"कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु वचन मानि वन आए। नाम राम लछिमन दोउ भाई, संग नारि सुकुमारि सुहाई।।" सीता माता की खोज में घूमते- ...
"कोसलेस दसरथ के जाए,
हम पितु वचन मानि वन आए।
नाम राम लछिमन दोउ भाई,
संग नारि सुकुमारि सुहाई।।"
सीता माता की खोज में घूमते- फिरते श्रीराम व लक्ष्मण जी के साथ ऋष्यमूक पर्वत इलाके में हनुमान जी का सहसा जब भेंट हुआ, तब श्रीराम जी ने उनको अपनी परिचय देते हुए कहा था--- "हम दोनों कोशलाधीश चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी के पुत्र हैं। हम पिता जी का वचन पालन कर ही बनवास में आए हैं। हमारे इस भाई के नाम लक्ष्मण हैं। साथ सुकुमारी पत्नी जानकी भी थी, जिसको कोई पापिष्ठ असुर पंचवटी से हरण कर कंहा ले गया है। इसी कारण, हम दोनों भाई जानकी जी को इधर- उधर ढूंढते यंहा आ गए हैं। सायद तुम इस अरण्य- मुल्क को अछे से जानते हो। इसीलिए हमारा आग्रह है की तुम खोज कार्य में हमारी सहायता करो।"
श्रीराम जी ने हनुमान जी को ऐसे सरल- स्पष्ट भाषा में सबकुछ आपविती दुःख को विस्तार में समझाए थे। हनुमान जी तो पहले से ही अपनी प्रभु जी को पहचान गए थे, अब छिपे हुए सुग्रीव जी और दूसरे बानर साथियों को बुलाकर, श्रीराम- लक्ष्मण जी से परिचय कराए तो सुग्रीब, अंगद, जाम्भवन्त जी समेत उपस्थित बानर यूथ कृतकृत्य होकर दोनों भाइयों को भूमिष्ट प्रणाम कर उनके पास इक्कठी हुए थे।
श्रीराम जी ने हनुमान और सुग्रीब जी से उनके सम्पूर्ण परिचय तथा किष्किन्धा में महाबली बाली कर्त्तुक उनके साथ बीते समस्त दुखद वृत्तांत को सुनकर, व्यथित हुए थे। वस्तुतः दोनों पत्नीहरा श्रीराम जी और सुग्रीब जी के स्थिति अब समान थे। श्रीराम जी ने सभीओं को निर्भय होने की आश्वासना दिया था। हनुमान जी ने भी इस अवसर में श्रीराम जी के साथ सुग्रीब जी का मित्रता कराई थी और सुग्रीब जी ने भी इस मित्रता को अंतःकरण में स्वीकार कर अपना सारा जीवन प्रभु जी को समर्पित करने का वचन दिया था। फिर समस्त वानर तथा भल्लुक साथियों को माता सीता जी की खोज में जुटाने की सुनिश्चित योजना भी सुरु किया था।
बात ये है की, सुग्रीव जी ने महाबली भ्राता बाली का महात्रास के कारण ही किष्किन्धा- राजसत्ता से विताडित होकर तथा बाध्यतावशः अपनी पत्नी को भी छोड़कर, घोर लज्जा और भय से मारे- मारे- फिरते हुए लगभग समस्त आर्यावर्त्त- भूमंडल को परिक्रमण किया था। इसीलिए उनके स्मरण में विभिर्ण स्थानों के बारे में भौगोलिक ज्ञान भरपूर था। ये बात जब श्रीराम जी को मालूम हुआ, तब सीता जी को ढूंढने के लिए प्रस्ताब रखे थे और सुग्रीब जी ने भी दलबल के साथ सहर्ष सहयोग करने की वादा किया था।
इसीके बाद श्रीराम जी ने भ्राता लक्षण जी के साथ मिलकर, किष्किन्धा में महाबली बाली को वध कर, सुग्रीब जी को राज सिंघासन में बैठाने के बाद, कुछ दिन राजपाट संभालने के लिए छोड़कर लक्षण जी के साथ वनांचल में पूर्व स्थान को लौट आये थे। फिर कुछ दिन अंतर में वायदा निभाने के लिए राजा सुग्रीब जी भी महामंत्री श्रीहनुमान जी, महाबली जाम्भवन्त जी, राजकुमार अंगद जी आदि के साथ दलबल को लेकर श्रीराम जी के पास समवेत हुए थे।
सुग्रीव जी ने पराभक्ति सीता माता की खोज हेतू अपनी सेना और बाहर से पांच कोटी महाबीर सेना- यूथ को दलपतिओं के साथ इक्कठी कर, सारी सेना- बल को चार भागों में विभक्त किया था। फिर श्रीराम जी से अनुमति लेकर, उन सब को अपनी ,"भ्रमण- अनुभूति" से ढूंढने योग्य गंतव्य स्थानों का स्थूल भौगोलिक विबरणी भी विस्तार के साथ बताया था। इसके साथ खोज की समय सीमा को एक माह के अंदर निश्चित कर, चारों दिशाओं में विशेष- विशेष आधीपतियों के सहित बानर तथा भल्लुक सेनाओं को भेजने की योजना प्रस्तुति सुरु किया था।
इसी सिलसिले में सुग्रीव जी ने अपने सेनापति "विनत" को पूर्व दिशा मैं खोज का कार्य सौंपा था। उत्तर दिशा में "सतबली" नामक सेनाधीश को यह कार्य सौंपा गया था। ऐसे दक्षिण दिशा में खोज कार्य हेतु महामंत्री "हनुमान जी" और महाबली "जाम्भवन्त जी" के साथ दलपति "अंगद जी' को यह कार्य सौंपा गया था। वाकि रहा पश्चिम दिशा, तो वंहा ज्यादा दूरतक बानर सेना जा नहीं सकते थे। क्यों की आगे वंहा घनघोर अंधेर में घिरे हुए पर्वत- अरण्य ही भरा पडा था। इसीलिए सुग्रीब जी अपनी स्वसुर "सुषेण जी" को पश्चिम दिशा में भेजने की तय किया था। इस प्रकार तत्काल सीता माता की खोज कार्य हेतु, सुग्रीब जी के साथी सेनाओं का एक- एक टोली के हिसाब से चार भागों में विभाजन हुआ था।
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