तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ। मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुं छोभ।।

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  काम' और 'क्रोध' के बाद जिस प्रमुख विकार की निन्दा की गयी है, उस क्रम में तीसरे विकार के रूप में 'लोभ' नाम आता है। ...

  काम' और 'क्रोध' के बाद जिस प्रमुख विकार की निन्दा की गयी है, उस क्रम में तीसरे विकार के रूप में 'लोभ' नाम आता है। 'मानस' के अरण्यकाण्ड में भगवान् राम लक्ष्मणजी से यही कहते हैं कि 'लक्ष्मण! वैसे तो समस्त दुर्गुण मनुष्य के जीवन में दुःख और अकल्याण की सृष्टि करते हैं, पर इनमें भी तीन दुष्ट वृत्तियाँ काम, क्रोध और लोभ प्रमुख हैं

   कलियुग में ‌लोभ ने एक महामारी का रूप ले लिया है, जिससे भृष्टाचार की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। आज विश्व में भ्रष्टाचार ने जो बिकराल रूप धारण कर रखा है, वह सब लोभ के कारण ही है। जब कि हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उनका पेट भर जाय। इससे अधिक सम्पत्ति को जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दंड मिलना चाहिए ।

यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।

अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।

  लोभी मनुष्य की कामना कभी पूरी नहीं होती। लोभ की स्थिति तो यह है कि जैसे लकड़ी अपने ही भीतर से प्रकट हुई आग के द्वारा जलकर नष्ट हो जाती है,उसी प्रकार जिसका मन वश में नहीं हुआ, वह पुरुष अपने साथ ही पैदा हुई लोभवृत्ति के कारण नाश को प्राप्त हो जाता है।

काम, क्रोध, मद, लोभ सब,नाथ नरक के पंथ।

सब परिहरि रघुबीरहि भजहुँ भजहिं जेहि संत।।

  काम क्रोध मद मतलब अहंकार और लोभ अर्थात लालच ये सब नरक के रास्ते हैं। इसलिए रावण तू इन सबका बहिष्कार कर सिर्फ राम का भजन कर, जिसका कि संत लोग भजन करते हैं।

  ईश्वर प्रेम का सागर है और प्रेम के सागर के निकट होते हुए भी प्यासे रहो तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा। काम, क्रोध और लोभ यह नर्क के मार्ग हैं। इन पर ईश्वर भक्ति से ही विजय प्राप्त की जा सकती है। ईश्वर ऐश्वर्य सौंदर्य और माधुर्य का रूप है। यह सभी गुण अपने भगवान श्रीराम में विद्यमान हैं। तभी तो उन्होंने मिथिला को सौंदर्य से किष्किंधा को शील से और लंका को बल से जीत लिया।

  यहाँ काम क्रोध मद लोभ आदि कारकों से विभीषण हमेशा के लिए रावण को मुक्त होने के लिए नहीं कहता है। क्यों कि वह जानता है कि सफल राजनीतिक जीवन के लिये काम क्रोध मद लोभ इत्यादि स्वाभाविक तत्वों का होना आवश्यक है। काम संतानोत्पत्ति, क्रोध दुश्मनों के दमन, मद याने स्वाभिमान स्वत्व की वृद्धि, लोभ व्यवसाय वृद्धि में महत्त्व पूर्ण भूमिका अदा करता है। इसलिए वह इन तत्वों को नरक नहीं कहता बल्कि नरक के पंथ कहता है।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में काम, क्रोध और लोभ को विनाशकारी नरक के द्वार की संज्ञा दी है। अतः इन तीनों को त्यागना ही उचित है। 

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनात्मन:।

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

   काम, क्रोध और लोभ तीनों दुष्ट उत्पात मचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए इनसे मुक्ति तभी मिल सकती है, जब हम सब प्रकार की वासनाओं से रहित हो जायँ ।

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।

क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि।।

 अर्थात्, काम, क्रोध और लोभ,यह मनुष्य के तीन प्रबल शत्रु है,जो मुनि और ज्ञानी पुरुषो के मन में निमिष मात्र के लिए छोभ उत्पन्न कर देते है।

यथैध: स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।

तथा कृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति।।

  इसके लिए आवश्यक है कि हमें जितना प्रभु से मिला है, उसमें संतोष करें। जितना मिला है, उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करें और जो नहीं मिला है, उसके लिए कभी आहत न हों, कभी शिकायत न करें। जो इस भावदशा में जीता है, वही वास्तविक धनवान है।

मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते।

यदा च पच्यते पापं दुःखं चाथ निगच्छति॥

  जब तक पाप सम्पूर्ण रूप से फलित नहीं होता (अर्थात् जब तक पाप का घडा भर नहीं जाता) तब तक वह पाप कर्म मीठा लगता है। किन्तु पूर्ण रूप से फलित होने के पश्चात् मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पड़ते हैं।

एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः ।

भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते॥

  मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उसका फल (आनन्द) उठाते हैं। भोग करने उठाने वाले तो बच जाते हैं ; पर पाप करने वाला दोष का भागी होता है

एक कहानी याद आती है ।

    एक बार एक गाँव में पंचायत लगी थी। वहीं थोड़ी दूरी पर एक सन्त ने अपना बसेरा किया हुआ था। जब पंचायत किसी निर्णय पर नहीं पहुच सकी तो किसी ने कहा कि क्यों न हम महात्मा जी के पास अपनी समस्या को लेकर चलें अतः सभी सन्त के पास पहुँचे।

   जब सन्त ने गांव के लोगों को देखा तो पुछा कि कैसे आना हुआ ? तो लोगों ने कहा, “महात्मा जी गाँव भर में एक ही कुआँ हैं और कुँए का पानी हम नहीं पी सकते, बदबू आ रही है। मन भी नहीं होता पानी पीने को।

  सन्त ने पुछा- हुआ क्या ? पानी क्यों नहीं पी सकते हो ?

   लोग बोले- तीन कुत्ते लड़ते लड़ते उसमें गिर गये थे। बाहर नहीं निकले, मर गये उसी में। अब जिसमें कुत्ते मर गए हों, उसका पानी कौन पिये महात्मा जी ?

 सन्त ने कहा - 'एक काम करो, उसमें गंगाजल डलवाओ।

   कुएं में गंगाजल भी आठ दस बाल्टी छोड़ दिया गया। फिर भी समस्या जस की तस रही। लोग फिर से सन्त के पास पहुँचे। अब सन्त ने कहा, भगवान की कथा कराओ।

  लोगों ने कहा, “ठीक है।” कथा हुई, फिर भी समस्या जस की तस। लोग फिर सन्त के पास पहुँचे। अब सन्त ने कहा, उसमें सुगंधित द्रव्य डलवाओ। सुगंधित द्रव्य डाला गया, नतीजा फिर वही। ढाक के तीन पात। लोग फिर सन्त के पास, अब सन्त खुद चलकर आये।

 लोगों ने कहा- महाराज ! वही हालत है, हमने सब करके देख लिया। गंगाजल भी डलवाया, कथा भी करवायी, प्रसाद भी बाँटा और उसमें सुगन्धित पुष्प और बहुत चीजें डालीं। 

  अब सन्त आश्चर्यचकित हुए कि अभी भी इनका मन कैसे नहीं बदला। तो सन्त ने पूछा- कि तुमने और सब तो किया, वे तीन कुत्ते जो मरे पड़े थे, उन्हें निकाला कि नहीं ?

 लोग बोले - उनके लिए न आपने कहा था न हमने निकाला, बाकी सब किया। वे तो वहीं के वहीं पड़े हैं।

 सन्त बोले - "जब तक उन्हें नहीं निकालोगे, इन उपायों का कोई प्रभाव नहीं होगा।

  ऐसी ही कथा हमारे जीवन की भी है। इस शरीर नामक गाँव के अंतःकरण के कुएँ में ये काम, क्रोध और लोभ के तीन कुत्ते लड़ते झगड़ते गिर गये हैं। इन्हीं की सारी बदबू है।

  हम उपाय पूछते हैं तो लोग बताते हैं, तीर्थयात्रा कर लो, थोड़ा यह कर लो, थोड़ा पूजा करो, थोड़ा पाठ। 

   सब करते हैं, पर बदबू उन्हीं दुर्गुणों की आती रहती है। तो पहले इन्हें निकाल कर बाहर करें तभी जीवन उपयोगी होगा।

तुलसी’ काया खेत है, मनसा भयौ किसान।

पाप-पुन्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान॥

  गोस्वामी जी कहते हैं कि शरीर मानो खेत है, मन मानो किसान है। जिसमें यह किसान पाप और पुण्य रूपी दो प्रकार के बीजों को बोता है। जैसे बीज बोएगा वैसे ही इसे अंत में फल काटने को मिलेंगे। भाव यह है कि यदि मनुष्य शुभ कर्म करेगा तो उसे शुभ फल मिलेंगे और यदि पाप कर्म करेगा तो उसका फल भी बुरा ही मिलेगा।

  इस जगत् में हम भगवान् के प्रेम में जियें अर्थात् प्रेम की बात करें, प्रेम की बात सुनें, प्रेम के कार्य करें, सपने भी देखें तो प्रेम के ही और अन्त में प्रेममय भगवान् में जाकर हम विलीन हो जायँ, प्रेममय भगवान् को प्राप्त कर लें, प्रेममय भगवान् की लीला में प्रवेश कर जायँ, प्रेम-धाम में हमें स्थान मिले मानव-जीवन का वास्तविक साफल्य इसी में है।

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