कर्म और भाग्य सफलता रूपी गाड़ी के दो पहिए है।ये दोनो अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी एक दूसरे के पूरक है। क्योंकि भाग्य कर्म के बिना सफलता प्रदान नही करता है। कुछ लोग कर्म को ही सब कुछ मानते है, जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहे है - कर्मण्येवाऽधिकारस्ते। फिर भी भाग्य जन्म के पूर्व निर्धारित होकर अपना कार्य आरंभ करता है। जैसे,किसी का जन्म धनी तो किसी का गरीब परिवार में होता है। इस प्रकार पूर्वजन्म का कर्म ही भाग्य बनकर आता है, और इस जन्म के कर्म से जुड़कर व्यक्ति को सफलता एवं असफलता दिलाता है, यदि व्यक्ति अपने किए कर्म का फल भोगता है तो वह कर्म भोग, और पूर्वजन्म का भोग भोगता है तो वह उसका भाग्य है। परीक्षार्थी द्वारा निश्चित प्रश्न तैयार करना उसका कर्म है लेकिन तैयार प्रश्न उसके परीक्षा में न आना ही उसका भाग्य है। यह जब समय के साथ उलटफेर करता है तो योग्यतम व्यक्ति भी अयोग्य साबित हो जाते है। अर्जुन महाभारत में समय के फेर में पड़कर ही अपने आप को निर्बल और विवश समझने लगे थे।
यद्यपि भाग्य में लिखा लेख कोई पढ़ नहीं पाता , लेकिन जन्म कुंडली में स्थित जन्म कालिक ग्रहों के आधार पर व्यक्ति के (शिक्षा,आजीविका,स्वास्थ्य,विवाह ,दाम्पत्य जीवन आदि )संपूर्ण भाग्य के लेख को पढ़ने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि - ज्योतिषं नेत्र मुच्यते ज्योतिष सभी शास्त्रों की आंख है। यह न केवल भावी घटना को जानने का प्रयास है बल्कि उन घटनाओं के प्रभाव एवम दुष्प्रभाव की संपूर्ण सूचना देते हुए इसमें रुकावट पैदा करने वाले ग्रहयोग को दृष्टिगत कर उसका उपचार भी बता देता है। क्योंकि कुंडली में ग्रहदोष व्यक्ति का भाग्य है, उसके निवारण के लिए मंत्र जप, तंत्र साधना, यंत्र निर्माणऔर रत्न धारण इत्यादि ज्योतिष उपाय व्यक्ति के कर्म है। वस्तुतः ग्रह ही अनुकूल होकर व्यक्ति को सत्ता सुख देते हैं और प्रतिकूल होकर अवरोध पैदा करते है, जैसे भगवान राम को जन्म कालिक ग्रहों के दुष्प्रभाव से विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा,एवम रावण को भी शनि की क्रूर दृष्टि का फल भोगना पड़ा।