'जगत में चार प्रकार के (आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी) रामभक्त है और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं। चारों ही चतुर भक्...
'जगत में चार प्रकार के (आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी) रामभक्त है और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं। चारों ही चतुर भक्तों को नाम ही आधार है। इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं।'
चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परंतु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो (नाम को छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।
जो तन-मन से रोगी है, धन-सत्ता होने पर भी जो मानसिक रूप से अशांत है ऐसा शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक रूप से रोगी अगर अपने रोग, संकट या कोई कष्ट मिटाने के लिए भगवान की शरण लेता है तो उसे आर्त कहते हैं।
जो बुद्धि रूपी धन, सत्तारूपी धन या रुपये-पैसे रूपी धन को अर्जित करने के लिए भगवान की शरण लोता है वह अर्थार्थी भक्त है। जो भगवान के तत्त्व को समझना चाहता है वह जिज्ञासु भक्त है।
जिसको न धन की जरूरत है, न सत्ता की जरूरत है, न भगवद् तत्त्व समझना जरूरी है ऐसा जो आप्ताकाम, पूर्णकाम है, अपने आप में संतुष्ट है ऐसा भक्त ज्ञानी भक्त कहा जाता है। ऐसा ज्ञानी भक्त भगवान को निष्काम भाव से भजता हुआ भगवदाकार वृत्ति, ब्रह्माकार वृत्ति बनाये रखता है। जो अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं, जो ज्ञान की खुमारी से नीचे नहीं आते, जिनका स्वभाव है परमात्म शाँति में ही रहना, ऐसे जो ज्ञानी महापुरुष हैं उन्होंने अपने और ईश्वर के बीच की दूरी को समाप्त कर लिया है।
यो यो यां यां तनु भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।
भगवान कहते हैं कि जो जिसका भक्त है, श्रद्धा से जिसकी आराधना करता है उसकी श्रद्धा में अचलता मैं देता हूँ।'
जब अल्प भोगों की प्राप्ति के लिए लोग अल्प सत्ता वाले व्यक्तियों की, देवों की, गंधर्वों की, भूत और भैरव की आराधना करते हैं तो उस आराधना करने में भी परमात्मा सहायता करते हैं।
जैसे आप ग्राम प्रधान,या विधायक,या सांसद किसी को भी खुश करो, वह अपनी जेब से कुछ करने वाले नहीं हैं, पैसा या सेवा भारत सरकार से ही आपको मिलेगा।
वैसे तो यदि आप उस परमात्मा की आराधना के लिए चित्त में थोड़ा सा विवेक ले आओ तो फिर कमियाँ नहीं देखेगा वरन् वह अपनी उदारता एवं योग्यता की ओर देखकर आपको जल्दी से अपने गले से लगा लेगा।
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था।
आता न था नजर तो नजर का कसूर था।।
जीव सत्यस्वरूप, साक्षीस्वरूप, अंतर्यामी परमात्मस्वरूप से बिछुड़ गया है। मनुष्य जन्म में भी अगर बिछुड़ा ही रहा तो फिर किस जन्म में उसे पायेगा? गधा योग नहीं कर सकता और भैंस भागवत नहीं सुन सकती। चौरासी लाख योनियों में से ऐसा कोई शरीरधारी नहीं है जो तत्त्वज्ञान का विचार कर सके। केवल मनुष्य ही है जो तत्त्वज्ञान का विचार करके सत्य को पा सकता है और सत्य इतना सरल है, इतना सहज है, इतना सुलभ है और इतना निकट है कि आप उसको हटाना चाहो तो भी हट नहीं सकता। आप अगर भगवान को अपनी ओर से हटा देना चाहो तो आपके बस की बात नहीं है और भगवान हट जाना चाहें तो भगवान के बस की बात नहीं है। ऐसा वह भगवान है।
जो जाहू ते उपजा लीन ताहि में जान।
जैसा स्वप्ना रैन का तैसा यह संसार।।
रात्रि के स्वप्न में आप परिवार, मकान-दुकान सब बना लेते हो। मकान दुकान जड़ है और पुत्र-परिवार चेतन हैं, फिर भी दोनों बने तो आपके ही शुद्ध चैतन्य से ही हैं। परा-अपरा प्रकृति से दो दिखते हैं लेकिन दोनों की सत्ता तो एक ही है। शरीर में ही बाल-नाखून आदि कुछ जड़ हिस्सा है, बाकी चेतन हिस्सा है लेकिन जब शुद्ध चैतन्य का संबंध टूट जाता है तो बाकी दिखने वाला चेतन हिस्सा, हाथ-पैरादि भी जड़ हो जाता है। जब तक आपकी चेतना का संबंध शरीर के साथ रहता है, तब तक आप अपने को चेतन मानते हो और संबंध टूट जाने पर जड़ मान लेते हो। हकीकत में तो जड़ और चेतन दो नहीं हैं एक ही तत्त्व के रूपान्तरण हैं ।
सागर का पानी वाष्पीभूत होकर बादल बनता है एवं पुनः बरसकर कहीं गंगा तो कहीं यमुना, कहीं गोदावरी तो कहीं नर्मदा के रूप में पूजा जाता है। फिर उन नदियों का जल पुनः सागर में ही मिल जाता है। जैसे, नदियाँ सागर से ही उत्पन्न होकर पुनः उसी में लीन हो जाती हैं ऐसे ही पाँच भूत का उत्पत्तिस्थान भी परमात्मा से है और लीन भी उसी में होना है तो अब भी तो हम उसी में हैं। बस जरूरत है उसे जान लेने की।
हम राजी हैं उसमें जिसमें तेरी रजा है।
हमारी न आरजू है न जुस्तजू है।।
न खुशी अच्छी है न मलाल अच्छा है।
यार , तू जिसमें रख दे वह हाल अच्छा है।।
ऐसा जिनको बोध हो जाता है, इस प्रकार जिनकी वासना निवृत्त हो जाती है उनके साथ प्रीति करने वाले लोग भी खण्ड-खण्ड के सुख को, एक-एक इन्द्रिय के सुख को पाने के लिए एक-एक देवता की गुलामी नहीं करते लेकिन हजारों देवता जिनके इशारे से देने का सामर्थ्य रख रहे हैं वे उसी को अपना साथी, उसी को अपना मालिक मानते हैं।
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