भगवान सूर्य (भास्कर) कहते हैं - शशि से मेरी कोई स्पर्धा नहीं है। वैसे भी वे रमा के अग्रज होने के कारण मेरे स्नेह भाजन हैं और अब तो मुझसे...
भगवान सूर्य (भास्कर) कहते हैं - शशि से मेरी कोई स्पर्धा नहीं है। वैसे भी वे रमा के अग्रज होने के कारण मेरे स्नेह भाजन हैं और अब तो मुझसे महान भी हो गये है; क्योंकि वे जिनके कुलपुरुष हैं, उनको पति रूप में पाने के लिये मेरी पुत्री कालिन्दी बहुत काल से इन्द्रप्रस्थ के पास यमुना में तप कर रही है।
वृहत्सानुपुर के अधिपति का नाम मुझे उनसे आत्मीयता स्थापित कराता है। मनुष्यों की भाँति मुझे भी नाम-साम्य से स्नेह हो गया है। दूसरे लोग भले वृष= धर्म+भानु व्युत्पत्ति करके वृषभानु का अर्थ धर्म का सूर्य करें, मैं तो वृष राशि का सूर्य ही अर्थ करता हूं; क्योंकि इसके कारण वे मुझे अपने प्रतीक लगते हैं।
परमपुरुष की अभिन्नरुपा आह्लादिनी शक्ति प्रकट होंगी उनकी पुत्री होकर तो उनके भानु-नन्दिनी ही तो कहा जायेगा। पुरुषोत्तम को कालिन्दी पतिरूप में अवश्य प्राप्त करेंगी और मेरी यह पुत्री इन नित्य श्रीहरिप्रिया की अंशोद्भवा ही तो है। अत: मैं अपना पितृत्व यहीं क्यों छोड़ दूँ। नन्दनन्दन को जामाता न बनाना चाहे, उस पुरुष का पुत्री को जन्म देना व्यर्थ है। मुझे श्रुति 'सहस्त्ररश्मि' कहती है। मेरी सहस्त्र-सहस्त्र रश्मियाँ सलोनी बालिकायें बन सकें तो मैं सबको उन आनेवाले व्रजराजकुमार को ही वरण करने की प्रेरणा दूँगा।
वृहत्सानुपुर से मेरा ममत्व अब सभी सुर समझने लगे हैं। वहाँ की महिमा भी अब स्वर्गाधिप ने स्वीकार कर ली है। यह शक्र का मुझ पर अनुग्रह नहीं है, यह उनका ही सौभाग्य है। इससे उन्हें मेरी भानु-नन्दिनी की सेवा का कुछ तो अवसर मिल ही जायगा।
अभी तो वृषभानुजी ने केवल एक कुमार पाया है। गोकुल में भगवान अनन्त के आविर्भाव के केवल दो दिन पीछे आया यह स्वर्णगौर श्रीदाम। मैं बहुत उत्सुक था कि इसके जन्मोत्सव में समस्त वृहत्सानु को-सम्मुख दीखते नन्दीश्वरसानु को भी रत्नमय कर दूँ; किंतु पता नहीं वह आने-वाली मेरी मानी हुई मानिनी बालिका सूर्य की रक्तारुण मणियों के प्रति कैसी रुचि रखेगी। मुझे उसकी प्रतीक्षा करनी है; क्योंकि उसकी रुचि, उसके मानस का स्पर्श तो स्त्रष्टा की भी शक्ति में नहीं है।
कला-काष्ठादि से लेकर दिन, सप्ताह, मास, वर्षादि कल्पतक काल का सर्जक में ही हूँ। अत: कल्प पर्यन्तकाल में मेरे लिए भविष्य कुछ नहीं है। मैं देख रहा हूँ कि कल-यही कुछ मानव वर्ष के पश्चात गोकुल का जनपद कहाँ होगा। वह नन्दीश्वरसानु पर बना: नन्द-भवन तो मैं आज ही प्रत्यक्ष देख रहा हूँ; किंतु अभी तो उस स्थान की सज्जा अनवसर कही जायगी। मुझे आन्तरिक आनन्द भी आवेगा, जब वहाँ इस वृहत्सानुपुर का उपहार जाकर अलंकार बने और उसका श्रेय इसके अधीश्वर को प्राप्त हो।
मेरा पुत्र शनैश्चर सदा से मेरा विरोधी है और क्रूर है; किंतु इस समय उसने मेरा स्नेह प्राप्त कर लिया है। अपनी स्वसा की रुचि उसने ठीक समझी है। वृहत्सानु और गोकुल के आसपास भी इसने अपनी उत्तमोत्तम इन्द्रनील मणियों की राशि प्रकट कर दी है और इसमें सन्देह नहीं है कि कीर्तिदा रानी के अंक को भूषित करने जो कन्या आनेवाली है, उसके प्राणों को ये मणियाँ परितृप्ति देंगी।
अब यह उसका आविर्भाव-अवसर आ रहा है। कार्तिक कृष्ण अष्टमी, मध्याह्नकाल और मुझे मेघों के पीछे हो जाना चाहिये; क्योंकि कन्या का सूर्य बहुत विष-रश्मि होता है। मेरी किरणें किसी के भी शरीर का स्पर्श करें, यह उचित नहीं है। यह उस दिव्या का आविर्भावकाल है। मैं उसके लग्न मीन से सप्तम कन्या में हूँ बुध के साथ। देवगुरु पञ्चम में उच्च के स्वगृही चन्द्र के साथ हैं। राहु सिंह में षष्ठ है। अष्टम में उच्च का शनि स्वगृही शुक्र के साथ तुला में है। मंगल उच्च का एकादश में मकर पर है और केतु कुम्भ में द्वादश में बैठा है।
(सभी पुराने पञ्चांगों में कार्तिक कृष्ण अष्टमी को श्रीराधाष्टमी लिखा होता है। इसे अहोई अष्टमी कहते हैं। अहोई अर्थात न होनेवाली-अजन्मा की जन्मतिथि। भाद्रशुक्ल अष्टमी श्रीराधाअष्टमी कल्पभेद से जन्म दिन है। अहोई अष्टमी का व्रज में अब भी बहुत मान है। श्रीराधाकुण्ड का स्नान इस दिन प्रचलित है।)
आह्लाद की अधीश्वरी का यह जन्मकाल, मैंने आज ही देखा है कि विकच कुमुदिनियाँ कैसी होती हैं। वे आज मेरा संकोच त्यागकर सरोजों के साथ सरों में हँस रही हैं और हँस तो रही है निखिल प्रकृति। यह प्रकृति भी तो बालिका ही है।
मुझे तो आज सर्वत्र नन्ही, सुन्दर, सुकुमार बालिकाएँ दीख रही हैं। सुरांगनाएँ, गन्धर्व कुमारियाँ, तारिकाएँ और धरा पर कण-कण में नाचती, किलकती ये मेरी किरण-कुमारियाँ! ये लतिकायें, मराल बालायें, गायें और कहाँ तक गिनाऊँ पिपीलिकायें, भ्रमरियाँ सब, सर्वत्र आज मुझे तो शिशु बालिकायें ही बालिकायें दीखती हैं। आनन्दमग्न, किलकती, नाचती, नन्हें करों की तालियाँ बजाती, ये तृण-तरुओं के पत्र-पत्र को अलंकृत करती कन्यायें- सृष्टि कन्याओं से से भर गयी है। मेरी कन्यायें-मेरी आह्लादिनी सुता की ये स्नेहमूर्ति सहेलियाँ!
आज दिग्देवियों ने श्रृंगार किया है और स्वर्ग की कुमारियाँ सुमन वर्षा में स्पर्धा करने लगी हैं परस्पर! मैं मेघावरण के झीने आवरण से केवल झाँक सकता हूँ। घनों ने सीकर-समर्पण प्रारम्भ किये हैं और मैं स्नेह-शिथिल हो रहा हूँ-कीर्तिदा की कुमारी आ रही है।
कीर्तिदा का गर्भजात कुमार-यह सुबल अपनी अनुजा के लगभग साथ ही आया है; किंतु वह आयोनिजा कीर्ति-कन्या, वह तो लो प्रकट हो गयी देवालय में। उसे तो केवल अंक में उठाना है कीर्तिरानी को और वह इतना भी अवसर किसे देती है।
धन्य धरा! इस सौकुमार्य की साकार मूर्ति के सुकोमल चारु-चरण सचमुच कठोर धरित्री का स्पर्श सहन करने में सक्षम नहीं थे। तुमने अपना हृदय प्रकट किया। प्रफुल्ल पद्म रुप में इसके पाद-निक्षेप के लिए और यह तो स्वयं मातृ-अंकारुढा हो गयी है।
अब संसार के लोग तो समझेंगे ही, वृषभानुजी समझें कि उनकी सहधर्मिणी ने युग्म सन्तति दी है। युग्मज के अनुरूप-सर्वथा अनुरूप ही सुबल की अंग-कान्ति एवं स्वरूप है। इस अनुजा के समीप कोई पहिचान न सके कि दोनों में कन्या कौन-सी तो आश्चर्य क्या। यह सादृश्य तो इन दोनों का शाश्वत है।
मुझे तो स्मरण ही नहीं रहा, मेरे सदा सावधान सारथि अरुण को भी स्मरण नहीं रहा कि मेरा नित्य-गतिशील रथ शिथिल हो गया है। यह जो धरित्री के अंक में वृहत्सानुपुर है- वहाँ का और देवी कीर्तिदा के पितृ-गृह का यह महा-महोत्सव! गगन में सुरों का यह सोत्साह स्तवन-अब इसमें मैं या अरुण ही आत्म-विस्मृत हो गये तो क्या आश्चर्य। मैं आज औरों के समान आशीर्वाद दे पाता-उपहार दे पाता; किंतु आशीर्वाद तो मेरा रोम-रोम दे रहा है, भले मेरी वाणी स्नेहाधिक्य से शिथिल हो चुकी है। वृषभानु-नन्दिनी-भानु-नन्दिनी जो आज धरा पर अवतीर्ण हुई।
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