गोपियों द्वारा कात्यायिनी देवी का व्रत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  एक बार गोपियों ने व्रत किया था कात्यायिनी देवी का। तो व्रत के अन्त में किसी महात्मा को भोजन कराने का नियम है फिर भोजन करे। तो श्रीकृष्ण के पास गईं और उन्होंने कहा कि लोग कहते हैं आप भगवान् हैं। भई बताओ कौन महात्मा है जिसको मैं भोजन कराऊँ? आपको तो पता होगा। तो भगवान् ने कहा यमुना के उस पार दुर्वासा जी रहते हैं, वो हमारे गुरु जी हैं। वो महापुरुष हैं, जाओ, उनको खाना खिला दो। हजारों गोपियों का झुण्ड था। तो गोपियों ने कहा कि महाराज! यमुना पार कैसे जायेंगे रात को? कोई नाव वाला नहीं ले जायगा। तो उन्होंने कहा, जाओ यमुना से कह दो, अगर श्रीकृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी हों तो यमुना मार्ग दे दे। ये वेद में कथा है। सखियाँ हँसने लगीं। ये अखण्ड ब्रह्मचारी हैं। हम लोगों से तो प्यार करते हैं, हमारे पीछे पीछे घूमते हैं। एक, दो, चार के पास नहीं, हर गोपी का पीछा कर लेते हैं। ऐ! हमसे प्यार कर ले। हमको अपना प्यार दे दे। प्रियतम बना ले। और कह रहे हैं कि हम अखण्ड ब्रह्मचारी हों तो!

  तो ललिता ने कहा- चलो, कह कर देख लेते हैं अपना क्या बिगड़ता है। जाकर सबने कहा- ऐ यमुना मैया! अगर श्रीकृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी हों तो हमको मार्ग दे दो, बिना नाव के हम पैदल चले जायें उस पार। यमुना ने फूलों का पुल बना दिया अपने ऊपर। गोपियों ने कहा ये यमुना भी ऐसे ही है झूठी,श्रीकृष्ण की तरह।चलो अपना काम हो गया,अपन तो बाद में बात करेंगे। चली गईं। दुर्वासा के पास गईं,प्रणाम किया और भोजन अर्पित किया सबने।हलुआ,पूड़ी सब तरह का खाना। तो दुर्वासा ने दो चार गस्सा खा लिया। तो गोपियों ने कहा-हमारा भी खाइये,गुरु जी हमारा भी खाइये,हमारा भी खाइये।तो दुर्वासा ने कहा भई तुम लोगों का इतना बड़ा झुण्ड,मैं कितना खाऊँगा?अरे गुरु जी!फिर हम तो इतनी दूर से आये हैं।उन्होंने कहा अच्छा फिर ले आओ, तो सिद्धि को बुलाया दुर्वासा ने और सबका हलुआ पूड़ी जो कुछ लाई थीं पूरा खा गये।बड़ा आश्चर्य गोपियों को।इतना खाने वाला बाबा तो हमने कहीं देखा नहीं। खैर,क्या करना है? अब हम लोगों का काम हो गया। अब हम लोग अपना चल कर खाना खायेंगे।तो एक सखी ने कहा कि भई इनसे भी तो कहो,कि हम यमुना पार जायें कैसे?हम लोग भूल गये। अगर हम लोग श्रीकृष्ण से कहे होते कि जाने आने दोनों का बता दो। हमने खाली जाने का कहा था,वर माँगा था। तो ये भी तो महापुरुष हैं,ये भी वही देंगे जो श्रीकृष्ण देते हैं।तो उन्होंने कहा दुर्वासा जी हमको उस पार जाना है अपने घर।कैसे जाऊँ रात को? भादौं की यमुना।दुर्वासा ने कहा- जाओ यमुना से कह देना अगर दुर्वासा दूब के सिवा कभी कुछ न खाये हों।ये दुर्वासा इस शब्द का अर्थ है दूब खाने वाला। ये घास होती है न एक दूब।उसी को तोड़ तोड़ कर खा लेते थे दुर्वासा और कोई चीज नहीं खाते थे।तो गोपियों ने कहा अभी अभी तो देखो इतना हलुआ पूड़ी खा गये बाबा जी। और कह रहे हैं खाली दूब ही खाये हों। और जाकर यमुना के आगे आकर कहा और फिर उसी प्रकार पुल बन गया। तो खोपड़ी खराब हो गई गोपियों की। फिर श्रीकृष्ण के पास गई। हे महाराज!आपने ऐसा कहा ये भी गलत है,दुर्वासा ने ऐसा कहा ये भी गलत है।हमारा दोनों के प्रति जो अनुभव है वो कैसे भूल जायें?

  तब भगवान् ने कहा देखो, हम और हमारे जन योगमाया से काम करते हैं। योगमाया एक पॉवर है भगवान् की, उस पॉवर से क्या होता है, माया का काम करके भी वो माया से परे रहते हैं। सब खा गये दुर्वासा लेकिन उनको केवल दूब का अनुभव हुआ। रसगुल्ले का,पूड़ी का, हलुआ का ये अनुभव नहीं हुआ। अब उसका आनन्द उनको नहीं मिला। तो योगमाया से जो काम करते हैं भगवान् और सन्त वो देखने में तो माया का लगता है-

किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप। (रामायण)

  प्राकृत मनुष्य की तरह उनका कर्म होता है लेकिन वो कर्म दिव्य है।इसलिये तुम शंका मत करो,जाओ अपने अपने घर। तो गोपियाँ घर गईं।

  तो महापुरुष की शरणागति और सेवा यही जीव का लक्ष्य है।अब महापुरुष अगर सेवा में बताता है कि राधे राधे करो। आज्ञा का पालन। राधे राधे मत करो। जाओ, इस सड़क की परिक्रमा करो। बस वैसा करना है। हमको आज्ञा पालन करना है, बुद्धि नहीं लगाना है।

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