नर तन सम नहिं कवनिउ देही जीव चराचर जाचत तेही॥ नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥

 काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है, आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं।

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।

महाशनो महापापमा विध्यैनमिह वैरिणम्।।

  वेदों में काम , या वासना शब्द का उपयोग न केवल यौन इच्छाओं के लिए किया जाता है, बल्कि इसमें स्वयं की शारीरिक अवधारणा के आधार पर भौतिक आनंद की सभी इच्छाओं को भी शामिल किया गया है। इस प्रकार, वासना स्वयं को कई तरीकों से प्रकट करती है - धन की लालसा, शारीरिक लालसा, प्रतिष्ठा की लालसा, शक्ति की लालसा, आदि। यह वासना केवल ईश्वर के प्रति प्रेम का एक विकृत प्रतिबिंब है, जो हर जीवित प्राणी का अंतर्निहित स्वभाव है। जब आत्मा शरीर रूपी भौतिक ऊर्जा के साथ जुड़ती है, तो भगवान के प्रति उसका दिव्य प्रेम रजोगुण के साथ मिलकर वासना में बदल जाता है। चूँकि दिव्य प्रेम ईश्वर की सर्वोच्च शक्ति है, भौतिक क्षेत्र में इसकी विकृति, जो वासना है, सांसारिक गतिविधियों में भी सबसे शक्तिशाली शक्ति है।

  श्रीकृष्ण सांसारिक सुखों की इस "वासना" को पाप के कारण के रूप में, हमारे भीतर बैठे घातक आकर्षण के रूप में पहचानते हैं। रजोगुण आत्मा को यह विश्वास दिलाकर भ्रमित करता है कि सांसारिक वस्तुएँ संतुष्टि देंगी, और इसलिए व्यक्ति उन्हें प्राप्त करने की इच्छाएँ पैदा करता है। जब इच्छा संतुष्ट होती है, तो यह लालच को जन्म देती है; जब वह संतुष्ट नहीं होता तो क्रोध उत्पन्न होता है। व्यक्ति काम, लोभ और क्रोध तीनों के प्रभाव में आकर पाप करता है। लालच और कुछ नहीं बल्कि तीव्र इच्छा है, जबकि क्रोध कुंठित इच्छा है। इसलिए, श्री कृष्ण वासना, या इच्छा को सभी बुराइयों की जड़ बताते हैं।

एक कहानी याद आती है —

 एक वृद्ध भिखारी था। वह सड़क के किनारे बैठकर भीख माँगता था। उसका स्थान स्थायी था। आते-जाते कोई उसे कुछ दे देता था तो वह खा लेता था, नहीं मिलता तो भूखे रहना पड़ता। उसके शरीर पर कई जगह घाव भी हो गये थे, जहाँ से खून भी टपकता रहता था।

 एक युवक प्रतिदिन उस सड़क से गुजरता था, उसे देखता था। एक दिन वह उसके पास गया और बोला- 'बाबा! तुम्हारी ऐसी हालत हो गयी है, फिर भी तुम जीना चाहते हो। तुम किसके लिये भीख माँगते हो ? तुम भगवान् से यह प्रार्थना क्यों नहीं करते कि या तो तुम्हें ठीक कर दे या फिर इस जीवन से मुक्तकर अपने पास बुला ले ?'

  भिखारी बोला- 'बेटा! तुमने ठीक कहा, मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ और प्रार्थना करता हूँ, पर भगवान् मेरी विनती नहीं सुनना चाहता है। शायद उसकी इच्छा है कि लोग मुझे देखें, देखकर सबक लें और समझें कि मैं भी कभी उनके समान ही था। उनके लिये भी ऐसा समय आ सकता है। वे भी मेरी ही तरह हो सकते हैं। इसलिये आदमी को कभी भी संसारिक एवं शारीरिक अहंकार नहीं करना चाहिये। भगवान् ने मुझे उदाहरण के रूप में जीवित रखा है।

अस प्रभु अछत हृदय अविकारी

सकल जीव जग माहिं दुखारी।।

 इसका उत्तर भगवान श्री कृष्ण ने "काम एष:" कहकर दिया। मतलब कि यह कामना ही ,शरीर, संसार की सारी विपत्तियों का मूल है।अतः कामनाओं का त्याग सर्वानन्द का द्वार है। मनसा, वचसा, कर्मणा इसी का परित्याग वेदान्त धर्म का सार है।इसी बात को और स्पष्ट करते हुए हमारे स्वामी विवेकानंद जी ने अपने अनेक व्याख्यानों मे कहा है-“जब तक कामिनी कांचन का त्याग नहीं होगा, आत्मोपलब्धि, स्वस्वरुपावगति(भक्ति)और आत्मैकत्व प्राप्ति,अथवा मुक्ति भी नहीं।

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