द्वारिका में ऋषि दुर्वासा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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    “हे कृष्ण ! तुम्हारी द्वारिका में हम चतुर्मास रहेंगे क्या हमारी सेवा करोगे ? “

 ऋषि दुर्वासा आज द्वारिका पधारे ...और द्वारिका में आते ही सीधे श्रीकृष्ण के महल में पहुँच गए थे। श्रीकृष्ण ने जब उनकी चरण वन्दना की तब उन्होंने ये प्रश्न किया था ।

हमारा सौभाग्य होगा ऋषि ! श्रीकृष्ण ने भी हाथ जोड़कर कहा ।

“चातुर्मास करेगा ये ऋषि”......ऋषि दुर्वासा इस बात को भी क्रोध में भरकर बोले थे ।

 चातुर्मास ही क्यों जब तक इस कृष्ण का शरीर रहेगा तब तक ये आपकी सेवा करता रहेगा ...आप सेवा का अवसर तो प्रदान करें .....विनम्रतापूर्वक श्रीकृष्ण ने कहा था ।

कृष्ण ! तुम जानते हो मैं कितना क्रोधी हूँ .....क्या तुम मेरी सेवा कर सकोगे ?

भगवन् ! क्रोध नही वो तो आपकी करुणा बरसती है ....पर लोग समझ नही पाते ।

कृष्ण ! अकेले तुम नही ...सपत्नीक मेरी सेवा करोगे .....रुक्मणी आगे आईं थीं और ऋषि के आगे उन्होंने अपना सिर झुका दिया था ।

ऋषि उछलते हुए श्रीकृष्ण के पर्यंक में जाकर सीधे लेट गए ।

मुझे राजसी वस्त्र पहनाया जाए .........सीधे बोलने लगे थे अब दुर्वासा ....श्रीकृष्ण ने तुरन्त धारण करवाया । इस तरह कभी भी ये कुछ भी कह देते ।

कभी अर्धरात्रि को ही उठकर बैठ जाते और कहते मेरे लिए छप्पन भोग लाओ ......

रुक्मणी लक्ष्मी की अवतार हैं इनके संकल्प मात्र से सब कुछ हो जाता है ।

वो कभी भी कुछ भी माँग सकते थे .......येसे येसे फल की माँग करते जो उस ऋतु में उपलब्ध ही नही होते ....किन्तु लक्ष्मी रूपा रुक्मणी के लिए ये असम्भव कहाँ था ।

सावधान होकर सेवा करनी थी इन ऋषि दुर्वासा की श्रीकृष्ण और रुक्मणी को ।

“हम आज रथ में चलेंगे”......दुर्वासा को पता नही आज क्या सूझी ।

आपके सामने रथ तैयार है भगवन् ! श्रीकृष्ण का रथ सामने खड़ा ही था ।

दुर्वासा रथ के पास गए और दूसरी आज्ञा दे डाली थी ......”रथ से अश्वों को हटाया जाए”.....

दुर्वासा की हर आज्ञा का पालन रुक्मणी या स्वयं श्रीकृष्ण को ही करना था ।

हटा दिए अश्व........कृष्ण ! अब तुम और स्वयं रुक्मणी अश्वों के स्थान में जुतो ।

ये क्या आज्ञा थी ? श्रीकृष्ण पुत्र प्रद्युम्न को क्रोध आया दुर्वासा के ऊपर ......किन्तु श्रीकृष्ण ने रोक दिया ।

हाँ , तुम राजाओं को भी तो पता चले कि बेचारे मूक अश्वों को कितना कष्ट होता है ।

लगो तुम दोनों रथ में ........और मेरे हाथों में चाबुक दो । दुर्वासा कठोर थे ही और कठोर बन कर बोले थे आज । 

वही किया .....रथ में ये अत्यन्त कोमल अंग वाले श्रीकृष्ण जुते, और दूसरी और कोमलांगी रुक्मणी ।

दुर्वासा रथ में बैठ गए थे ........और अट्टहास करते हुये बोले ....खींचो रथ को ....और श्रीकृष्ण और रुक्मणी रथ को खींच रहे हैं ।

इधर उधर रथ क्यो जा रहा है .....मारा चाबुक दुर्वासा ने .......रथ दौड़ रहा है .....अश्व के स्थान पर रुक्मणी कृष्ण हैं .....और मार्ग पर ये दोनों रथ को लेकर दौड़ रहे हैं .....द्वारिका वासी इस दृश्य को देखकर विकल हुए जा रहे हैं .....पीठ से रक्त बहने लगा था श्रीकृष्ण और रुक्मणी के ।  

ये अत्याचार है .....हमारे द्वारिकानाथ को इतना कष्ट देने वाला ये कौन है .......द्वारिका वासी कहते ....पर मन ही मन में ......एक श्राप दे दें दुर्वासा तो पूरा का पूरा वंश खत्म है ....इसलिए कोई बोल नही रहा ....दुर्वासा के क्रोध से पूरा विश्व जगत परिचित है ।

आप कुछ कहते क्यो नही .....ये अत्याचार है .....श्रीकृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने बलराम जी को कहा था ।

बलराम जी रथ के पास जैसे ही पहुँचे ..... दुर्वासा रथ से नीचे उतर गए ।

श्रीकृष्ण और रुक्मणी का कन्धा पूरा छिल गया था रक्त से , वस्त्र भींग गए थे ।

दुर्वासा ऋषि मुस्कुराए ....और श्रीकृष्ण के कन्धे में हाथ रखा .....रुक्मणी के मस्तक में हाथ रखा.....शिवांश हैं ऋषि दुर्वासा ...श्रीकृष्ण और रुक्मणी को दुर्वासा ऋषि के छूते ही सब ठीक हो गया था ।

मैं तुम दोनों से बहुत प्रसन्न हूँ .......तुम्हारी सेवा धन्य है .....किन्तु कृष्ण ! मेरी एक सेवा और करनी है अब तुम दोनों को ....किन्तु ये कठिन सेवा है , ऋषि ने कहा ।

आज्ञा भगवन् ! कृष्ण सदैव तत्पर है आपकी सेवा में ।

सहर्ष श्रीकृष्ण के साथ रुक्मणी ने भी अपना मस्तक झुका लिया था ।

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