मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥ गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है,...
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है॥ इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना।
एक वाक्य में कहें तो माया जड़ है। जैसे एक कुल्हाड़ी। कुल्हाड़ी अपने आप कुछ नहीं कर सकती। वैसे ही माया अपने आप कुछ नहीं कर सकती। जब लकड़हारा उस कुल्हाड़ी को उठा कर तने पर प्रहार करता है। तब वह कुल्हाड़ी लकड़ी काटती है। वैसे ही माया भगवान की शक्ति पाकर काम करती हैं।
जिसकी प्रतीति मेरे (भगवान के) बिना हो।" थोड़ी टेढ़ी परिभाषा है, हम समझाने का प्रयत्न करेंगे। 'जिसकी प्रतीति मेरे बिना हो।' इस का अर्थ है, माया वहीं होगी जहां भगवान नहीं होंगे। चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.३१ 'श्री कृष्ण सूर्य सम, माया होवै अंधकार, जहाँ सूर्य ताहा नहीं माया अंधकार" इस को एक उदाहरण से समझिए, सूर्य की किरण जल (तालाब) में पड़ती हैं।
तो ये किरण कहाँ है? जल में हैं। तो जल में सूर्य नहीं है। सूर्य ऊपर है और किरण निचे है। यह किरण ऊपर नहीं जा सकती क्योंकि वो नीचे है। लेकिन सूर्य के बिना किरण तालाब पर नहीं पड़ सकती। किरण का अपना अस्तित्व पृथक (अलग) नहीं हैं। सूर्य से ही किरण का अस्तित्व है।
जैसे किरण का अपना अलग अस्तित्व नहीं है, वैसे ही माया का अपना अलग अस्तित्व नहीं है। जैसे किरण जल में रहती है, सूर्य के बिना, वैसे ही माया भी रहती है भगवान के बिना।
श्वेताश्वतरोपनिषद १.८ में कहा गया है कि "संसार जीव, माया और तीसरा ब्रह्म से युक्त है।" यह संसार में हम (जीव/आत्मा) है, माया है और जीव माया व्याप्त भगवान भी हैं।
वेद शास्त्र कहते हैं कि यह संसार माया से बना है। और वेद शास्त्र यह भी कहते है कि संसार भगवान से बना है। तो इन दोनों में कौन सी बात सही है? दोनों बातें सही है। यह संसार भगवान और माया दोनों के मिलन से बना है। यह माया के अंदर भगवान व्याप्त हुए है। तुलसीदस कहते है "घट-घट व्यापक राम" अर्थात राम एक एक कण में व्यापक/व्याप्त है।
अर्थात राम माया के एक एक कण में व्यापक है। अर्थात भगवान माया के साथ रहते हैं, माया के एक-एक कण में रहते हैं। भगवान माया में व्याप्त है। ऊपर दिए गए उदाहरण में किरण को माया बतया। ये किरण में सूर्य की शक्ति है।
अर्थात यह किरण में सूर्य का अंश व्याप्त है। ऋग्वेद १.१६४.२० और कठोपनिषद् ३.१.१ में कहा कि यह आत्मा और भगवान के साथ एक जगह पर रहते है। अर्थात भगवान सभी जीव (आत्मा) के अंदर रहते है।
माया के प्रकार? माया दो प्रकार की होती हैं!
१. जीव-माया या अपरा या अविद्या माया।
२. गुण माया या योग माया या विद्या माया
यह जीव माया भी दो प्रकार की होती हैं।
१. अवर्णात्मिका:- माया ने जीव (आत्मा) का अपना स्वरूप भुलाया। हम आत्मा है यह भुला दिया।
२. विक्षेपात्मिक:- माया ने संसार में आसक्ति करा दी। अर्थात माया ने संसार में हमारे मन को लगा दिया।
यह जीव-माया को अपरा या अविद्या माया भी कहते हैं। गीता ७.४ "पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - ऎसे यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो मेरी (भगवान की) जड़ स्वरूप अपरा माया है" हमारा मन-बुद्धि माया का बना है, इसलिए हमारे विचार भी माया के अंतर्गत होते है।
गुण माया को प्रकृति माया भी कहते है। गीता ७.१४ "मेरी (भगवान की) यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण है, तो ये माया चली जाएगीं।" गुण माया यह भगवान की शक्ति हैं, यह भगवान की शक्ति पाकर अपना काम करती हैं। तो क्योंकि हम जीव (आत्मा) की शक्ति वाले है, हमारी शक्ति भगवान की शक्ति से काम है इसलिए माया को हम नहीं हटा सकतें। इसलिए हमे केवल मे भगवान के शरण में जाना होगा।
यह माया का प्रभाव हमारे मन पर होता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं भय यह योग माया के कारण हम लोगों पर हावी हैं। काम का अर्थ है- पुत्रैषणा अर्थात स्त्री अथवा पुरुष संभोग की चाह, वित्तैषणा अर्थात धन कमाने की चाह, लोकैषणा यानी यश कमाने की चाह और क्रोध, लोभ, मोह आदि।
वैसे तो जीव-माया भी भगवान की ही शक्ति है। लेकिन गुण माया जिसे योग-माया कहते है, ये भगवान की अंतरंग शक्ति है। भगवान के सारे काम योग माया से होते है। आप जितने भी लीला पढ़ते है। ये सारे लीला योग माया के द्वारा होते है। जब भी कभी असम्भव काम लीला में भगवान करे तो समझना योग-माया से यह काम हुआ है।
जैसे श्री कृष्ण के जन्म के समय सब कारागार सो गए। ताले खुल गए अपने आप। यमुना ने मार्ग दे दिया। ये सब असंभव कार्य है। इसलिए ये कार्य योग-माया से हुआ है।
बहुत संक्षेप में माया के बारे में कहें तो हर वो चीज जो हम सुनते है, स्पर्श करते है, सोचते है, बोलते है, देखते है, सब माया है। यह संसार माया का है और इस संसार में स्वर्ग, नर्क और पृथ्वीलोक हैं।अर्थात स्वर्गलोक, नर्कलोक और पृथ्वीलोक माया के बने है। माया के कुल ११ लोक है।
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