manas mantra यदि श्रीराम जी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषय...
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यदि श्रीराम जी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥
ये सभी रोग प्रभु-कृपा से विनष्ट हो सकते हैं। हाँ, हरि कृपा से यदि ऐसा सुन्दर संयोग बन जावे तो, ईश-कृपा की प्राप्ति के लिये पहले श्री सद्गुरुदेव को अपना समर्थ वैद्य बनावे। उनके श्री वचनों पर अचल विश्वास रखे। पथ्य-सेवन यह है कि विषय-वासनाओं से दूर रहे।
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरे, चेत सकै तो चेत ॥
खेत एकदम खुला पड़ा हो, रखवाला कोई भी न हो । तब चिड़ियों ने बहुत कुछ उसे चुग लिया हो । अब भी समय है चेत सके तो अब भी चेत जा, जाग जा , जिससे कि आधा-परधा जो भी रह गया हो, वह तो बच जाय ।
समय के उलट फेर पर जब अपना वश है ही नहीं, तो विवशता से समझौता करके, अच्छे दिनों की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करके, परमात्मा से अपने गुरुदेव के माध्यम से प्रार्थना व प्रयासरत रहना ही अंत में सफलता का मार्ग प्रशस्त करता हैं। अपने गुरुदेव के माध्यम से, परमात्मा से प्रार्थना करते रहना ही मनुष्यों के हांथ में है।
सद्गुरु वचन वैद्य विश्वासा।
जैसे वैद्य के वचन पर विश्वास करके,रोगी उसकी बतायी गयी दवाई खाकर निरोग हो जाता है, वैसे ही सदगुरु द्वारा बताये गये मार्ग (उनके उपदेश) पर चलने से हम सांसारिक प्राणी समस्याओं से मुक्त हो जाते हैं। सद्गुरु के लिए भाव तो दृढ़ करना हमारे ही हाथ में है। ऐसा होने से हमें महाराज जी के मार्गदर्शन की अनुभूति होने लगेगी।
आप यदि विश्व के सबसे बड़े चिकित्सक को अपना चिकित्सक तो बना लें, किन्तु जब दवा करना हो तब आप अपने मन की ही दवा करें, तो क्या इससे रोग ठीक हो जाएगा ?
ठीक यही समस्या रावण के जीवन की हैं। रावण के मन में जब यह प्रश्न आया कि राम मनुष्य हैं अथवा ईश्वर।
उस समय उसे गुरु के पास जाकर यह संशय उनके समक्ष रखना चाहिए था, क्योंकि गुरु का वरण ही संशय को दूर करने के लिए किया जाता है । पर रावण सन्देह उत्पन्न होने के बाद शंकर जी के पास नहीं गया।
जब कि हनुमान जी रुद्रावतार है वह खुद रावण को समझा रहे हैं कि माता सीता जी को वापस करके राम प्रभु के शरण में चले जाओ कल्याण हो जायेगा —
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥
तुम श्री राम जी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है। उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो॥
लेकिन —
जाको प्रभु दारुण दुख देही।
ताकी मति पहले हर लेही।।
रावण से किसी ने पूछा कि तुम शंकर जी के पास क्यों नहीं जाते ? तो रावण ने कहा कि अब क्या दस सिर वाला, एक सिर वाले से ही पूछेगा ?
तो फिर तुमने गुरु क्यों बनाया ?
तो उसने कहा भई गुरु बनाना चाहिए इसलिए मैंने भी गुरु बना लिया।
कुछ लोग गुरु बनाने के लिए ही गुरु बनाते हैं कि बहुत-सी वस्तुओं के साथ गुरु भी होना चाहिए। और गुरु जितना प्रसिद्ध हो उतना ही बढ़िया हैं ऐसा मान कर गुरु बनाते हैं।
रावण ने गुरु का वरण किया पर शंकर जी के वचनों पर विश्वास नहीं किया, गुरु की दवा का सेवन नहीं किया, और उसके जीवन में निरन्तर कुपथ्य ही दिखाई दे रहे हैं। इसलिए रावण के जीवन में निरन्तर दोषों की वृद्धि होती गई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
इसलिए गोस्वामी जी विनय-पत्रिका के पद में कहते हैं कि —
"जस आमय भेषज न कीन्ह तस दोष कहा दिरमानी।"
जैसा रोग था, वैसी यदि दवा नहीं की गई तो फिर बेचारे वैद्य का क्या दोष ? वस्तुत: जब हमारे जीवन में साधन करते भी लाभ न मिल रहा हो, तो हमें साधनों को मिथ्या मानने की आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले हमें यह पता लगाना चाहिए कि हमने सही मार्ग का, सही साधन का चुनाव किया है कि नहीं। तथा साधन के लिए जो बातें होनी चाहिए उनका हम ठीक-ठीक पालन कर रहे हैं कि नहीं। अगर दोनों बातों का ध्यान हम रख रहे हैं तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि व्यक्ति को साधना के बाद सफलता न मिले ।
इन सन्दर्भ में वह व्यंग्यात्मक कथा आपने अवश्य सुनी होगी —
एक व्यक्ति ने सोचा कि रात्रि में नौका चलाकर यात्रा करेंगे तो बड़ा आराम रहेगा क्योंकि उस समय धूप नहीं रहेगी इसलिए शीतलता तथा शांति में यात्रा होगी। बेचारा रात्रि में नाव पर बैठा और रातभर नाव खेता रहा । सुबह हुई तो उजाले में देखा कि रात्रि को जहाँ से चले थे वहीं पर हैं।
बड़ा आश्चर्य हुआ उसे, उसने सोचा कि मैंने इतने घण्टे नाव खेई, मुझे तो काफी दूर पर होना चाहिए था, परन्तु यह क्या हुआ ? तो किसी बुद्धिमान व्यक्ति ने बताया कि भलेमानुष ! तुम नाव तो खेते रहे पर लंगर तो हटाया ही नही। इस तरह तो अगर जिन्दगी भर भी नाव खेते रहो फिर भी जहाँ-के-तहाँ ही रहोगे। ठीक यही बात साधन के सम्बन्ध में भी है।
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
जब बुरे दिन आए हों तो चुप ही बैठना चाहिए, क्योंकि जब अच्छे दिन आते हैं तब बात बनते देर नहीं लगती।
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