सातवे स्कंध के आरम्भ में राजा परीक्षित ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूँछा - आप कहते हैं कि ईश्वर सर्वत्र है और वह समभावसे व्यवहार करते है। यदि ऐ...
सातवे स्कंध के आरम्भ में राजा परीक्षित ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूँछा - आप कहते हैं कि ईश्वर सर्वत्र है और वह समभावसे व्यवहार करते है। यदि ऐसी बात है तो जगत में विषमता क्यों दृष्टिगोचर हो रही है ? चूहे में ईश्वर है,बिल्ली में भी, तो फिर बिल्ली चूहे को क्यों मारकर खाती है। ईश्वर सभी में समभाव से रहते है तो फिर ये विषमता क्यों उत्पन्न करते है ? वे यदि समभावी है तो फिर बार-बार देवो का पक्ष लेकर वे दैत्यों को क्यों मारते है ? भगवान की दृष्टि में यदि सभी प्राणी समान है तो उन्होंने इन्द्र के लिए वृत्रासुर का वध क्यों किया ?
शुकदेवजी कहते है - राजन,तुमने प्रश्न तो अच्छा किया पर तुम प्रश्न की जड़ में नहीं गए। परमात्मा की "क्रिया" में भले ही विषमता हो किन्तु "भाव" में समता है। समता "अद्वैतभाव" में होती है,"क्रिया" (कर्म) में समता संभव नहीं है। क्रिया (कर्म) से तो विषमता ही रहेगी। अतः भाव से (अद्वैत या एक भावसे) समता रखनी चाहिए। उदाहरण - घर में माता,पत्नी,संतान आदि होते है। पुरुष इन सभी के प्रति प्रेम तो एक समान ही रखता है, किन्तु सभी के साथ एक समान वर्ताव नहीं कर सकता, वह माता को वंदन करेगा, पर पुत्र को नहीं।
प्रेम आत्मा के साथ करना होता है,देह के साथ नहीं, भावना के क्षेत्र में अद्वैतभाव होना चाहिए। समदर्शी (सबमे समान दृष्टि से परमात्मा का दर्शन करना) बनना है,समव्यवहारी नहीं। समव्यवहारी (सब के साथ समान व्यवहार) होना तो सम्भव नहीं है। भागवत को आदिभौतिक साम्यवाद मान्य नहीं है,मात्र आध्यात्मिक साम्यवाद ही मान्य है।
शुकदेवजी कहते है - राजन,भगवान की दो शक्तियाँ है--"निग्रह शक्ति और अनुग्रह शक्ति।"
निग्रह शक्ति से राक्षसो को मारते हैं और अनुग्रह शक्ति से देवो का कल्याण करते हैं। राजन,तुम्हें लगता है कि- देवो का पक्ष लेकर भगवान ने असुरो का नाश किया, परन्तु उन्होंने यह संहार तो असुरों पर कृपा कर के हेतु से ही किया था।
राजन! जैसे तुम होगे,ईश्वर का रूप भी तुम्हें वैसा ही दिखाई देगा। ईश्वर का कोई एक निश्चित रूप नहीं है,मनुष्य जीव जिस भाव से उन्हें (ईश्वरको)देखता है,उसके लिए वे वैसे ही बन जाते है।
वल्लभाचार्यजी कहते है कि- (ब्रह्म) "ईश्वर" - लीला करते है,अतः वे अनेक रूप धारण करते हैं, यह "भक्ति" का सिद्धांत है।
शंकराचार्यजी कहते हैं कि- ब्रह्म सर्वव्यापक और निर्विकार है। उस ब्रह्म की कोई क्रिया नहीं है।
कलश में रखा हुआ जल तो बाहर निकाला जा सकता है ,किन्तु अंदर समाया हुआ आकाश नहीं। ऐसे,ईश्वर आकाश की तरह है,ईश्वर सर्वत्र है,ईश्वर की "माया" से इस "क्रिया का अध्यारोप" किया गया है, यह "वेदांत" का सिद्धांत है। माया की "क्रिया" ईश्वर -या- "अधिष्ठान" में आभासित होती है,ईश्वर निष्क्रिय है, माया के कारण क्रिया का भास होता है। वास्तव में-तो (ब्रह्म) ईश्वर कुछ भी-नहीं करते है,अतः उनमे विषमता नहीं है। अग्नि निराकार है,फिर भी जब लकड़ी जलती है तो लकड़ी जैसा ही आकार अग्नि -का भी आभासित होता है। उपाधि (माया) के कारण आकार (राम-कृष्ण आदि का) का भास होता है। पर परमात्मा का वास्तविक स्वरुप व्यापक,निराकार और आनन्दरूप है,आचार्य शंकर का यह दिव्य -अद्वैत सिद्धान्त है।
महाप्रभुजी का सिद्धान्त भी दिव्य है, वैष्णव मानते है कि ईश्वर की अक्रियात्मकता की बात बराबर है। ईश्वर क्रिया तो नहीं पर लीला करते है, ईश्वर निष्क्रिय है यह बात सच है,किन्तु यह उतना ही सच है कि वे लीला भी करते हैं, जिस क्रिया में क्रिया का अभिमान नहीं होता,वह लीला है, ईश्वर स्वेच्छा से लीला करते है। “मैं करता हूँ” ऐसी भावना के बिना निष्काम भाव से जो क्रिया की जाए,वही लीला है। कृष्ण की लीला है, उन्हें सुख की इच्छा नहीं है, कन्हैया चोरी करता है किन्तु औरो की भलाई के लिए, क्रिया बंधन-कारक है,लीला मुक्तिदायक। जीव जो कुछ करता है,वह क्रिया है ,क्योंकि उसकी हर क्रिया के पीछे स्वार्थ,वासना और अभिमान होता है।
दोनों सिद्धान्त सत्य हैं, ईश्वर निर्विकार निर्विकल्प है और माया क्रिया करती है,यह सिद्धान्त भी दिव्य है। ईश्वर कुछ भी नहीं करते,किन्तु उनमे क्रिया का अध्यारोप किया जाता है,माया के कारण ईश्वर के व्यवहार में विषमता का भास होता है, ईश्वर परिपूर्ण सम है, परमात्मा सम है और जगत विषम। भगवान दैत्यों को मारते है -पर भगवान के मार में भी प्रेम है।सत्वगुण,रजोगुण और तमोगुण प्रकृति (माया) के गुण है,आत्मा (परमात्मा -ब्रह्म) के नहीं। माया (प्रकृति)त्रिगुणात्मिका है, परमात्मा इन तीनो गुणों से परे है। जीव के उपभोग के लिए शरीर सर्जन की इच्छा जब भगवान करते हैं तो रजोगुण के बल में वृद्धि करते है और जीवों के पालन के हेतु से सत्वगुण के बल में और संहारार्थ तमोगुण के बल में वृद्धि करते हैं।
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