यह चित्र भरत को एक और अधिक युवा और ऊर्जावान स्वरूप में दिखाता है। भरत को बिना दाढ़ी के, एक साफ और तेजस्वी चेहरे के साथ, सरल राजसी वेशभूषा मे...
चौपाई:
"एहि सन्देस सरिस जग माहीं।
करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।
नाहिन तात उरिन मैं तोही।
अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।"
चौपाई का संदर्भ:
यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्या कांड से ली गई है। यह संवाद भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत और ऋषि निषादराज गुह के बीच का है। भरत भगवान श्रीराम के वनवास के बाद उन्हें अयोध्या लौटने के लिए मनाने की इच्छा लेकर उनके पास जाते हैं। इस संदर्भ में भरत अपनी स्थिति व्यक्त कर रहे हैं और यह कह रहे हैं कि इस संसार में ऐसा कोई संदेश या कार्य नहीं है जो भगवान राम के चरित्र सुनने से श्रेष्ठ हो।
चौपाई का अर्थ:
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"एहि सन्देस सरिस जग माहीं।
करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।"- भरत कहते हैं कि इस संसार में भगवान राम के जीवन और उनके गुणों के संदेश जैसा कुछ और नहीं हो सकता।
- उन्होंने गहराई से विचार किया, लेकिन इससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं पाया।
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"नाहिन तात उरिन मैं तोही।
अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।"- भरत आगे कहते हैं कि हे तात (प्रिय भाई/ऋषि गुह), मैं आपके उपकारों से उऋण नहीं हो सकता।
- अब मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे भगवान श्रीराम के गुण और उनके जीवन की कथा सुनाएँ।
भावार्थ और विश्लेषण:
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राम के चरित्र की महिमा:
भरत का यह कथन भगवान श्रीराम के गुणों और उनके चरित्र की महत्ता को दर्शाता है। राम का जीवन केवल एक राजा के रूप में नहीं, बल्कि आदर्श मानव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उनकी जीवनगाथा को सुनने और समझने से व्यक्ति को आध्यात्मिक शांति, प्रेरणा, और सही दिशा मिलती है। -
विनम्रता और समर्पण:
भरत अपने शब्दों में विनम्रता और समर्पण की भावना प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि वे निषादराज गुह के उपकारों का बदला नहीं चुका सकते और उनके सामने अपने आपको पूर्णतः समर्पित कर देते हैं। -
आध्यात्मिक संदेश:
इस चौपाई का गहरा आध्यात्मिक संदेश है कि संसार में सबसे श्रेष्ठ कार्य भगवान की कथा और उनके गुणों का श्रवण है। यह व्यक्ति को संसारिक मोह-माया से ऊपर उठाकर ईश्वर की भक्ति में लीन करता है। -
भरत की भक्ति:
भरत की भक्ति और उनके चरित्र की महानता इस चौपाई में प्रकट होती है। वह राम के प्रति अपनी निष्ठा और प्रेम को व्यक्त करते हैं और स्वयं को उनके चरणों में समर्पित करते हैं।
आधुनिक संदर्भ में शिक्षा:
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श्रेष्ठ कार्यों की पहचान:
इस चौपाई से यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने जीवन में ऐसे कार्यों और विचारों को प्राथमिकता देनी चाहिए, जो हमारी आत्मा को शांति और संतोष दें। -
कृतज्ञता और विनम्रता:
हमें अपने जीवन में दूसरों के उपकार को कभी नहीं भूलना चाहिए और अपने प्रति किए गए उनके अनुग्रह का आदर करना चाहिए। -
आध्यात्मिकता का महत्व:
ईश्वर के गुणों और उनकी महिमा का चिंतन जीवन के हर संघर्ष और संकट में सहारा देता है।
सारांश:
यह चौपाई भक्ति, समर्पण, और ईश्वर के गुणों की महिमा को उजागर करती है। भरत का चरित्र विनम्रता, प्रेम, और निःस्वार्थ भक्ति का आदर्श है। यह हमें सिखाती है कि जीवन में सबसे महान कार्य ईश्वर की कथा सुनना, उनका चिंतन करना और उनकी महिमा का गान करना है।
यह प्रसंग भरत जी के विरह के समय का है, जब हनुमान जी भरत जी को प्रभु के आने की सूचना देते हैं।
भरत जी श्री हनुमान जी से कहते हैं कि -
हे तात! मैं तुमसे उऋण नहीं हूँ। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। 'प्रभु आ गये'- इस संदेश के समान सृष्टि में कुछ है ही नहीं। मैं इसके बदले क्या देकर आपसे उऋण हो सकता हूँ ?
हनुमान ने कहा- प्रभो आज मैं सब कुछ पा गया जो आपको प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। आपको पाकर हमें अन्य कुछ चाहिए भी नहीं। इसलिए निष्काम कर्मयोग ही आदर्श है।
निष्काम कर्म उसे कहते हैं जिसके पीछे हमारा कोई निजी हित, निजी स्वार्थ ना जुड़ा हो।
कर्म के फल से खुद को अलग कर लेना है। कभी कभी कुछ काम ऐसे भी किए जाएं, जिसका हमारे लिए कोई फायदा ना हो। हमेशा याद रखिए दूर तक वे ही कर्म फायदा देते हैं। कर्म में निष्कामता का भाव होगा तो हमारी संवेदनाएं प्रबल होंगी।
कदाचित् आप कामना करेंगे तो वस्तु की ही तो करेंगे जबकि वस्तु नश्वर हैं। कामना करनी ही है तो भगवान की करें। भगवान अविनाशी हैं। वह जहाँ रहेंगे, अविनाशी पद रहेगा। वह सर्वज्ञ हैं इसीलिए वहाँ सर्वज्ञता रहेगी। वह लक्ष्मीपति हैं अतः उनके साथ ऐश्वर्य छाया रहता है। मनुष्य अल्पबुद्धि से जो सोचता है, उससे अनन्त गुना आगे की व्यवस्था भगवान के पास रहती है तो क्यों नहीं -
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय।
अनेक देवी-देवताओं की भक्ति करने की अपेक्षा अपने इष्ट देव के प्रति आस्था रखना अधिक अच्छा होता है। जिस प्रकार जड़ को सींचने से पेड़ के फूल-पत्तों तक का पोषण हो जाता है। उसी प्रकार इष्ट के प्रति ध्यान कर लें तो सांसारिक सुख स्वयं मिल जाते हैं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वं सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
सभी प्रकार के धर्मों को त्याग दो और केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा; डरना मत।
देवर्षि-भूतप्त-नृणां पितृणां
न किंकरो नायमृषींश्च राजन् ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं
गतो मुकुंदं परिहृत्य कृत्यम् ।।
जो लोग भगवान के प्रति समर्पण नहीं करते हैं, उनके लिए पाँच ऋण हैं दिव्य देवताओं के प्रति, ऋषियों के प्रति, पूर्वजों के प्रति, अन्य मनुष्यों के प्रति, और अन्य जीवित प्राणियों के प्रति। वर्णाश्रम प्रणाली में इन पांच प्रकार के ऋणों से खुद को मुक्त करने के लिए विभिन्न प्रक्रियाएं शामिल हैं। हालाँकि, जब हम भगवान के प्रति समर्पण करते हैं, तो हम इन सभी ऋणों से स्वतः ही मुक्त हो जाते हैं। आज की हमारी करनी कल का वक्त बन जाती है।
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी।
दीनबंधु उर अंतरजामी॥
महाभारत में महाराज नहुष का आख्यान इसी तथ्य की ओर इंगित करता है। बस, यही आशीर्वाद दें कि आपका वरदहस्त सदैव रहे। वे और भी जोर दें तो बोलें- प्रभो! केवल आप चाहिये। मनु ने भगवान को माँगा।
मनु महाराज बोले कि हे प्रभु आप से क्या छिपाना। मुझे आप के समान पुत्र चाहिए। इस पर भगवान ने वरदान दे दिया 'हे राजन मैं स्वयं आपके पुत्र रूप में आउंगा। ' महारानी शतरूपा ने भी कहा कि जो वर मेरे पति महाराज मनु ने मांगा, मुझे भी वही अच्छा लगा।
दुर्योधन ने श्री कृष्ण की पूरी नारायणी सेना मांग ली थी। और अर्जुन ने केवल श्री कृष्ण को मांगा था।
उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की चुटकी लेते हुए कहा।
हार निश्चित है तेरी, हर दम रहेगा उदास।
माखन दुर्योधन ले गया, केवल छाछ बची तेरे पास।।
अर्जुन ने कहा : हे प्रभु !
जीत निश्चित है मेरी, दास हो नहीं सकता उदास ।
माखन लेकर क्या करूँ जब माखन चोर है मेरे पास ।।
तो अर्जुन ने भी भगवान को माँगा जबकि दुर्योधन ने ऐश्वर्य, बल और शक्ति को माँगा। सृष्टि में जो कुछ है, नश्वर है। आज है तो कल नहीं रहेगा। सबकी नाव समुद्र में है, डूबते देर नहीं लगेगी। इसलिए भगवान से माँगना है तो इस क्षणभंगुर शरीर के सुख-सुविधा की सामग्री नहीं। स्वयं भगवान का ही बन जाओ।
किसी ने कहां है कि —
जप तप करके स्वर्ग कमाना, यह तो काम मजूरों का।
देना सब कुछ लेना कुछ नहि, बाना झाँकर झूरों का।।
जप किया, तप किया, संयम किया और भगवान ने कुछ कहा तो स्वर्ग का सुख माँग लिया। यह तो मजदूरों का काम है कि दिनभर श्रम करते रहते हैं, पूछते भी रहते हैं- मालिक! अब कितनी देर है? हमारी मजदूरी का क्या होगा? यही सब माँगा तो हमने नश्वर माँगा, क्योंकि भगवान ही अजर-अमर हैं, शाश्वत हैं इसलिए उन्हें ही सर्वस्व समर्पण कर दें, अपने को उनकी गोद में डाल दें।
देना सब कुछ किन्तु लेना कुछ नहीं'।
उनके अर्थात प्रभु के हो भर जायें। यही फकीरों की रहना है। उन्हें भौतिक सुख-सुविधा या सुन्दरता नहीं चाहिए। वस्तु तो वस्तु है। उसकी आयु है। काल पाकर वह नष्ट हो जायेगी। आप तो पुनः दरिद्रता के उसी फुटपाथ पर आ गये।
माँगकर खुशी लूँ, यह तो मुझे मंजूर नहीं। कारण ?
किसका माँगी हुई दौलत से भला होता है।।
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