ओउम् (ॐ) या ओंकार का नामान्तर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव सम्बन्ध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत न...
ओउम् (ॐ) या ओंकार का नामान्तर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव सम्बन्ध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक सम्बन्ध को प्रकट करता है।पहली स्थिति में 'ऊँ' जप से शरीर शुद्ध होकर मन ही मन जप के योग्य बनता है और मन ही मन 'ऊँ' जप करके मन शुद्ध व निर्मल बनता है, जिससे बुरे मानसिक विचार दूर होते हैं। इस ध्यान से शरीर और मन दोनों ही 'ऊँ' मय हो जाते हैं। इससे मन शांत होकर ईश्वर शक्ति का ज्ञान प्राप्त करता है और व्यक्ति समाधि की प्राप्ति करता है।
ओ३म् सिर्फ एक पवित्र ध्वनि ही नहीं, बल्कि अनन्त शक्ति का प्रतीक है, ॐ) शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है.. अ उ म. अ का मतलब होता है उत्पन्न होना, उ का मतलब होता है उठना यानी विकास और म का मतलब होता है मौन हो जाना यानी कि ब्रह्मलीन हो जाना।
अगर आप अ का उच्चारण ऐसे करते है अअअअअअअअअ का , उच्चारण करते हैं तो वह ध्वनि आपकी नाभि के पास से स्पन्दित हो रही है और नाभि के पास पुरुष में प्राण चक्र या मसाना होता है वह स्त्री में गर्भाशय अ का मतलब उत्पत्ति कारक है और उत्पत्ति कारक को ब्रह्मा जी कहते हैं।
अगर आप उ का उच्चारण करेंगे तो ध्वनि ह्रदयतल पर उठेगी जैसे उउउउउउउउउ का उच्चारण करने से ध्वनि हृदय तल से आती हुई महसूस होती है उनका मतलब भूषण पोषण विकास करने वाला है उसी को नारायण कहते हैं यह उच्चारण लय के अनुसार होता है।
अगर आप म का उच्चारण करते हैं जैसे ममममममममममममम तो ध्वनि विशुद्ध चक्र से आती हुई महसूस होती है तो म का मतलब मौन हो जाना और यह स्थान नीकण्ठमहादेव का है।
इसमे चंद्रबिंदु भी है चंद्र सहस्त्रार की ओर संकेत करता है और बिंदु जो है वह अध्य शक्ति महाकाली की ओर संकेत करता है ज्यादातर लोग ओम का उच्चारण करते हैं जबकि वह अउम होता है उच्चारण में अगर तीनों शब्द नहीं उच्चारित होते तो उच्चारण में त्रुटि हो जाती और अधिकतर लोग ओम ही रटते रहते हैं ॐ वैदिक प्रणव है तांत्रिक प्रणव हीं होता है।
जो व्यक्ति यह कहता है कि चोर, बेईमान, एवं भ्रष्ट व्यक्ति सुख पा रहे है व हम ईमानदार दुख पा रहे है हमे कोई पूछता नही । ऐसा व्यक्ति भी पुरा का पुरा बेईमान है क्योकि उसका ध्यान भी भौतिक समृद्धि तक ही सीमित है वह ईमानदारी के उच्च आनन्द को जानता ही नही ।ऐसा व्यक्ति धार्मिक है ही नही न धर्म के महत्व को समझता है ।
जो लोग धर्म को भी सुख एवं भोग का साधन मात्र समझते है वे धर्म को नही जानते है धर्म यदि सुख और भोगो का साधन मात्र होता तो पाण्डवगण दुख सहन नही करते धर्म के लिए गुरू गोविन्द सिंह अपने लडको को दीवार मे क्यो चिनवाते मीरा को जहर क्यो पीना पड़ता राम को बनवास क्यो भोगना पडता हरिश्चन्द्र को मरघट मे काम क्यो करना पडता । इन सबने इनको स्वीकार किया धर्म के लिए भोग एवं सुख के लिए नही जो धर्म का पालन भी भौतिक सुख एवं भोग प्राप्ति के लिए करके है वे पक्के चालाक एवं बेईमान है भोगो के लिए पुरूषार्थ ही पर्याप्तहै जबकि धर्म आत्मोन्नति का मार्ग है कष्टो की अग्नि मे तप कर ही उसमे स्वर्ण जैसी शुद्धता एवं चमक प्राप्त होती है भोग प्राप्ति के लिए धर्म का उपयोग करना धर्म को ही कलंकित करना है । जो अनिति पूर्वक धन अर्जित करके चाहे क्षणिक भोग प्राप्त कर सुखी अनुभव करले किन्तु इससे उसकी आत्मा का पतन हो जाता है जो भौतिक सनखों से अधिक मुल्यवान है धार्मिक व्यक्ति इन तुच्छ सांसारिक भोग का त्याग करके ब्रह्मानन्द के महान सुख को प्राप्त होता है क्षुद्र वासना के त्याग बिना महान सुख की प्राप्ति नही हो सकती सांसारिक त्याग ही उस उच्च को पाने का नियम है।इसलिए ज्ञानी जन सांसारिक सुखो का त्याग करके आत्मोन्नति से ही प्रयत्नशील रहते है यदि भौतिक सुखों मे आकर्षण होता तो बुद्ध व महावीर इन्हे छोडकर नही जाते धार्मिक व्यक्ति साधारण व्यक्ति से भी अधिक दुख पाने का कारण एक ओर भी है कि कर्म नियम अनुसार जो व्यक्ति धर्म की ऊँचाई को छू लेता है उसका पुनर्जन्म नही होता है।
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