महाभारत और रामायण का मतलब

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  'महाभारत' माने - “जैसा होता है' और  'रामायण' का अर्थ है - "जैसा होना चाहिए।"

     एक बार एक प्रसिद्ध उद्योगपति ने मुझसे पूछ दिया कि हनुमानजी की अपेक्षा श्रीभरत कम तो नहीं है! मुझे तो लगता है कि श्री भरत सर्वश्रेष्ठ हैं। पर श्रीभरत के मंदिर नहीं बने और हनुमानजी के मंदिर सर्वत्र दिखाई देते हैं! मैंने उनसे कहा कि श्रीभरत जी के यहाँ जो मिलता है उसके ग्राहक इतने कम हैं कि उनकी पूजा के लिए मंदिर नहीं बन पाता, पर हनुमानजी के यहाँ जो-जो मिलते हैं उसके इतने अधिक ग्राहक हैं कि वहाँ तो भीड़ लगना स्वाभाविक है। आप हनुमान-चालीसा में पढ़ते ही हैं कि हनुमानजी के द्वारा रोग, दोष सब मिट जाते हैं --

       नासै रोग हरे सब पीरा।

      इतना ही नहीं भूत-प्रेत भी भाग जाते हैं -- 

     भूत पिशाच निकट नहीं आवै।

   इस प्रकार लौकिक-अलौकिक और पारलौकिक सभी वस्तुएँ वे प्रदान करते हैं, इसलिए उनके पास भीड़ तो जुटेगी ही। और भरतजी के यहाँ एक ही वस्तु मिलेगी कि -- 

भरत चरित को नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।

सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति।। (२/३२६) 

   'इससे संसार के रस से वैराग्य होगा'। अब भला यह कौन चाहेगा ? हम सब डरते हैं कि कहीं सचमुच वैराग्य न हो जाय! तो भरतजी भव-वैराग्य देते हैं और हनुमानजी सब कुछ प्रदान करते हैं। पर क्या हनुमानजी इसलिए देते हैं कि उन सब को पाकर हम मनमानी करें ? 

    शंकरजी भी यही कहते हैं कि' गायन करने वाले की मनकामना पूरी होगी' और फिर यह भी कह देते है कि -- 

   संसृति रोग सजीवन मूरी। 'भवरोग को मिटानेवाली अमोध औषधि है।' 

   यह बात आपके सामने बात कही गई थी कि मिठाई खाना ठीक है, पर इतनी अधिक न खा ली जाय कि दवाई भी खानी पड़ जाए! 'मन की कामनाएँ पूरी होती हैं' 'यह तो निमंत्रण है, प्रलोभन है कि रोगी जीव इस ओर आए! पर इसका अंतिम उद्देश्य क्या है ? आप इस पर विचार करें! 'मानस' में इसका एक संकेत हमें सुग्रीवजी के प्रसंग में प्राप्त होता है। 

   सुग्रीवजी बड़े सौभाग्यशाली हैं । हनुमानजी प्रभु को श्री लक्ष्मणजी के सहित उनके पास तक ले आते हैं और प्रभु से उनकी मित्रता कराते हैं। उस समय हनुमानजी जीव (सुग्रीव) की कथा प्रभु को सुनाते हैं और प्रभु की कथा जीव को सुनाते हैं --

तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।

पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ। ४/४

    इसके बाद प्रभु ने बालि का वध कर दिया और सुग्रीव को राज्य प्राप्त हो गया। अब एक दूसरा पक्ष सामने आता है। हनुमानजी ने प्रभु की कथा सुनाते हुए सुग्रीव से कहा था कि प्रभु तो परम्‌ उदार हैं, परम शीलवान हैं और वे अपने दास का दोष देखते ही नहीं हैं। अब, राज्य पाने के बाद, सुग्रीवजी के जीवन में इस कथा के दुरुपयोग का पक्ष दिखाई देता है। राज्य देते समय प्रभु ने सुग्रीव से कहा था - 'सुग्रीव! तुम अंगद के साथ राज्य करो, 

     अंगद सहित करहु तुम्ह राजू।

पर -- 

      संतत हदयँ धरेहु मम काजू ।। ४/११/८६ 

     मेरे इस कार्य का स्मरण रखना कि “'सीताजी का पता लगाना है।'

    प्रभु बड़े उदार हैं। वे भक्तों की कामना पूरी करते हैं इसलिए कह देते हैं कि संसार के सब काम-काज चलाओ, पर साथ ही यह भी कह देते हैं कि 'भक्ति रूपी सीताजी को मत भूल जाना, इनका पता लगाना ही जीवन की अनिवार्यता है।' पर विडंबना यह है कि सुग्रीवजी भोगों में ऐसा डूबे कि यह बात भूल गए! वे अपने-आप को भुलावा देने लगे - हाँ, कहा तो है पता लगाने के लिए! पर पता लगाने की कोई अवधि तो दी नहीं है, और फिर प्रभु तो बड़े दयालु-कृपालु हैं, वे दास का दोष तो देखते ही नहीं, अत: चिन्ता की कोई बात नहीं। यह तो कथा का दुरुपयोग है। भगवान्‌ की उदारता का क्या यह अर्थ है कि व्यक्ति मनमाना आचरण करने लगे ? कदापि नहीं! इसीलिए फिर एक नई बात हो गई। 

   वर्णन आता है कि वर्षा ऋतु चली गई और शरद ऋतु का आगमन हो गया, पर इस प्रकार बहुत दिन बीत जाने पर भी सुग्रीवजी नहीं आए। अब एक विलक्षण बात सामने आई - प्रभु ने 'दास-दोष' देखना शुरु कर दिया! गोस्वामीजी भगवान्‌ राम के विस्मरणशील स्वभाव का वर्णन करते हुए 'विनय-पत्रिका' में कहते हैं कि प्रभु को चार बातें याद नहीं रहती -- 

 निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास-दोष

 सुरति चित रहत न दिए दानकी।।

 बानि बिसारनसील है मानद अमान की। (वि० प०४२)

     प्रभु को अपने द्वारा किया गया उपकार, शत्रु के द्वारा किया गया अनिष्ट, दास का अपराध और अपने द्वारा दिया गया दान, ये चारों बातें याद नहीं रहती। किन्तु आज तो लगता है सारे नियम बदल गए। प्रभु को अपने द्वारा किया गया 'भला' याद आ गया, वे दास सुग्रीव का दोष भी दिखाई देने लगा और प्रभु उसे दण्ड देने के लिए व्यग्र हो गए। प्रभु ने कहा - “लक्ष्मण!

    सुग्रीवहूँ सुधि मोरि बिसारी।

    पावा राज कोस पुर नारी।। ४/१७/४

अतः मैंने एक निर्णय किया है कि -- 

     जेहिं सायक मारा मैं बाली।

     तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली।। ४/१७/५

    जिस बाण से बालि का वध किया था, मूर्ख सुग्रीव का वध भी मैं उसी बाण से करूँगा। 

   भगवान्‌ राम के इस वाक्य को सुनकर हमारी पुरानी पीढ़ी कै वक्‍ताओं को बड़ी चिन्ता हो जाती थी कि भगवान्‌ राम तो परम्‌ सत्यवादी हैं और सुग्रीव को मारने की बात कहकर उसे नहीं मारने से तो वे असत्यवादी सिद्ध हो जाएँगे!' और तब भगवान्‌ राम की इस 'वाणी' को सत्य सिद्ध करने के लिए वे बेचारे वक्ता, इस चौपाई का अर्थ बदलने का भगीरथ प्रयास करते थे। मैं बचपन में एक कथा में गया तो वहाँ वक्‍ता महोदय ने एक विचित्र अर्थ प्रस्तुत करते हुए कहा कि भगवान राम ने यह थोड़े ही कहा था कि मैं सुग्रीव को मारूंगा, ' उन्होंने तो कहा था कि --

        जेहिं सायक मारा मैं बाली। 

'जिस बाण से मैंने बाली को मारा था, यदि -- 

           तेहिं सर हतौं,

उसी बाण से मैं सुग्रीव को मारूँगा, तब -- 

           मूढ़ कहँ काली।

    लोग मुझे मूर्ख कहेंगे।' अद्भुत वक्ता और वैसे ही श्रोता ! भगवान्‌ राम के मुँह से जो वाक्य निकले वह शब्दश: सत्य होना चाहिए' जिन्हें यह चिन्ता हो जाय, उन्होंने रामायण को ध्यान से नहीं पढ़ा ! क्योंकि  भगवान राम के सत्य की विशिष्टता यह है कि वह शाब्दिक सत्य न होकर उसके पीछे जो 'निहित उद्देश्य' है उससे जुड़ा हुआ है, शब्द से नहीं! 'जो शब्द मुँह से निकल गया, चाहे वह सही हो या गलत हो, उसे पूरा होना चाहिए' यह शब्द-सत्य महाभारत काल में प्रमुख था। पर रामायण-काल में सत्य का स्वरूप शब्द नहीं, उसमें निहित उद्देश्य की पूर्ति का सत्य है।

     किसी ने मुझसे पूछा - “रामायण काल और महाभारत काल का अंतर यदि एक वाक्य में कहा जाय तो क्या होगा ?” मैंने यही कहा - भाई ! 'महाभारत' माने - “जैसा होता है' और 'रामायण' का अर्थ है - "जैसा होना चाहिए।" महाभारत काल का धर्म भी शब्दपरक ही है। यदि भगवान्‌ कृष्ण न होते तो न जाने कितने अनर्थ हो जाते, क्योंकि वे न तो 'शब्द-सत्य' को मानते हैं और न ऐसे शाब्दिक व्याख्या वाले धर्म को ही मानते हैं।

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