विंध्याचल की पर्वतमालाओं तथा माँ विंध्यवासिनी के मंदिर के निकट ही मौनी बाबा की गुफा थी । वहाँ वह अपने दो शिष्यों के साथ माँ गायत्री की अखं...
विंध्याचल की पर्वतमालाओं तथा माँ विंध्यवासिनी के मंदिर के निकट ही मौनी बाबा की गुफा थी । वहाँ वह अपने दो शिष्यों के साथ माँ गायत्री की अखंड साधना में लीन थे । माँ गायत्री की निरन्तर साधना तथा गायत्री महामंत्र के जप और ध्यान के प्रभाव से उनका व्यक्तित्व सूर्य की तरह प्रखर तेज से आलौकित रहता था । वह एक ऐसे सिद्ध साधक थे जिनके पास विभिन्न सिद्धियाँ और विभूतियाँ सजह उपलब्ध थी । उनकी ख्याति दूर – दूर तक फैली हुई थी । किन्तु वह स्वामीजी मौन व्रत के कारण किसी से बातचीत नहीं करते थे । उन्होंने 40 वर्ष से मौन व्रत ले रखा था । इसलिए वे किसी से मिलते – जुलते और बातचीत नहीं करते थे । हमेशा मौन रहने के कारण ही लोगों ने उन्हें मौनी बाबा कहना शुरू कर दिया था ।
जब भी उन्हें किसी वस्तु की आवश्यकता होती थी, वे संकेत देकर या जमीन पर लिखकर समझा देते थे । वैसे बाबाजी की जरूरते कुछ खास नहीं थी । दो अंगोछा और लंगोटी में काम चला लेते थे । भोजन में नीम, बेल और तुलसी पत्र पीसकर खा लेते थे । उनका जीवन पूरी तरह से एक तपस्वी का जीवन था ।
बाबाजी मौन भले ही रहते थे लेकिन सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करते थे । जो भी उनके पास आया कभी निराश होकर नहीं लौटता था । इसलिए सभी की उनके प्रति अटूट श्रृद्धा थी । बाबा बड़े ही शांत, सोम्य और दूरदर्शी स्वभाव के थे । सूर्य सा तेज उनके मुखमंडल पर हमेशा दीप्तिमान रहता था ।
जिनको बाबा के आशीर्वाद से लाभ होता वह दूसरों को बताते थे । इससे दिन प्रतिदिन उनकी गुफा पर लोगों की भीड़ बढ़ने लगी । जिससे उनकी साधना में विघ्न में पड़ने लगा । लोगों की समस्याओं का कोई अंत नहीं और फिर यदि कुछ ऐसा मिल जाये कि मस्तक नवाओं और समाधान पाओ, तो कौन चुकेगा । इसलिए बाबाजी ने नीचे वाली गुफा में अपने दो शिष्यों को बिठा दिया और स्वयं ऊपर की गुफा में जाकर साधना करने लगे ।
मौनी बाबा के शिष्य भी कोई साधारण चेले तो थे नहीं । उन्हें भी बाबाजी की कृपा से सिद्धियाँ प्राप्त थी । इसलिए अब वही लोगों को आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा कर देते थे । ज्यादातर लोग सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए आते थे । इसलिए उन्हें उपयुक्त आशीर्वाद दे दिया जाता और वह संतोषपूर्वक वापस लौट जाते थे ।
मौनी बाबा जिस राज्य में रहते थे, वहाँ का राजा निसंतान था । राजा स्वभाव से बड़ा ही दयालु, पराक्रमी और धर्मपरायण था । उस राज्य में सभी सुख और प्रेमपूर्वक रहते थे । राजा की तरह महारानी भी बड़ी ही धार्मिक स्वभाव की विदुषी थी । उन्हें दुःख था तो केवल इस बात का कि उनके कोई संतान नहीं है । संतान प्राप्ति के लिए राजा और महारानी ने विभिन्न ज्योतिषियों द्वारा बताये गये कई व्रत और उपवास किये, किन्तु आखिरकार उन्हें निराश ही होना पड़ा । संतानप्राप्ति की चिंता में राजा और महारानी नित्य निरंतर तिल – तिल जल रहे थे । तभी महारानी को किसी दासी ने मौनी बाबा के पास जाने को बोला ।
मौनी बाबा के चमत्कारों की कहानियाँ राजा और रानी दोनों ने सुन रखी थी । किन्तु वह इतने निराश हो चुके थे कि अब उनमें कहीं आने जाने की इच्छा ही नहीं थी । किन्तु महारानी कहाँ हार मानने वाली थी । रानी ने महाराज से मौनी बाबा के पास जाने की इच्छा व्यक्त की । पहले तो महाराज ने मना किया किन्तु फिर महारानी की बात रखने के लिए राजा ने फैसला किया कि मौनी बाबा को ही राजदरबार में बुला लिया जाये । जब यह बात रानी को पता चली तो उन्होंने महाराज के निर्णय का विरोध करते हुए कहा – “ महाराज ! याचक दाता के पास जाता है, न कि दाता याचक के पास आये ।” रानी की बात तर्कसंगत थी, अतः राजा मौनी बाबा के पास जाने के लिए सहमत हो गये।
राजा ने सेना सजाने के आदेश दिया । तब महारानी फिर बोली – “ महाराज ! हम वहाँ कोई युद्ध करने या अपना वैभव दिखाने नहीं जा रहे है ! बल्कि एक याचक कि भांति कुछ मांगने जा रहे है । अतः हमें एक याचक के वेश में ही वहाँ जाना चाहिए ।” राजा रानी की इस बात से भी सहमत हो गया ।
दुसरे ही दिन दोनों मौनी बाबा के तपस्थान की ओर चल दिए । विंध्यांचल में बसे उस तपस्थान का वातावरण बड़ा ही सुरम्य, शांत और मनोरम था । निकट ही झरनों का कल – कल और पक्षियों की चहचहाहट मधुर संगीत बिखेर रही थी । वहाँ दर्शनार्थी बाबा के शिष्यों से आशीर्वाद लेकर जा रहे थे । राजा और रानी दोनों ने बाबा के शिष्यों को प्रणाम किया और वहाँ बैठ गये । कुछ देर बाद रानी ने बाबा के दर्शनों की अभिलाषा व्यक्त की ।
अब तक बाबा के इन दोनों शिष्यों के अलावा ऊपर वाली गुफा ने कोई नहीं गया था लेकिन आज पता नहीं क्यों, बाबा के शिष्यों ने इन्हें नहीं रोका । राजा और रानी दोनों ने गुफा में प्रवेश कर गये । गुफा में बाबा के तप और शांति का अनुपम तेज बिखरा हुआ था । राजा ने इससे पहले ऐसा महान तपस्वी अब तक नहीं देखा था । रानी तो बाबा को देखते ही स्तब्ध रह गई । दोनों ने बाबा को दण्डवत प्रणाम किया । बाबा ने अपना दाहिना हाथ उठा दिया । उन्होंने सोचा शायद बाबा मौन तोड़ेंगे । लेकिन बाबा कुछ नहीं बोले । वह काफी देर वहाँ बैठे रहे, लेकिन बाबा ने तो मौन व्रत धारण कर रखा था ।
राजा तो प्रतिदिन वहाँ नहीं आ सकता था लेकिन उन्होंने रानी को मौनी बाबा के पास जाने की अनुमति दे दी । रानी प्रतिदिन बाबा की तपस्थली पर जाती थी और वहाँ आस – पास साफ सफाई करती थी । वह घंटो इस आस में बैठी रहती थी कि बाबा मौन तोड़ेंगे और मुझसे बात करेंगे । ऐसे ही दिन पर दिन बीतते गये और बरसात का मौसम आ गया । एक दिन खूब तेज बारिश हो रही थी । बिजली कड़की, बादल गरजे, आंधी और तूफान से भयावह वातावरण बना हुआ था । ऐसे में भी रानी अपने संकल्प से नहीं डिगी । वह पूरी तरह से भीग चुकी थी लेकिन फिर भी वह बाबा की गुफा के पास पहुँच गई । पहाड़ो पर फिसलने के कारण कई जगह चोट भी आई थी, जिनसे रक्त बह रहा था । एक बार तो वह एक गहरी खाई में गिरते – गिरते बची । इतना कष्ट होते हुए भी रानी की निष्ठा बाबा के प्रति बनी रही । कहते है “ इरादों के पक्के कभी नाकाम नहीं होते ।” यही रानी के साथ भी हुआ ।
रानी की ऐसी दयनीय दशा देख मौनी बाबा का ह्रदय करुणा से भर गया । उनका मौन टुटा और वह करुण स्वर में बोले – “ बेटी ! तू क्यों इतना कष्ट सह रही है, आखिर तुझे क्या चाहिए ? बोल बेटी ! क्यों तू इस संकटकाल में अपनी जान जोखिम में डालकर मेरी कुटिया तक आई है ? बोल तुझे क्या चाहिए ?”
पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ कि मौनी बाबा बोल उठे । वह ख़ुशी से बाबा की ओर दौड़ पड़ी और उनके चरणों में प्रणाम करते हुए बोली – “ बाबा ! मैं अभागिनी निसंतान हूँ, मुझे संतान चाहिए । आपके दर से कोई निराश नहीं जाता बाबा, मुझे भी पुत्रवती होने का आशीर्वाद दीजिये ।” बाबा तो करुणा के सागर थे । बोल दिए – “ जा तुझे पुत्र होगा ।” बाबा से वरदान पाकर रानी प्रसन्नतापूर्वक लौट आई ।
उसके बाद बाबा ने ध्यान में जाकर देखा तो पता चला कि महारानी के भाग्य में कोई संतान है ही नहीं । लेकिन मौनी बाबा तो आशीर्वाद दे चुके थे । उनका आशीर्वाद झूठा कैसे हो सकता है ! उसी क्षण उन्होंने निश्चय किया कि मैं स्वयं रानी की कोख में जन्म लूँगा । उन्होंने समाधी लगाई और प्राण त्याग दिए ।
दुसरे दिन जब महारानी बाबा के तपस्थान पर पहुँची तो बाबा का पार्थिव शरीर पड़ा था और दोनों शिष्य उनके अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहे थे । रानी दुखी होकर लौट आई ।
बाबा के आशीर्वाद के अनुसार कुछ दिनों बाद महारानी गर्भवती हो गई । राजमहल में चारों ओर खुशियों का माहोल छा गया और महाराज के नीरस जीवन में फिर से सरसता आ गई ।
यथासमय एक सुंदर राजकुमार ने जन्म लिया जो जन्म से ही मौन था । राजकुमार सभी तरह सुलक्षणों से युक्त था किन्तु वह कुछ भी बोलता नहीं था । राजा ने अनेको वैद्य और ज्योतिषियों को बताया लेकिन कोई भी राजकुमार से एक शब्द न कहला सके । वैसे राजकुमार के शरीर में ऐसी कोई कमी नही थी कि उन्हें गूंगा कहा जा सके । लेकिन फिर भी जब सभी प्रयास निरर्थक हो गये तो राजा ने घोषणा कर दी कि जो कोई भी राजकुमार को बोलवा देगा उसे आधा राज्य दिया जायेगा ।
मेधावी राजकुमार ने कुछ ही समय में सारी विद्याएँ सीख ली और सभी कलाएं सीख ली । एक दिन राजकुमार मंत्री के पुत्र के साथ आखेट खेलने के लिए जंगल में गया । हालाँकि राजकुमार को हिंसा बिलकुल भी पसंद नहीं लेकिन फिर भी वह मंत्री के पुत्र के साथ गया । उस दिन सिपाही दिनभर भटकते रहे लेकिन कोई शिकार नहीं मिला और शाम गई तो वापस लौटने लगे । तभी रास्ते में एक झाड़ी में से एक हिरण बोल पड़ा । सिपाही टूट पड़े और उसे मार दिया ।
हिरण की दयनीय दशा देख राजकुमार का ह्रदय करुणा से भर गया और वह बोल उठे – “ तू क्यों बोला ! आज तू नहीं बोलता तो बच जाता । देख मैं बोला तो दुबारा जन्म लेना पड़ा और तू बोला तो तुझे मृत्यु के मुंह में जाना पड़ा । हाय रे भाग्य ! बिना सोचे – विचारे बोलना भी कितना दुखमय हो सकता है ।”
जब राजकुमार खुद से ये बात कर रहा था तभी मंत्री का लड़का उसके पास ही खड़ा था । वह राजकुमार के बोलने से अचंभित था । उसने तुरंत राजमहल जाकर राजकुमार के बोलने वाली घटना महाराज को कह सुनाई । पहले तो राजा को विश्वास नहीं हुआ फिर उसने पूछा – “क्या सच में राजकुमार बोलता है ? राजा से झूठ बोलने की सजा तुम जानते हो ना ?”
मंत्री का लड़का बोला – “ आप खुद ही राजकुमार से पूछकर देख लीजिये, महाराज ! प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता !”
भरी सभा में राजकुमार को बुलाया गया । सभी को उत्साहित थे कि आज राजकुमार बोलेगा । लेकिन नहीं बोला तो मंत्री के पुत्र को फांसी की सजा होगी । राजकुमार आया और उसे बोलने के लिए कहा गया । लेकिन राजकुमार गूंगे की तरह ही खड़ा रहा । तब राजा को गुस्सा आया और उसने मंत्री के पुत्र को फांसी की सजा देने का आदेश दे दिया । राजा ने सोचा यह आधे राज्य के लोभ में आकर मुझे झूठ बोला है ।
जल्लाद आया और मंत्री पुत्र को फांसी होने ही वाली थी कि राजकुमार चिल्ला पड़ा – “छोड़ दो उसे ।” राजकुमार के ये शब्द सुनकर सभी के चेहरे खिल उठे ।
इसके बाद राजकुमार ने अपने पूर्वजन्म की बात बताई । राजकुमार बोला – “ राजन ! मैं विंध्यांचल के पर्वतो में रहने वाला वही मौनी बाबा हूँ, जिसके पास आप और महारानी पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर आये थे । रानी की श्रृद्धा और निष्ठा देखकर मेरा हृदय करुणा से भर गया और मैंने उसको पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया । किन्तु मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि रानी के भाग्य में कोई संतान नहीं थी । इसलिए अपने आशीर्वाद को पूरा करने के लिए मुझ स्वयं को रानी की कोख से जन्म लेना पड़ा । अब रानी भी निसंतान होने के दुःख से उबर गई है । अतः अब मैं पुनः अपनी तप साधना करने जा रहा हूँ ।” इतना कहकर राजकुमार वापस अपनी तपस्थली की ओर चल दिए ।
साधना की महिमा यदि समझना हो तो मौनी बाबा को समझ लें । जिन्होंने गायत्री साधना के लिए अपना सारा राज्य छोड़ दिया । जिन्होंने एक स्त्री की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए स्वयं को एक जन्म तक न्योछावर कर दिया । धन्य है वह संत और वह लोग जिन्हें ऐसे संत के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
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