है,दूसरा जिसे हम कहते हैं वह भी मन का ही है और संबंधित है।

अर्थात् अपना तो अपना है ही,पराया भी अपना है।पराया भी संबंधित अनुभव होता है।यह देखने जैसी बात है।अगर असंबंधित है तो बात खत्म हो गयी लेकिन कहीं संबंध अनुभव हो रहा है जिससे हम परायेपन की बात कर रहे हैं।

जब अपने पराये दोनो संबंधित अनुभव होते हैं फिर बीच में दीवार किसलिए?

मैं और तुम दोनों मेरे मन के शब्द हैं।मेरा ही मन मैं तथा तुम बना हुआ है तथा चित्त दोनों शब्दों के संबंधित होने को महसूस भी कर रहा है।

तात्पर्य है खेल तो खुद का ही है। भले ही कहें-आंतरिक तथा बाहरी। लेकिन क्या आंतरिक और बाहरी एक दूसरे से संबंधित महसूस नहीं होते?

असंबंधित हों तो दोस्ती दुश्मनी,प्रेम घृणा, राग-द्वेष,क्रोध क्षोभ का कोई काम नहीं।

दरअसल यह मान्यता ही है जो अपने में अंत:करण को दो भागों में विभाजित कर देती है।

मान्यता न हो,मैं तुम शब्द न हों तो वहां एक ही चीज है वह अपने आपसे जुडी हुई है।

इसका अर्थ है न "मैं" शब्द का प्रयोग करें,न "तुम" शब्द का।तब नामरहित दोनों खंडों के जुडे रहने में कोई बाधा नहीं।

आंखों में आपका प्रतिबिंब है मगर भीतर भेद प्रक्रिया नहीं है।

यह संभव है मैं आपको मेरे ही रुप में मुझसे संबंधित अनुभव कर रहा हूं लेकिन आप नहीं कर रहे हों यदि आप नहीं समझ रहे।

तब मुझे आपसे कोई समस्या नहीं होती,आपको मुझसे हो सकती है।आप मुझे असंबंधित, बाहरी,पराया,अलग मान रहे हैं।

सत्य सबका है फिर भी जो समझे उसका है।मूल में अद्वैत है।इसके आधार पर द्वैत का,भेद का खेल चलता है।यह भी संबंधित होने के आधार पर ही चलता है।मूल को अर्थात अद्वैत सत्य को नकारा नहीं जा सकता।जो है वह अखंड है।

यही कारण है कि खंडों की प्रतीति होने पर भी सब संबंधित अनुभव होते हैं।

यहां जो दोस्त है वह भी संबंधित है,जो दुश्मन है वह भी संबंधित है।संबंध का अनुभव हर वक्त मौजूद है फिर हम क्यों दोस्त दुश्मन का दृष्टिकोण अपनाये हुए हैं?क्यों कहते हैं अमुक सद्भाव रखता है,अमुक असद्भाव?

केवल इन शब्दों को छोड़ना है। इन्हें एक नहीं किया जा सकता क्योंकि ये विपरीत अर्थों के सूचक हैं। इसलिए दोस्त, दुश्मन दोनों शब्द छोड दिये जायें तो मानसिक भेद मिट जाता है,चित्त में भेद की प्रतीति हो सकती है।जब चित्त की यह भेद प्रतीति भी चली जाती है तब केवल हृदय ही रहता है।

हृदय सभी में एक है।

"सभी में" कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जब एक ही हृदय का अनुभव होता है तब कोई "सभी" नहीं रहता।

यह सत्य हम जान सकते हैं।

 कोई हमारे प्रति परायापन रखता है, हमें भी वह मालूम पडता है।इसका मतलब हम बंटे हुए हैं।

जब हम अपने पराये को संबंधित अनुभव करते हैं तब 'अपने पराये' केवल शब्द मात्र रह जाते हैं -अर्थहीन शब्द।

कोई शब्द अर्थ हीन नहीं होता मगर यहां संबंध की गहराई में सभी शब्द व्यर्थ तथा अर्थहीन हो जाते हैं।

सागर की सतह पर विभिन्न लहरों के नाम रुपों का शोर है, संघर्ष है मगर जैसे जैसे सागर की गहराई में उतरते हैं ये सब नामरुप,उनके भेद,उनके संघर्ष विलीन होने लगते हैं।

इसलिए जो परम गहरे में पहुंच जाता है उसके लिए एक अखंड चेतना का महासागर ही रह जाता है।द्वैत के सारे भ्रम दूर हो जाते हैं।

जैसे जैसे वापस ऊपर की तरफ आते हैं विभाजन उत्पन्न होने लगता है,दूरी बढ़ने लगती है।

चाहे जितनी बढे दूरी फिर भी सब संबंधित अनुभव होता ही है।

इसका मुख्य कारण यह है कि इन सबका आधार एक ही है।

जिसे माया कहते हैं वह मन के रूप में कार्य करती है।मन दो भागों में बंटा रहता है फिर भी वह एक मामले में मजबूर है।वह अपने दूसरे खंड को असंबंधित नहीं कह सकता।हर हाल में दूसरा खंड संबंधित अनुभव होता ही है।

इसलिए खंडों के जो नाम रखे जाते हैं मैं दूसरा,अपना पराया,दोस्त दुश्मन, परेशान करने वाला परेशान होने वाला इन्हें निमित्त बनाकर द्वंद्व जारी रखा जाता है।यह अपना ही मन है,किसी दूसरे का नहीं।

वह तथाकथित "दूसरा व्यक्ति"अपना ही मन है।

एकत्व की अनुभूति में ये सारे शाब्दिक भेद प्रभावहीन हो जाते हैं।

यह अनुभूति स्वयं को करनी होती है क्योंकि संभव है मैं अखंड होऊं,आप खंडित हों या आप अखंड हों, मैं खंडित होऊं।

जो जान ले उसकी बात है।

व्यवस्था सभी के अंदर एक है इसलिए जाननेवाले के भीतर सद्भाव बना रहता है।

वह नहीं जाननेवाले के भीतर संबंधित खंडों का संघर्ष मिटाने में मदद कर सकता है।

आपने मेरी जो छबि(इमेज)बना रखी है वह आपके ही मन ने बना रखी है।आप उससे छूट नहीं पाते।

ये जो बाहरी संघर्ष है यह भीतर संघर्ष की उपस्थिति का सूचक है।जिसके भीतर संघर्ष नहीं है उसके बाहर भी कोई संघर्ष नहीं है।उसका आंतरिक -बाहरी भेद समाप्त हो गया होता है इस आधार पर कि आंतरिक व बाहरी संबंधित अनुभव होते हैं या नहीं?

होते हैं बल्कि होते ही हैं तो यह आधार बन जाता है व्यक्तिगत सारे मिथ्या विभाजनों के अंत का।

सूत्र है-जिसे भी देखते हैं सीधे अनुभव करें गहराई से बिना कोई छबि बनाये,बिना नाम दिये,बिना शब्दीकृत किये।

अन्यथा हम ही संबंधित असंबंधित, अपने पराये में, परेशान करने वाले परेशान होने वाले में बंटे रहते हैं और खुद से विचलित होते हैं,खुद से दूर भागते हैं।

यह रहस्य समझ में आगया तो तथाकथित परेशान करने वाले के प्रति सद्भाव, सहानुभूति उत्पन्न होंगे क्योंकि वह भी उसके मानसिक विभाजन के द्वंद्व में उलझा हुआ है, फंसा हुआ है।

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भागवत दर्शन: मन ही मन को परेशान करता है
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