राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥ बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 राम नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो। हे देवताओं के शत्रु सब गहनों से सजी हुई सुंदरी स्त्री भी कपड़ों के बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती॥

 लंका में रावण जब हनुमानजी से वार्तालाप करने लगा, तो रावण वह तो बड़ा पण्डित था।  उसने हनुमान जी के सामने भाषण दिया  अब भाषण देने वाला यदि अहंकारी हो तो उसको यह बड़ी चिन्ता रहती है कि सामनेवाला उसके भाषण से प्रभावित हो रहा है या नहीं।

  रावण के मन में यह जिज्ञासा थी कि इस बन्दर पर मेरी भाषा का,मेरी शैली का प्रभाव पड़ा या नहीं?

  उसने मानो व्यंग्यात्मक दृष्टि से हनुमानजी को देखा और कहा हे बन्दर मैं तेरी भाषा से समझ गया कि तू भी साहित्य का पंडित है तो अच्छा  बता तो,मेरी भाषा में,जो अभी तुझसे कही है,किसी अलंकार की तुझे कमी दिखी?  काब्य में अलंकार के बड़े महत्त्व होते हैं।

  रावण  तुम्हारे भाषण में सारे अलंकार तो आ गये,पर एक बात नहीं आई। रावण ने पूछा-'मेरे भाषण में क्या कमी रह गयी ?'

  हनुमानजी ने कहते हैं कि - राम नाम बिनु गिरा न सोहा। यह राम-नाम तो तुम्हारे मुँह से निकला ही नहीं।

तब बिगड़ कर रावण बोला-'यह राम-नाम भी कोई अलंकार है क्या?

  तू कैसा नासमझ है। साहित्य के किसी लक्षण में राम नाम किसी प्रकार का अलंकार नहीं है।सो अगर हमने राम नाम का प्रयोग नहीं किया तो इसमें तुम कमी क्यों देख रहे हो? तुम इस नाम को इतना महत्त्व क्यों देते हो?

  हनुमान जी रावण को समझाते हैं कि हे रावण किसी स्त्री के शरीर पर करोड़ों रुपये के आभूषण हों,पर वस्त्र न हों,तो वह भोग्य हो सकती है,लोगों के मन में वासना की सृष्टि कर सकती है,पर लोगों के अन्तःकरण में सद्भाव की सृष्टि करने में समर्थ नहीं है।

  इसी प्रकार तुम्हारी वाणी सारे अलंकारों से युक्त है,पर प्रभु की भक्ति और प्रभु के नाम के वस्त्र से रहित है।इसलिए इस नग्न वाणी को देखना,सुनना भी पाप है।  यदि कोई सभ्य ब्यक्ति होगा और उसे लगे कि महिला के शरीर पर वस्त्र नहीं है तो वह दृष्टि उठाकर भी उधर नहीं देखेगा। वह यह नहीं सोचेगा कि उसके शरीर पर कितने मूल्यवान आभूषण हैं।

  इसका अभिप्राय क्या ? यही कि आवश्यकता दोनों की है-वस्त्र भी रहे और आभूषण भी रहे। वस्त्र का अपना महत्त्व है और आभूषण का अपना ।  यदि दोनों में तुलना की जाय तो यही कहा जा सकता है कि आभूषण एक बार न रहे तो भी चल सकता है,लेकिन अगर वस्त्र न रहे तो बिल्कुल नहीं चलेगा। 

गोस्वामीजी एक स्थल पर और इसी सत्य को प्रकट करते हुए कहते हैं -

बिधुबदनी सब भाँति सँवारी।

सोह न बसन बिना बर नारी।।

  सत्संगी जन ब्यक्ति के लिए भौतिक सद्गुण यदि अलंकार हैं तो भगवान की भक्ति वस्त्र है , जीवन में सफलता के लिए भौतिक-सद्गुण और भगवद्भक्ति दोनों अपरिहार्य हैं । इतना ही समझ लीजिए कि शरीर है धर्म या सद्गुण और प्राण है भक्ति"

  दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।यदि ब्यक्ति के जीवन में सद्गुण नहीं हैं तो वह भक्ति पर कलंक लगने वाला है,क्योंकि उसको देखकर लोगों के मन पर यह छाप आयेगी कि भक्त लोग बड़े पाखंडी होते हैं। दूसरी ओर यदि केवल उसके जीवन में सद्गुण ही सद्गुण हैं और भक्ति नहीं है, तो उसका अभिप्राय है कि वह प्राणशून्य है।

ये त्वक्षरं निर्देशमव्यक्तं प्युपासते

सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलान्ध्रुवम्।

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र सम्बुद्धय:

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥

  लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना केअन्तर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति के परे है, सर्वव्यापी है, अकल्पनीय है, अपरिवर्तनीय है, अचल तथाध्रुव है, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्ततः मुझे प्राप्तकरते है ।

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