जानिए ! कौन हैं राधे रानी जी और कैसे और क्यों हुआ राधे रानी जी का पृथ्वीलोक पर आगमन ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  पूर्वकाल में घटित यह प्रसंग गोलोकधाम जी का है। श्रीकृष्ण जी की तीन पत्नियाँ हुईं–श्रीराधा जी, विरजा जी और भूदेवी जी। इन तीनों में श्रीकृष्ण जी को श्रीराधारानी जी ही सबसे प्रिय हैं।

    एक दिन भगवान श्रीकृष्णजी एकान्त कुंज में विरजादेवी जी के साथ विहार कर रहे थे। श्रीराधारानी जी सखियों सहित वहाँ जाने लगीं। उस निकुंज के द्वार पर भगवान श्रीकृष्णजी द्वारा नियुक्त पार्षद श्रीदामा जी पहरा दे रहे थे। श्रीदामा गोप जी ने उन्हें रोका। इस पर श्रीराधारानी जी क्रोधित हो गईं। सखियों का कोलाहल सुनकर श्रीकृष्णजी वहाँ से अन्तर्धान हो गए। दु:खी होकर विरजाजी नदी बन गयीं और गोलोक में चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए है, उसी प्रकार विरजानदी गोलोक को अपने घेरे में लेकर बहने लगीं। उनके व श्रीकृष्णजी के जो सात पुत्र थे, वे लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध और जलरूप सात समुद्र होकर पृथ्वी पर आ गए।

   इस पर श्रीराधारानी जी ने श्रीदामा जी को श्राप दे दिया कि ‘तुम असुरयोनि को प्राप्त हो जाओ और गोलोक से बाहर चले जाओ।’ तब श्रीदामा जी ने भी श्रीराधारानी जी को यह श्राप दिया कि ‘श्रीकृष्णजी सदा तुम्हारे अनुकूल रहते हैं, इसीलिए तुम्हें इतना मान हो गया है। आप भी मानवी-योनि में जायँ। वहाँ गोकुल में श्रीहरि जी के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छायारूप उनके साथ रहेगा। अत: पृथ्वी पर मूढ़ लोग आपको रायाण की पत्नी समझेंगे, अत: परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णजी से भूतल पर कुछ समय आपका वियोग हो जाएगा।’

   इस प्रकार परस्पर श्राप देकर अपनी ही करनी से भयभीत होकर श्रीदामा जी और श्रीराधारानी जी दोनों ही दु:खी हुए और चिन्ता में डूब गए। तब स्वयं श्रीकृष्णजी वहाँ प्रकट हुए। श्रीकृष्णजी ने श्रीदामा जी को सान्त्वना देते हुए कहा–’तुम त्रिभुवनविजेता सर्वश्रेष्ठ शंखचूड़ नामक असुर होओगे और अंत में श्रीशंकरजी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त होकर यहाँ मेरे पास लौट आओगे।’

   भगवान श्रीकृष्णजी ने श्रीराधारानी जी से कहा–’वाराहकल्प में मैं पृथ्वी पर जाऊँगा और व्रज में जाकर वहाँ के पवित्र वनों में तुम्हारे साथ विहार करूँगा। मेरे रहते तुमको क्या चिन्ता है ? श्रीदामा जी के श्राप की सत्यता के लिए कुछ समय तक बाह्यरूप से मेरे साथ तुम्हारा वियोग रहेगा।’

     श्री ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्णजी ने गोपों और गोपियों को बुलाकर कहा–’गोपों और गोपियो ! तुम सब-के-सब नन्दरायजी का जो उत्कृष्ट व्रज है, वहाँ गोपों के घर-घर में जन्म लो। राधिके ! तुम भी वृषभानु जी के घर अवतार लो। वृषभानु जी की पत्नी का नाम कलावती जी है। वे सुबल जी की पुत्री हैं और लक्ष्मी जी के अंश से प्रकट हुई हैं। वास्तव में वे पितरों की मानसी कन्या हैं। पूर्वकाल में दुर्वासा के श्राप से उनका व्रजमण्डल में गोप के घर में जन्म हुआ है। तुम उन्हीं कलावती जी की पुत्री होकर जन्म ग्रहण करो। नौ मास तक कलावती देवी जी के पेट में स्थित गर्भ को माया द्वारा वायु से भरकर रोके रहो। दसवां महीना आने पर तुम भूतल पर प्रकट हो जाना। अपने दिव्यरूप का परित्याग करके शिशुरूप धारण कर लेना। तुम गोकुल में अयोनिजारूप से प्रकट होओगी। मैं भी अयोनिज रूप से अपने-आप को प्रकट करूँगा; क्योंकि हम दोनों का गर्भ में निवास होना सम्भव नहीं है। मैं बालक रूप में वहाँ आकर तुम्हें प्राप्त करूँगा। तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो और मैं भी तुम्हें प्राणों से बढ़कर प्यारा हूँ। हम दोनों का कुछ भी एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। हम सदैव एकरूप हैं। भूतल का भार उतारकर तुम्हारे और गोप-गोपियों के साथ मेरा पुन: गोलोक में आगमन होगा।’

    यह सुनकर श्रीराधारानी जी प्रेम से विह्वल होकर रो पड़ीं और श्रीकृष्णजी से कहने लगीं–’मायापते ! यदि आप भूतल पर मुझे भेजकर माया से आच्छन्न कर देना चाहते हो तो मेरे समक्ष सच्ची प्रतिज्ञा करो कि मेरा मनरूपी मधुप आपके मकरन्दरूप चरणारविन्द में ही नित्य-निरन्तर भ्रमण करता रहे। जहाँ-जहाँ जिस योनि में भी मेरा यह जन्म हो, वहाँ-वहाँ आप मुझे अपना स्मरण एवं दास्यभाव प्रदान करोगे।’

  ‘जैसे शरीर छाया के साथ और प्राण शरीर के साथ रहते हैं, उसी प्रकार हम दोनों का जन्म और जीवन एक-दूसरे के साथ बीते। मैं आपकी मुरली को ही अपना शरीर मानती हूँ और मेरा मन आपके चरणों से कभी विलग नहीं होता है। अत: विरह की बात कान में पड़ते ही आँखों का पलक गिरना बन्द हो गया है और हम दोनों आत्माओं के मन, प्राण निरन्तर दग्ध हो रहे हैं।’

  भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा–’राधे ! सारा ब्रह्माण्ड आधार और आधेय के रूप में विभक्त है। इनमें भी आधार से पृथक् आधेय की सत्ता संभव नहीं है। मेरी आधारस्वरूपा तुम हो; क्योंकि मैं सदा तुम में ही स्थित रहता हूँ। हम दोनों में कहीं भेद नहीं है; जहाँ आत्मा है, वहाँ शरीर है। मेरे बिना तुम निर्जीव हो और तुम्हारे बिना मैं अदृश्य हूँ। तुम्हारे बिना मैं संसार की सृष्टि नहीं कर सकता, ठीक उसी तरह जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता और सुनार सोने के बिना आभूषण नहीं बना सकता। अत: आँसू बहाना छोड़ो और निर्भीक भाव से गोप-गोपियों के समुदाय के साथ बृषभानु के घर पधारो। मैं मथुरापुरी में वसुदेव जी के घर आऊँगा। फिर कंस के भय का बहाना बनाकर गोकुल में तुम्हारे समीप आ जाऊँगा।’

   श्रीगर्ग संहिता के अनुसार श्रीराधारानी जी ने श्रीकृष्णजी से कहा–’प्रभो ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं हैं और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिलता।’

   श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर भगवान श्रीकृष्णजी ने अपने गोलोकधाम जी से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा।

    श्रीराधारानी जी भगवान श्रीकृष्णजी की सात बार परिक्रमा और सात बार प्रणाम करके गोप-गोपियों के समूहों के साथ भूतल पर अवतरित हुईं। श्रीराधारानी जी की प्रिय सखियाँ व श्रीकृष्णजी के प्रिय गोप बहुत बड़ी संख्या में लीला के लिए व्रज में गोपों के घर उत्पन्न हुए।

     यह सब श्रीराधारानी जी और श्रीकृष्णजी की लीला ही है, जो व्रज में परम दिव्य प्रेम की रसधारा बहाने के लिए निमित्त रूप से की गयी थी। इसी कारण से लीलामय श्रीकृष्णजी और श्रीराधारानी जी वाराहकल्प में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए।

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