भारत में ऋतुचक्र- परिवर्त्तन के साथ चान्द्र चैत्र और आश्विन माह में नवरात्र- त्योहार मनाने के पीछे तो आध्यात्मिक महत्व है, अधिकन्तु ऋतु प...
भारत में ऋतुचक्र- परिवर्त्तन के साथ चान्द्र चैत्र और आश्विन माह में नवरात्र- त्योहार मनाने के पीछे तो आध्यात्मिक महत्व है, अधिकन्तु ऋतु परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिक महत्ता भी है। इस अवसर पर माता को स्तुति किया जाता है; यथा-
"रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।" -- अर्थात् "हे देवि ! आप प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनो- वाञ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग आपकी शरण में जाते हैं, उन पर विपत्ति नही आती। आपकी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।" - इस स्तुति के भावार्थ में है अध्यात्म- विज्ञान की महत्ता प्रकिर्त्तित।
पुराणों के अनुसार प्राचीन समय में जब अधर्म, पाप, अनाचार, अत्याचार बहुत बढ़ गया और असुरों के द्वारा देवों को सताया जाने लगा, तब सारे देवों ने मिलकर अपने- अपने तेज से एक ऐसी दिव्य शक्ति का प्राकट्य किया, जिसे 'दुर्गा' कहा गया। फिर इसी शक्ति- रूपिणी दुर्गा ने असुरों का विनाश किया। इस शक्ति के नौ विभिन्न रूपों को ही नवदुर्गा कहा गया। दर असल इस पौराणिक आख्यान से थोडा हट कर एक अलग पहलू पर भी विचार करना है, जो वैज्ञानिक और खगोलीय तथ्यों को भी समेटे हुए है। पूर्वोक्त चैत्र और अश्विन माह में पंचभूतों से उद्भूत पांचों ऊर्जाएं सौर मण्डल में प्रवेश कर 'सौरऊर्जा' का रूप धारण कर लेती हैं तथा नौ भागों में विभाजित हो जाती हैं और नौ मंडलों का अलग- अलग निर्माण कर लेती हैं। ये नौ मंडल ही ज्योतिष शास्त्र के नवग्रह हैं। इन ग्रहों से विभिन्न वर्णों की रश्मियाँ झरती हैं, जो समस्त चराचर जगत को अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन्हीं से जीवों की उत्पत्ति तथा उनमें जीवन का संचार होता है। पृथ्वी पर भी इन्हीं पंचतत्वों के संयोजन से जीवन, जल, वायु, वनस्पति, खनिज, रत्न, धातु तथा विभिन्न पदार्थो का निर्माण हुआ है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ये ऊर्जाएं पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव की ओर से क्षरित होती हैं और पृथ्वी को यथोचित पोषण देने के बाद दक्षिणी ध्रुव की ओर से होकर निकल जाती हैं। इसी को आधुनिक विज्ञान 'मेरुप्रभा' कहता हैं। इसी 'मेरुप्रभा' ही पृथ्वी तथा मनुष्य अंदर के चुम्बकत्व का कारण है। मनुष्य शरीर में रीढ़ की हड्डी के भीतर परम् शून्यता के प्रतीक सुषुम्ना यानी शून्य- नाड़ी होती है। यंहा स्थित वह परम- शून्य उस परम- तत्व का ही रूप है, जो अनादि काल से मनुष्य के शरीर में सुप्तावस्था में रहता आया है। नवरात्र के दिनों में मनुष्य के हाथ अनायास ही एक अलौकिक अवसर लग जाता है, जब उसकी चेतना में आलोड़न होने लगता है। इस समय मनुष्य के अन्दर चुम्बकीय शक्ति में भी वृद्धि होने लगती है।
मेरुप्रभा का दृश्यमान रूप जितना विलक्षण और अद्भुत है, उससे भी कहीं अधिक विलक्षण और अद्भुत है-
उसका अदृश्य रूप। इस मेरुप्रभा का प्रभाव समस्त भूतल पर पड़ता है। इससे सम्पूर्ण भूगर्भ, समुद्र तल, वायुमंडल तथा ईथर के महासागर में जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती रहती हैं, उनका बहुत कुछ सम्बन्ध इसी मेरुप्रभा से होता है। सिर्फ इतना ही नहीं, उसकी हलचलें जीवधारियों की शारीरिक, मानसिक स्थितियों को भी प्रभावित करती हैं। मनुष्यों पर तो उसका प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है।।
उत्तरी ध्रुव पर धरती भीतर की ओर धंसी हुई है, जिस कारण 14000 फ़ीट गहरा समुद्र बन गया है। इसके विपरीत दक्षिणी ध्रुव 19000 फ़ीट कूबड़ की तरह उभरा हुआ है। उत्तरी ध्रुव पर वर्फ बहती रहती है तथा दक्षिणी ध्रुव पर वर्फ जमी रहती है। दक्षिणी ध्रुव पर रात धीरे- धीरे आती है और सूर्यास्त का दृश्य काफी समय तक रहता है। फिर सूर्यास्त हो जाने के बाद महीनो भर अन्धकार- छाया रहता है। ध्रुवों पर सूर्य रश्मियों की विचित्रता के फलस्वरूप अनेक विचित्रताएं दिखाई देती हैं; जैसे दूर की चीजें हवा में लटकती हुई जान पड़ती हैं।
पृथ्वी का जो चुम्बकत्व है और उसके कण- कण को प्रभावित करता है तथा वह ब्रह्माण्ड से आने वाले अति रहस्यमय शक्ति- तत्व के प्रवाह के कारण भी है। मेरुदण्ड में स्थित सुषुम्ना नाड़ी में यह शक्ति- प्रवाह कार्य करता है। दूसरे शब्दों में यही शक्ति- तत्व जीवन- तत्व है। यह शक्ति- तत्व- प्रवाह उत्तरी ध्रुव की ओर से आता है और दक्षिण की ओर से बाहर निकल जाता है। इसीलिए उत्तरी- दक्षिणी दोनों ध्रुव- क्षेत्र होने पर भी दोनों के गुण- धर्म, विशेषताओं में काफी भिन्नता है।
मार्च- अप्रैल और सितम्बर- अक्टूबर-- अर्थात् चैत्र और आश्विन माह में जब पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है, उस समय पृथ्वी पर अधिक मात्रा में मेरुप्रभा झरती है, जबकि अन्य समय पर गलत दिशा होने के कारण वह मेरुप्रभा लौट कर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वह मेरुप्रभा में नौ प्रकार के उर्जा- तत्व विद्यमान हैं। प्रत्येक ऊर्जा तत्व अलग- अलग विद्युत् धारा के रूप में परिवर्तित होते हैं। वे नौ प्रकार की विद्युत् धाराएँ जंहा एक ओर प्राकृतिक वैभव का विस्तार करती हैं, वंही दूसरी ओर समस्त प्राणियों में जीवनी- शक्ति की वृद्धि और मनुष्यों में विशेष चेतना का विकास करती हैं।
भारतीय संस्कृति और साहित्य में उन नौ प्रकार की विद्युत धाराओं की परिकल्पना नौ देवियों के रूप में की गयी है। प्रत्येक देवी एक विद्युत् धारा की साकार मूर्ति है। देवियों के आकार- प्रकार, रूप, आयुध, वाहन आदि का भी अपना रहस्य है, जिनका सम्बन्ध इन्ही ऊर्जा- तत्वों से समझना चाहिए। ऊर्जा- तत्वों और विद्युत् धाराओं की गतविधि के अनुसार प्रत्येक देवी की पूजा- अर्चना का निर्दिष्ट विधान है और इसके लिए 'नवरात्र' की योजना है। प्रत्येक देवी की एक- एक रात्रि होती है। रात्रि में ही देवी की पूजा- अर्चना का विधान होता है, क्योंकि मेरुप्रभा दिन की अपेक्षा रात्रि को अधिक सक्रिय रहती है।
अन्तर्ग्रहीय ऊर्जा की दृष्टि से उत्तरी ध्रुव बहुत ही रहस्यमय तथा महत्वपूर्ण है। यहां ऊर्जाओं के छनने की क्रिया टकराव या संघर्ष के रूप में देखी जा सकती है। टकराव या संघर्ष के फल- स्वरूप एक विलक्षण प्रकार की ऊर्जा का कंम्पन उत्पन्न होता है, जिससे प्रकाश उत्पन्न होता है और उसे प्रत्यक्ष किया जा सकता है। उसी प्रकाश की चमक को ही 'मेरुप्रभा' कहा जाता है। सूर्य में तेज चमक दीखती है तो, उसके एक- दो दिन बाद ही ये मेरुप्रभा तीव्र होती है। यह बढ़ी हुई सक्रियता सूर्य के विकिरण तथा कणों की बौछार का ही प्रतीक है। शान्त अवस्था में भी यह सम्बन्ध बना रहता है। ये कण अति सूक्ष्म इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन होते हैं, जो लगभग 1000 मील प्रति घण्टे की गति से दौड़ते हुए पृथ्वी तक आते हैं, जबकि प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचने में कुल 8 मिनट लेता है। प्रकाश की गति 186000 मील प्रति सेकेण्ड है। पृथ्वी की सम्बन्ध सूर्य की विद्युतीय शक्ति से है। चुम्बकत्व पार्थिव कणों में विद्युत् प्रवाह के कारण होता है। इसीलिए पृथ्वी की चुम्बकीय क्षमता सूर्य के ही कारण है और सूर्य को शक्ति प्राप्त होती है अन्तर्ग्रहीय विद्युत ऊर्जा तरंगों से, जिनका मूल स्रोत है, वही अनादि- शक्ति की प्रतीक आद्याशक्ति माता भगवती।
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