क्या हनुमानजी रघुवंशी हैं ?

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मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्। वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये।।   जिनकी मन के समान गति और वायु...

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।

वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये।।

  जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्दिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, उन पवनपुत्र वानरों में प्रमुख श्रीरामदूत की मैं शरण लेता हूं। कलियुग में हनुमानजी की भक्ति से बढ़कर किसी अन्य की भक्ति में शक्ति नहीं है।

  मित्रों, सांसारिक दृष्टि से भी अगर विचार करे आपने वह कथा तो सुनी होगी, हनुमानजी भी रघुवंशी है, जिस प्रसाद से इन चारों भाईयों का जन्म हुआ उसी यज्ञ के प्रसाद से श्री हनुमानजी का भी जन्म हुआ, प्रसाद के रूप अलग-अलग थे श्रीहनुमानजी भी रघुवंशी है, इसलिये गोस्वामीजी ने कहा था कि "बरनउँ रघुबर विमल जसु" मैं किसी बन्दर के यश का वर्णन नही कर रहा हूँ बल्कि रघुवर के यश का वर्णन कर रहा हूँ, क्योंकि हनुमानजी रघुवंशी है, रघुवर माने रघुकुलश्रेष्ठ है।

  जिनको भगवान् स्वयं रघुवर श्रेष्ठ कह रहे हैं, "सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं" उनकी श्रेष्ठता का कौन वर्णन करे, जिस प्रसाद से श्रीभरतजी का जन्म हुआ है उसी प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी, हमने संतो के श्रीमुख से सुना है कि पायस प्रसाद लेकर दशरथजी राजभवन में आए हैं, कैकेयजी सबसे सुन्दर भी थीं और दशरथजी को सबसे प्रिय भी थीं, तो कैकेयीजी को मालूम था कि प्रसाद मुझे दिया जाएगा।

  कैकेयीजी को विवाह के समय के वरदान की भी जानकारी थी कि मेरे पिताजी ने मेरा विवाह इस शर्त पर किया है, कि मेरे गर्भ से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा, संतानों की उत्पत्ति के लिए प्रसाद पहले मुझे ही दिया जाएगा, लेकिन हुआ इसके उल्टा, सबसे पहले दशरथजी ने प्रसाद का आधा भाग कौशल्याजी को दिया, और आधे का आधा कैकेयजी को दिया गया, कैकेयजी का माथा ठनक गया।

  कैकेयजी क्रिया शक्ति है और क्रिया बहुत जल्दी ठनकती है, क्रिया में अहंकार होता है, अहंकार हमेशा ठनकता है, प्रसाद पाकर प्रसन्न होना चाहिये, लेकिन माथा ठनका लिया प्रसाद तो कृपा से मिलता है, कैकेयी कुनमुना रही थी, और ऊपर चील उड़ रही थी, वह हाथ से प्रसाद लेकर उड गयी, जो मिला था वह भी चला गया. नियम यह है कि जो मिला है वह प्रभु का प्रसाद है, शीश पर धारण करो और उसे स्वीकार करो।

  परमात्मा के दिए गए प्रसाद पर भी नुक्ताचीनी करोगे तो जो दिया है वह भी चला जायेगा, अब तो हा-हाकार मच गया, यहाँ से प्रसाद लेकर चील जब आकाश मे उड रही थी तो अचानक पवन का तेज झौंका आया चूंकि पवन तो कृपा करने ही वाले थे, चील के मुख से वह प्रसाद गिरा और सीधे अंजनाजी की गोद मे जा गिरा।

  देखो कृपा के लिए कोई पात्रता की आवश्यकता नही, कृपा प्रतीक्षा से आती है, कृपा स्वयंमेव आती है, दया मांगनी पडती है और कृपा प्रसाद के रूप मे आती है, अंजनाजी स्थिर बैठी थी और कैकेयीजी चंचल थी, आया प्रसाद चला गया, अंजनाजी शान्त बैठी थी, कृपा का प्रसाद अपने आप गोदी में आ गया. प्रतीक्षा करियें, धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करियें प्रभु की प्रतीक्षा का प्रसाद स्वयंमेव आएगा।

  अहिल्याजी बैठी थी स्थित चित्त धैर्यपूर्वक, भगवान् स्वयं अहिल्याजी के द्वार पर आ गए, शबरीजी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा में बैठी है भगवान् शबरीजी के द्वार पर आ रहे है, विदुर-विदुरानीजी धैर्यपूर्वक अपनी कुटिया में बैठे कीर्तन कर रहे हैं प्रतिक्षा कर रहे है. भगवान् स्वयं आकर द्वार खटखटाते है, प्रसाद प्रतीक्षा से प्रभु कृपा से मिलता है और उस प्रसाद का सेवन अंजनीमाँ ने किया है।

  तो जिस प्रसाद से का जन्म हुआ उसी यज्ञ के प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी जन्म हुआ, इसलिए भगवान् ने कहा है कि "तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई " कई बार कथाओं में हम सुनते है कि भगवान् जब लक्ष्मणजी की मूर्छा के समय रो रहे थे तो रोते-रोते प्रभु बोल रहे थे कि "मिलइ न जगत सहोदर भ्राता" देखो मरण के रूदन में पुरानी-पुरानी घटनायें मनुष्य याद करके रोता है।

  आपने माताओ को रोते देखा होगा वह किसी ऐसे अवसर पर जब रोती है तो बोलती जाती है, पुरानी-पुरानी घटनायें उनको याद आती रहती है, रोती जाती है तो रूदन मे ह्रदय निर्मल होता है, और निर्मल ह्रदय में से पुरानी बातें याद आती जाती है, सज्जनों! रामकथा संजीवनी बूटी है, वेद और पुराण यही पर्वत है, वेद और पुराण रूपी पर्वत यह ही राम कथा रूपी संजीवनी है, जो काम से मूर्छित जीव को जागृत कर सकती है।

  काम तो वयक्ति को मार डालता है आज जिसको राम नहीं जगा पा रहे उसको संत के श्रीमुख से गायी गयी रामकथा जगा रही थी, हनुमानजी संत हैं और रामकथा रची है वेदों में, पुराणों में, संजीवनी पर्वतों के शिखरों पर मिलती है, बाईस पर्वत ऐसे हैं जिनकी परिक्रमा की जाती है, गिरिराज, आबूराज, चित्रकूट, कैलाश आदि ये पर्वत वेद और पुराणों के प्रतीक हैं, ये पर्वत स्थूल नहीं है ये जीते-जागते शास्त्र है, ज्ञान है, इनमें ज्ञान व भक्ति के भण्डार छुपे हैं।

  औषधि को वैध की सलाह से लें और शास्त्रों को गुरूओं के चरणों में बैठकर पढें, शास्त्र के मर्म को सदगुरू जानता है "शास्त्री मर्मी सुमति कुदारी" इन कथाओं के पर्वतों के, वेद के, पुराण के मर्म को समझने वाले इनके भीतर की कथाओं को समझने वाले सुमति जन है, सुमति लेकर जाओगे, श्रद्धा लेकर जाओगे तो कुछ मिलेगा, भाव लेकर जाओगे तो कुछ मिलेगा।

  नहीं तो, पहाड खोदोगे तो कंकड, पत्थर तो मिलेंगे पर मणियां नहीं मिलेगी क्योंकि इनको भी ज्ञान वैराग्य के नेत्रों से खोजना पडता है, तर्क और कुतर्क की बातों से कुछ नहीं मिलेगा, कोई न कोई सदगुरू वहाँ से यह कथा लाते हैं, वेदों में, पुराणों में जो कथा भरी है, उनमें से शास्त्रज्ञ, वेदज्ञ, आचार्य, सदगुरू, संत उन मार्मिक कथाओं को निकालकर उनके मर्म को निचोड़कर आपको देते हैं जो आपकी मूर्छा को दूर करते हैं।

  जैसे पुराणों को पढकर लोग कहते हैं कि कुछ नहीं है केवल कपोलकल्पित कथायें भरी है, ऐसा नहीं है यह गूढ ज्ञान को रसीला बनाने के लिए कथानक के साथ जोडा गया है, लेकिन हमने कथानक को तो पकड लिया पर कथानक के मर्म को नहीं पकडा, मर्म को कोई मर्मी ही जानता है, जब सदगुरू के चरणों में बैठोगे हनुमानजी गुरु की भूमिका में हैं पर्वत पर गुरु आकर पर्वत से मर्म निकालकर ले जा रहा है, कथाओं, वेदों, पुराणों के जो असली मर्म है वही तो संजीवनी है।

  अन्यथा तो भगवान् को सिन्धु कहा गया है, सागर में अथाह जल हैं लेकिन आप एक बूँद पी सकते हैं क्या? राम सिन्धु लेकिन सज्जन कौन है? बादल हैं, यही बादल जब सागर से वाष्पन के बाद बरसते है तो ही जल बिसलेरी से भी ज्यादा मीठा हो जाता है, सीधे-सीधे यदि सागर का जल पियोगे तो खारा लगेगा लेकिन वही बादलों के द्वारा यदि पान करोगे तो मिठास आयेगी, तो वेद-शास्त्र को यदि सीधा-सीधा पढोगे तो खारा, कडुवा लगेगा।

  लेकिन वही किसी संत के श्रीमुख से सुनोगे तो कथायें आपको मीठी व रसीली लगेंगी, मन करेगा और सुनें, चन्दन के पेड को यदि सूंघोगे तो सुगन्ध नहीं मिलेगी, उसको घिसोगे तो सुगन्ध मिलेगी, इसलिये भाई-बहनों श्री हनुमानजी महाराज को अपना गुरु बनाओं, हनुमानजी जैसे संत का आश्रय लोगे तो निश्चित आप भव बंधन से मुक्त हो जाओगे।

पवन तनय संकट हरण मंगल मूरत रूप।

राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप।।

  हे पवन के समान शरीर धारी वायुपुत्र समस्त संसार के जीवों के संकट हरने वाले, कल्याणमय, मंगलमूर्त राम लक्ष्मण एवं सीता सहित हे सुरभूप (देवताओं एवं पृथ्वीवासियों के रक्षक, पालनहार) मेरे हृदय में ऐसे आ विराजिए जैसे आप ( अपने स्वामी, ईष्ट, सखा) प्रभु श्री राम एवं माता सीता को हृदय में सदैव समाए रखते हैं।

  हे चिरंजीवी देवों के देव हनुमंत लाल जी अतुलित बल के स्वामी होते हुए भी र्निभमान हैं, केवल स्मरण कराने पर पर्वताकार स्वरूप ले अपने बल एवं बुद्धि द्वारा असुरों का संहार कर देते हैं। जिनका डंका तीनों लोको मे बजता हो कलयुग मे जिनका नाम चारो दिशाऔ मे चलता हो।

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भागवत दर्शन: क्या हनुमानजी रघुवंशी हैं ?
क्या हनुमानजी रघुवंशी हैं ?
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