होली पर्व विशेष

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली या होलिका नाम से मनाया जाता था, वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाये जाने के कारण इसे वसंतोत्सव भी कहा गया है, नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। 

 होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं, इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है भक्त प्रह्लाद की, माना जाता है प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था, अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था, उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। 

  हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था, प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा, हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। 

  हिरण्यकश्यपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे, आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया, ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है, प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है, वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है, और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

  प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है, कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। 

  कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था, इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था, होली के पर्व की तरह इसकी परंपरायें भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। 

  प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी, वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था, उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। 

  अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा, ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है, इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है, अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है, इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।

  होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है, इसे किसी सार्वजनिक स्थल या गली के आहाते में गाड़ा जाता है, इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है, होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं, पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है, इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। 

  कई स्थलों पर होलिका में जलाने के लिये गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं, जिनके बीच में छेद होता है, इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है, होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है, रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। 

  इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाये, लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का संध्या को विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है, घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है, दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है, इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। 

  होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है, यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है, गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं, होली से अगले दिन धूलिवंदन कहलाता है, इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं, सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं।

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