ज्ञान का पथ कण्टकाकीर्ण है और भक्ति का निष्कण्टक !

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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प्रेम सकल हो, भाव अटल हो... मन को मन की आशा हो...।

बिन बोले जो व्यथा जान ले वो अपनों की परिभाषा हो...।।

  यह प्रश्न उठ सकता है कि जब ईश्वर सर्वत्र हैं, तब उसकी पूजा के लिए उपकरण की क्या आवश्यकता ? ऐसे समय यह विचार करके देखना आवश्यक है कि ईश्वर की जो सर्वव्यापकता है, वह मात्र सुनी बात है या वस्तुत: अनुभूत ? यदि मात्र सुन लिया जाए कि ईश्वर सर्वत्र है, तो उससे समाज के जीवन में, व्यक्ति के जीवन में क्या अन्तर पड़ा ? पाप-ताप में, अन्याय-अत्याचार में, हमारी सुख-दुःख की अनुभूति में भला क्या अन्तर पड़ा ? इसका तात्पर्य यह है कि ईश्वर की सर्वत्रता पहले जानने योग्य नहीं है। पहले तो हम एक जगह ईश्वर को जानें, एक स्थान पर ईश्वर की अनुभूति करें, और जब हम इस भावना का क्रमिक विस्तार करेंगे, तभी हमारा ज्ञान वास्तविक होगा। यदि हम प्रारम्भ से ही सर्वत्रता का समर्थन करने लग जाएँ, तब वह भाषण का विषय तो हो सकता है, पर सामने वाला व्यक्ति उसे ठीक से हृदयंगम नहीं कर पाता।

   इस दृष्टि से देखें तो भक्ति और ज्ञान में वस्तुत: कोई संघर्ष नहीं रह जाता। पर खेद की बात यह है कि दोनों के बीच विवाद की बात जाने कब से चली आ रही है। गोस्वामीजी इस तथ्य को अपने ग्रन्थ में बड़ी भावनात्मक और विचार की पद्धति से प्रकट करते हैं तथा भक्ति एवं ज्ञान को समन्वित करने की सार्थक चेष्टा करते हैं। वे भक्ति और ज्ञान के लिए सुन्दर प्रतीक चुनते हैं। उनकी दृष्टि में भगवान्‌ राम कौन हैं ?            "ग्यान अखंड एक सीताबर।।"

और सीताजी कौन हैं ? --

"सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।

भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर।।" 

  अर्थात्‌ श्रीराम अखण्ड ज्ञान और सीताजी मूर्तिमती भक्ति। अब यदि भगवान्‌ राम और सीता में भेद माना जाए तभी ज्ञान और भक्ति में भेद की बात उठ सकती है। पर क्या उन दोनों में भेद है ? गोस्वामीजी इसके उत्तर में संकेत देते हैं --

"गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।"

   जो भेद शब्द और उसके अर्थ में है, जल और उसकी तरंग में है बस वही भेद भगवान्‌ राम और श्रीसीताजी में है। पर यह तो कोई भेद है नहीं, इसलिए दोनों जैसे अभिन्न हैं, वैसे ही ज्ञान और भक्ति अभिन्न हैं।

  तब प्रश्न उठता है कि जब भगवान्‌ राम और सीताजी अभिन्न हैं, तो फिर उनके भिन्न होने की क्या आवश्यकता ? यदि दोनों एक ही हैं, तो उस एक के दो होने का क्या प्रयोजन ? बस यहीं पर भक्ति की आवश्यकता होती है। इसका उत्तर यों दिया जा सकता है कि यदि सीताजी का भगवान्‌ राम से वियोग न हो, तो रावण को मारने का संकल्प भगवान्‌ में जाग्रत न होगा। रावण को मृत्यु के लिए ब्रह्म और शक्ति के संयोग में वियोग की सृष्टि की गई, तब ब्रह्म ने सक्रिय हो रावण का विनाश किया। अद्वैत तत्त्व में कर्मी-अकर्मी प्रश्न नहीं होता -- वह तो एकरस है, ज्यों का त्यों है। पर यदि जीवन में परिवर्तन लाना है, तब तो अद्वैत को द्वैत रूप में स्वीकार किए बिना न तो व्यवहार चलेगा और न जगत्‌ के मिथ्यात्व का ही बोध होगा। इसीलिए द्वैत और अद्वैत के इस विचित्र रहस्य को गोस्वामीजी श्रीसीताजी और भगवान्‌ राम के सांकेतिक तत्त्व के माध्यम से प्रकट करते हैं। वे यों संकेत देते हैं। सीताजी कहाँ जन्म लेती हैं ? -- महाराज जनक के घर में। और भगवान्‌ राम कहाँ जन्म लेते हैं -- महाराज दशरथ के घर में। महाराज जनक यदि महान्‌ ज्ञानी हैं, तो महाराज दशरथ के चरित्र में श्रद्धा और भक्ति की प्रधानता है। गोस्वामीजी का संकेत यह है कि ज्ञानी के घर भक्ति ने जन्म लिया और भक्त के घर ज्ञान ने। इससे उनका तात्पर्य यह है कि "जब तक ज्ञानी के अन्त:करण में भक्ति का जन्म नहीं होता और भक्त के अन्तःकरण में ज्ञान का प्रवेश नहीं होता, अर्थात्‌ जब तक बुद्धि का सत्य हृदय में नहीं उतरता, और हृदय की अनुभूति को बुद्धि स्वीकार नहीं करती, तब तक जीवन में पूर्णता नहीं आ पाती।"

 अब कोई प्रश्न कर सकता है कि ज्ञान बड़ा या भक्ति ? प्रश्नकर्ता थोड़ा भगवान्‌ राम और सीताजी के चित्रों की ओर देख ले न, उसे पता चल जाएगा कि कौन बड़ा है ! वैसे देखें तो भगवान्‌ राम ही लम्बे और बड़े दिखाई देंगे और सीताजी छोटी। तब तो भक्ति छोटी हो ही गई ! उसके बड़े होने का फिर क्या विवाद रहा ? ज्ञान की महिमा तो वैसे भी स्पष्ट है। यदि श्रीराम महाराज जनक के यहाँ न आते, तो अज्ञान का धनुष कौन तोड़ता बिना ज्ञान-सूर्य के उदय हुए धनुष रूप अज्ञानान्धकार दूर नहीं होता। लक्ष्मणजी ने तो भगवान्‌ राम से कह ही दिया था --

     "नृप सब नखत करहिं उजिआरी।

            टारि न सकहिं चाप तम भारी।।"  

 'सब राजा रूपी तारे उजाला तो करते हैं, पर वे धनुषरूपी महान्‌ अन्धकार को हटा नहीं सकते।' और जब भगवान्‌ राम धनुष को तोड़ते हैं, तो चारों ओर इतने जोरों से जयध्वनि होती है कि धनुर्भग की ध्वनि उसमें मिल जाती है -

     "रही भुवन भरि जय जय बानी।

         धनुष भंग धुनि जात न जानी।।"

   गोस्वामीजी इसके पश्चात्‌ लिखते हैं कि भगवान्‌ राम को भले ही जयध्वनि प्राप्त हो गई हो, पर जयमाल तो सीताजी के हाथ में है। संकेत है कि यह जो ज्ञान ने अन्धकार पर विजय प्राप्त की है, उसका प्रमाण-पत्र तो भक्ति के पास है। जब भक्ति देवी जयमाल पहनाएँगी, तभी यह प्रमाणित होगा कि धनुष टूटा। आप भले ही एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर लें, पर यदि आपके पास प्रमाण पत्र न हो, तो काम कैसे चलेगा ? तो, सीताजी जब जयमाल लेकर श्रीराम के समीप आती हैं , सखियाँ कहती हैं -- 'पहिरावहु जयमाल सुहाई' इस पर -

     "सुनत जुगल कर माल उठाई।

       प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।।"

  सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई। श्रीराम ने उसे पहनने के लिए सिर झुका लिया, पर सीताजी से माला पहनाई नहीं जा रही है, बड़ा विलम्ब लग रहा है। यह देख गोस्वामीजी को बड़ा आनन्द आ रहा है। वे कहते हैं कि भई, अब तक तो लग रहा था कि ज्ञान बड़ा है, पर अब लगता है कि भक्ति बड़ी है। देखो, सीताजी के हाथ ऊपर हैं और श्रीराम का सिर झुका हुआ है। इससे यही तो सिद्ध होता है न कि भक्ति ज्ञान से बड़ी है ! गोस्वामीजी का संकेत यह है कि "ज्ञान की शोभा इसमें नहीं कि अन्धकार को नष्ट करने के बाद अकड़कर खड़ा हो जाए, बल्कि इसमें है कि भक्ति के सामने झुक जाए।" विजय के बाद एक व्यक्ति अकड़ गया और दूसरा व्यक्ति विनम्र हो गया। अब इन दोनों में बड़ा कौन है ? स्वाभाविक ही वह, जो विजय पाकर भी विनीत हो जाता है। और इस नम्रता का पाठ तो भक्ति के द्वारा ही प्राप्त होता है। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए ही गोस्वामीजी कहते हैं कि सखियों के संकेत करने पर भी श्री सीताजी जयमाला नहीं पहनातीं। इसकी प्रतिक्रिया ब्रह्म के अन्तःकरण पर किस प्रकार होती है ? श्रीराम को कोई अपमान का भान नहीं होता। यही मानो ज्ञान की पूर्णता है। प्रभु खड़े हैं, विलम्ब को निर्लिप्त होकर सह रहे हैं। जब वे संकेत से पूछते हैं कि विलम्ब क्यों हो रहा है, तो भक्तिदेवी भी मानो संकेत से कहती हैं कि आपने जब धनुष तोड़ने में इतना विलम्ब किया, तब इस विलम्ब पर आपत्ति क्यों ? इस पर प्रभु मानो मुस्कराकर इंगित करते हैं कि ज्ञान में विलम्ब लगता ही है, पर भक्ति में भी यदि विलम्ब लग जाए, तब तो भक्ति की मर्यादा ही चली जाएगी। भक्ति के लिए तो यही कहा गया है -- 'कहहु भगति पथ कवन प्रयासा'। और ज्ञान के लिए कहा है -- 

   "कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।।"

  इसलिए प्रभु मानो संकेत करते हैं कि अब और विलम्ब न कीजिए माला शीघ्र पहना दीजिए। 

   भगवान्‌ राम श्री सीताजी और श्री लक्ष्मण के साथ वन पथ पर चले जा रहे हैं। सब तृषित हो गए हैं, इसलिए लक्ष्मणजी जल लेने चले जाते हैं और प्रभु वृक्ष के नीचे बेठकर पैर में गड़ा हुआ काँटा निकालने लगते हैं। सीताजी यह देखकर आश्चर्य से पूछती हैं -- आपके चरणों में काँटा कैसे गड़ गया ? बात यह थी कि सीताजी के चरणों में काटा नहीं गड़ा था। प्रभु मुस्कराकर कहते हैं -- देखो सीते, इससे यही सिद्ध होता है कि "ज्ञान का पथ कण्टकाकीर्ण है और भक्ति का निष्कण्टक।" नहीं तो एक ही मार्ग पर हम लोग चल रहे हैं, मेरे पैरों में काँटा चुभे और तुम छूट जाओ इसका यही तो तात्पर्य हुआ ! फिर प्रश्न उठा कि लक्ष्मण के पैरों में भी तो काँटे नहीं चुभे, सो कैसे ? प्रभु हँसकर बोले -- वह भक्ति देवी के पीछे, अनुयायी बनकर चल रहा था न, इसीलिए वह भी काँटों से बच गया ! यदि मेरे पीछे-पीछे चलता, तो उसे भी मेरे ही समान काँटों की चुभन सहनी पड़ती ! प्रभु कितने महान्‌ हैं ! स्वयं काँटों की चुभन सहकर, दूसरों की पीड़ा अपने ऊपर लेकर यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि भक्ति के पथ पर चलने से व्यक्ति को काँटों की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती। मानो यह बता दे रहे हैं कि जैसे निष्कण्टक चलने का आनन्द है, वैसे ही दूसरों की पीड़ा अपने ऊपर लेने का भी आनन्द है और दोनों के सामञ्जस्य में तो एक विशेष प्रकार की रसानुभूति है। इसीलिए गोस्वामीजी कहते हैं -- "प्रभु मानो सीताजी की ओर संकेत करते हैं कि तुम जब जयमाल पहनाओगी, तभी लोगों को इस सत्य का ज्ञान होगा कि मेरे हृदय में वही स्थान पाता है, जो पहले तुम्हारे कर-कमलों में स्थान पा ले ! इस सत्य का दर्शन कराने के लिए कि तुम्हारी कृपा के माध्यम से ही मेरे हृदय तक पहुँचा जा सकता है, तुम्हें अब शीघ्र मुझको जयमाला पहना देनी चाहिए। इस प्रकार भक्ति और ज्ञान का दिव्य मिलन होता है।" फिर मिलन के पश्चात्‌ वियोग की लीला होती हैं और उसके द्वारा बुराइयों का विनाश होता है। इसका अभिप्राय यह है कि "अभाव की अनुभूति के बिना साधना नहीं हो पाती, बुराई के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रवृत्ति जन्म नहीं ले पाती।" ज्ञान की स्थिति में तो कोई काम नहीं हो पाता। ऐसे ज्ञानी के लिए गीता में कहा गया है -- 'तस्य कार्य न विद्यते' । अत: ज्ञानी को भी व्यवहार करने के लिए एक प्रकार के अभाव का आश्रय लेना पड़ता है और अभाव की भावना द्वैत में ही बन सकती है। इसीलिए अद्वैत लीला करने के लिए द्वैत में विभाजित-सा प्रतीत होता है।

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