वैवाहिक जीवन में वर-वधू की प्रतिज्ञाएँ

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 किसी भी महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण के साथ शपथ ग्रहण समारोह भी अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है,कन्यादान, पाणिग्रहण एवं ग्रन्थि-बन्धन हो जाने के साथ वर-वधू द्वारा और समाज द्वारा दाम्पत्य सूत्र में बँधने की स्वीकारोक्ति हो जाती है।

 इसके बाद अग्नि एवं देव-शक्तियों की साक्षी में दोनों को एक संयुक्त इकाई के रूप में ढालने का क्रम चलता है। इस बीच उन्हें अपने कर्त्तव्य धर्म का महत्त्व भली प्रकार समझना और उसके पालन का संकल्प लेना चाहिए। इस दिशा में पहली जिम्मेदारी वर की होती है।

 अस्तु, पहले वर तथा बाद में वधू को प्रतिज्ञाएँ कराई जाती हैं ः

वर की प्रतिज्ञाएँ

धर्मपत्नीं मिलित्वैव, ह्येकं जीवनमावयोः। 

अद्यारम्भ यतो मे त्वम्, अर्द्धांगिनीति घोषिता।। 

 आज से धमर्पत्नी को अर्द्धांगिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि करता हूँ,अपने शरीर के अंगों की तरह धमर्पतनी का ध्यान रखूँगा।

स्वीकरोमि सुखेन त्वां, गृहलक्ष्मीमहन्ततः। 

मन्त्रयित्वा विधास्यामि, सुकायार्णि त्वया सह॥

  प्रसन्नतापूर्वक गृहलक्ष्मी का महान अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निधार्रण में उनके परामर्श को महत्त्व दूँगा।

रूप-स्वास्थ्य-स्वभावान्तु, गुणदोषादीन् सर्वतः। 

रोगाज्ञान-विकारांश्च, तव विस्मृत्य चेतसः॥

 रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुण दोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा।

सहचरो भविष्यामि, पूर्णस्नेहः प्रदास्यते। 

सत्यता मम निष्ठा च, यस्याधारं भविष्यति॥

 पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा-पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर करूँगा।

यथा पवित्रचित्तेन, पातिव्रत्य त्वया धृतम्।

तथैव पालयिष्यामि, पत्नीव्रतमहं ध्रुवम्॥

 पत्नी के लिए जिस प्रकार पतिव्रत की मर्यादा कही गयी है, उसी दृढ़ता से स्वयं पतनीव्रत धर्म का पालन करूँगा। चिन्तन और आचरण दोनों से ही पर नारी से वासनात्मक सम्बन्ध नहीं जोडूँगा।

गृहस्यार्थव्यवस्थायां, मन्त्रयित्वा त्वया सह। 

संचालनं करिष्यामि, गृहस्थोचित-जीवनम्॥

 गृह व्यवस्था में धर्म-पत्नी को प्रधानता दूँगा,आमदनी और खर्च का क्रम उसकी सहमति से करने की गृहस्थोचित जीवनचर्या अपनाऊँगा।

समृद्धि-सुख-शान्तीनां, रक्षणाय तथा तव।

व्यवस्थां वै करिष्यामि, स्वशक्तिवैभवादिभि॥

 धमर्पत्नी की सुख-शान्ति तथा प्रगति-सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति और साधन आदि को पूरी ईमानदारी से लगाता रहूँगा।

यत्नशीलो भविष्यामि, सन्मार्गं सेवितुं सदा।

आवयोः मतभेदांश्च, दोषान्संशोध्य शान्तितः॥

 अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा-पूरा प्रयतन करूँगा,मतभेदों और भूलों का सुधार शान्ति के साथ करूँगा, किसी के सामने पतनी को लांछित-तिरस्कृत नहीं करूँगा।

भवत्यामसमर्थायां, विमुखायां च कर्मणि। 

विश्वासं सहयोगं च, मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥

 पत्नी के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्य पालन में रत्ती भर भी कमी न रखूँगा।

कन्या की प्रतिज्ञाएँ

स्वजीवनं मेलयित्वा, भवतः खलु जीवने। 

भूत्वा अर्धाङ्गिनी नित्यं, निवसामि गृहे सदा॥

 अपने जीवन को पति के साथ संयुक्त करके नये जीवन की सृष्टि करूँगी। इस प्रकार घर में हमेशा सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी बनकर रहूँगी।

शिष्टतापूवर्कं सर्वै, परिवार जनैः सह। 

औदार्येण विधास्यामि, व्यवहारं च कोमलम्॥

 पति के परिवार के परिजनों को एक ही शरीर के अंग मानकर सभी के साथ शिष्टता बरतूँगी, उदारतापूवर्क सेवा करूँगी, मधुर व्यवहार करूँगी।

त्यक्त्वालस्यं करिष्यामि, गृहकार्ये परिश्रमम्। 

भतुर्हर्ष हि ज्ञास्यामि, स्वीयामेव प्रसन्नताम्॥

 आलस्य को छोड़कर परिश्रमपूवर्क गृह कार्य करूँगी। इस प्रकार पति की प्रगति और जीवन विकास में समुचित योगदान करूँगी।

श्रद्धया पालयिष्यामि, धर्म पातिव्रतं परम्।

सवर्दैवानुकूल्येन, पत्युरादेशपालिका॥

 पतिव्रत धर्म का पालन करूँगी, पति के प्रति श्रद्धा-भाव बनाये रखकर सदैव उनके अनूकूल रहूँगी। कपट-दुराव न करूँगी, निदेर्शों के अविलम्ब पालन का अभ्यास करूँगी।

सुश्रूषणपरा स्वच्छा, मधुर-प्रियभाषिणी। 

प्रतिजाने भविष्यामि, सततं सुखदायिनी॥

 सेवा, स्वच्छता तथा प्रियभाषण का अभ्यास बनाये रखूँगी। ईर्ष्या, कुढ़न आदि दोषों से बचूँगी और सदा प्रसन्नता देने वाली बनकर रहूँगी।

‍मितव्ययेन गाहर्स्थ्य-संचालने हि नित्यदा। 

प्रयतिष्ये च सोत्साहं, तवाहमनुगामिनी॥

 मितव्ययी बनकर फिजूलखर्ची से बचूँगी, पति के असमर्थ हो जाने पर भी गृहस्थ के अनुशासन का पालन करूँगी।

‍देवस्वरूपो नारीणां, भर्ता भवति मानवः। 

मत्वेति त्वां भजिष्यामि, नियता जीवनावधिम्॥

 नारी के लिए पति, देव स्वरूप होता है- यह मानकर मतभेद भुलाकर, सेवा करते हुए जीवन भर सक्रिय रहूँगी, कभी भी पति का अपमान न करूँगी।

पूज्यास्तव पितरो ये, श्रद्धया परमा हि मे।

सेवया तोषयिष्यामि, तान्सदा विनयेन च॥

 जो पति के पूज्य और श्रद्धा पात्र हैं, उन्हें सेवा द्वारा और विनय द्वारा सदैव सन्तुष्ट रखूँगी।

विकासाय सुसंस्कारैः, सूत्रैः सद्भाववद्धिर्भिः।

परिवारसदस्यानां, कौशलं विकसाम्यहम्॥

 परिवार के सदस्यों में सुसंस्कारों के विकास तथा उन्हें सद्भावना के सूत्रों में बाँधे रहने का कौशल अपने अन्दर विकसित करूँगी।

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