जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। भगवान् सब जगह हैं । जहाँ हम हैं, वहीं भगवान् भी हैं । भक्त जहाँ से भगवान्‌ को बुलाता है, वहीं से भगवान् आते हैं । भक्त की भावना के अनुसार ही भगवान् प्रकट होते है।

  भगवान्‌ की प्राप्ति साधन के द्वारा होती है‒यह बात भी यद्यपि सच्ची है, परन्तु इस बात को मानकर चलने से साधक को भगवत्प्राप्ति देर से होती है । यदि साधक का ऐसा भाव हो जाय कि मुझे तो भगवान् अभी मिलेंगे, तो उसे भगवान् अभी ही मिल जायँगे । वे यह नहीं देखेंगे कि भक्त कैसा है, कैसा नहीं है ? 

  काँटों वाले वृक्ष हों, घास हो, खेती हो, पहाड़ हो, रेगिस्तान हो या समुद्र हो, वर्षा सब पर समानरूप से बरसती है । वर्षा यह नहीं देखती कि कहाँ पानी की आवश्यकता है और कहाँ नहीं ? इसी प्रकार जब भगवान् कृपा करते हैं तो यह नहीं देखते कि यह पापी है या पुण्यात्मा ? अच्छा है या बुरा ? वे सब जगह बरस जाते अर्थात् प्रकट हो जाते हैं।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।

मैं बपुरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ ॥

ये नहीं कहा गया है कि जिन्होंने खोजा, उनमें से कुछ ही लोगों ने पाया। 

  कहा गया है, जिन खोजा तिन पाइया!" बात सीधी है  - खोजो और पाओ।

  असफलता का कोई प्रश्न ही नहीं है, ठुकराए जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है, दरवाज़े के बंद रह जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है। सारी बात तुम्हारी मर्ज़ी की है। अगर आपको वास्तव में ‘उसकी’ आकांक्षा होगी, तो मिल जाएगा। जब आप उसका महत्व समझोगे, उसे प्रथम वरीयता दोगे और उसे दिलों-जान से माँगोगे।

  जब उसे सर्वोच्च पायदान पर रखा जाता है, जब कहा जाता है कि ये नहीं तो कुछ नहीं, एक तू न मिला, सारी दुनिया मिली भी तो क्या है? जब मन स्पष्ट: इस भाव को अनुभव करने लगता है, तब मानो कि दरवाज़ा खुल गया।

  हम महाभारत काल की याद करें तो पाएंगे कि - कृष्ण के पास होते हुए भी युधिष्ठिर , दुर्योधन और द्रौपदी तीनों ही उनका लाभ लेने से चूक गए । दुर्योधन को तो कृष्ण ने दो बार कुछ लेने का अवसर दिया , परंतु धन शक्ति और अभिमान के चलते वे लाभ लेने से चूक गए । युधिष्ठिर सबसे बड़े होते हुए भी कृष्ण का लाभ न ले पाए । उल्टे कृष्ण से कह दिया कि वे द्यूत क्रीड़ा में भाग न लें और कक्ष से बाहर ही रहें । 

  जब दुशासन रजस्वला द्रौपदी को केश पकड़कर द्यूत क्रीड़ा भवन में घसीटकर ले जा रहा था , जब भरी सभा में उन्हें निर्वस्त्र कराने का आदेश दे रहा था तब भी उन्होंने कृष्ण को याद नहीं किया । याद तब किया जब उनकी साड़ी खींची जाने लगी । बस कृष्ण आ गए , लाज बच गई ।

  कृष्ण आते हैं , उन्हें याद करना पड़ता है । युधिष्ठिर जब एक के बाद एक सब कुछ हारे जा रहे थे , तब भी उन्होंने कृष्ण को याद नहीं किया । करते तो कृष्ण पासे पलट देते । दुर्योधन चतुर था । वह पासे फेंकने में कमजोर था । उसने पहले ही घोषणा कर दी कि उसकी ओर से चतुर मामा शकुनि पासे फेंकेंगे । युधिष्ठिर को तब भी कृष्ण की याद नहीं आई । अन्यथा वे भी कृष्ण से पासे खिलवाते तो द्यूत क्रीड़ा का इतिहास दूसरा होता । युधिष्ठिर चूक गए और कृष्ण के साथ होते हुए भी सब हार गए । 

  कृष्ण की याद जिसे समय पर आई , वह अर्जुन था । युद्ध के बीच चारों तरफ अपनों को देखकर जब वह हताश हुआ , तब कृष्ण उसके साथ ही थे । उसने गांडीव रख दिया और खुद का समर्पण कृष्ण के सम्मुख कर दिया । फिर क्या था । माधव ने लंबी पराजय का इतिहास ही बदल दिया । सच है , मुरली बजैया को समय पर याद करना पड़ता है । उन्हें याद करने वालों में विदुर भी थे और भीष्म भी । धृतराष्ट्र पुत्र मोह में चूक गए और तमाम कौरव भी । परिणाम देखिए , कुंती के पांचों जीवित रहे , गांधारी का कुल नष्ट हो गया । कृष्ण विमुख होकर न कृपाचार्य रहे और न द्रोण ।

  कृष्ण साथ न हो तो भी कोई बात नहीं । उन्हें आदत है , वे पुकार पर चले आते हैं । महाभारत काल में कृष्ण साक्षात थे , परंतु उस समय के लोग चूक गए । सुदामा साथी थे , वे भी चूक गए । पर सुदामा की पत्नी न चूकी , किस्मत बदल गई । रामावतार में रावण जानते थे कि राम के आने का उद्देश्य क्या है । कृष्णावतार में कंस अभागे थे , सगा भांजा कौन है , जान ही न पाए । 

श्रीमद्भागवत पुराण में आता है कि जब भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के बीच से अन्तर्धान हो गये तो गोपियाँ पुकारने लगीं -

दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥

  हे प्रिय , तुम में अपने प्राण समर्पित कर चुकने वाली हम सब तुम्हारी प्रिय गोपियाँ तुम्हें सब ओर ढूँढ रही हैं, अतएव अब तुम तुरन्त दिख जाओ ।’

गोपियों की पुकार सुनकर भगवान् उनके बीच में ही प्रकट हो गये

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥

  ठीक उसी समय उनके बीचो बीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । उनका मुख कमल मन्द-मन्द मुसकान से खिला हुआ था, गले में वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे । उनका यह रूप क्या था, सबके मन को मथ डालने वाले कामदेव के मन को भी मथने वाला था ।

  इस प्रकार गोपियों ने ‘प्यारे ' दिख जाओ’ ऐसा कहा तो भगवान् वहीं दिख गये । यदि वे कहतीं कि कहीं से आ जाओ, तो भगवान् वहीं से आते ।

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं।

कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

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