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सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥ जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥

  हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह ग्र...

  हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है॥

केवल इतना ही मत देखिए, इसके आगे की एक चौपाई और देखते तो इसका अर्थ समझ सकते हैं -

ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।

चेतन अमल सहज सुख रासी।।

  यानी ईश्वर का अँश ये जीव अविनाशी है । चेतन है । अमल यानी मलरहित है । और सहज ही सुखों का भण्डार इसके पास है ।

  मेरे भाई ईश्वर न तो दूर है और न अत्यंत दुर्लभ ही है, बोध स्वरूप एकरस अपना आत्मा ही परमेश्वर है, नाम और रूप विभिन्न दिखते हैं, मगर वह अनामी, अरूप एक ही है, ईश्वर का और हमारा संबंध अमिट है, जीव ईश्वर का अविनाशी अंश है, जैसे आकाश व्यापक है ऐसे ही परमात्मा व्यापक है, जो चैतन्य परमात्मा सगुण-साकार में है, वही आपकी और हमारी की देह में है।

  वह नित्य परमेश्वर अपने से रत्ती भर भी दूर नहीं है क्योंकि वह व्यापक है, सर्वत्र है, सदा है, सज्जनों! आपने वो घटना सुनी होगी, स्वामी राम कृष्ण परमहंसजी के पास एक युवक आया, गुरूदेव मुझे भगवद् दर्शन करना है, आप करवा सकते हो? बोले क्यो नहीं? परमहंसजी उसको गंगा स्नान कराने ले गये, जैसे ही गंगा में डुबकी लगाई तो परमहंसजी उसकी पीठ पर बैठ गये, वो अकुलाने लगा।

  पूरे प्राणों की ताकत लगा कर जैसे-तैसे ऊपर निकला, युवक ने पूछा गुरूजी मारने लाये थे या भगवानभगवान् के दर्शन कराने? परमहंसजी बड़ी जोर से मुस्कराये, अच्छा एक बात बता! जब तुम डूब रहे थे और मैं तुम्हारी पीठ पर था तो तुम्हे क्या याद आ रहा था? भगवान याद आ रहा था? बोला नही, परिवार याद आ रहा था? बोला नही? और कोई? बोला कुछ नही केवल इतनी चिन्ता थी कि सिर्फ एक साँस मिल जाये तो प्राण बच जायें।

  परमहंसजी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा बेटा जिस दिन इतनी व्याकुलता, इतनी बेचैनी बढ़ जायेगी कि बस कैसे परमात्मा मिलें तो प्राण बच जायें, जब तक प्राण दाँव पर नही लगाओगे तो परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होगा, हम जगत की वस्तुओं के लिये अपने प्राण दाँव पर लगाते हैं, पर परमात्मा को हम सुविधा से पाना चाहते हैं, परमात्मा सुविधा से नही मिलता, मीराजी ने कहा है कि मेरा ठाकुर सरल तो है पर सस्ता नही, किसी ने पूछा कि तुमने कितने भाव खरीदा? बोली प्राणों के मोल खरीदा।

  जब तक प्राणों का मोल नहीं लगाओगे तब तक परमात्मा का अनुभव नही होगा, इसलिये अगर अनुभव करना है तो पूर्ण व्याकुलता से करो और जिस दिन हमारी व्याकुलता बढ़ जायेगी उसी दिन प्रभु का दर्शन हो जायेगा, हम दुनियादारी के लिए बहुत व्याकुल रहते हैं, और आयु निकली जा रही है, जीवन में क्या कभी हमें प्रभु के लिये बेचैनी, व्याकुलता ने पीड़ित किया है या रूलाया है? कभी प्रभु के लिये घबराहट पैदा हुई या रात्रि को जागकर बैठे ?

  ये व्याकुलता जब तक नहीं होती तब तक कृपा नहीं होती, वो भी सोता रहता हैं, "शान्ताकारं भुजग शयनं" जब बालक भी रोता है माँ तब जागती है, सज्जनों! नारदजी की घटना आपने सुनी होगी, नारदजी एक बार रास्ते से जा रहे थे, एक पेड़ के नीचे एक तपस्वी तपस्या कर रहे थे, थोड़ी सी दूरी पर देखा तो एक और युवक बैठा था इमली के वृक्ष के नीचे, नारदजी दोनों के पास गये, दोनों से पूछा कि मैं भगवान् के पास जा रहा हूं, बोलो तुमको कुछ कहना है क्या?

  पहले वृद्ध तपस्वी ने कहा कि भगवान् से कृपया इतना पूछ लीजिये कि मुझे कब साक्षात्कार होगा? कितने दिन और मुझे इस तपस्या में बैठना पड़ेगा? अब नारदजी ने युवक से पूछा कि भगवान् को कुछ कहना सुनना हो तो बोलो? युवक बोला कि हम तो भगवान् के नाम में डूबे है कहना क्या है? नारदजी ने कहा फिर भी कुछ कहना हो तो बताओ? युवक ने भी यही कहा कि पूछ लेना ठाकुर कब कृपा करने आयेंगे?

  नारदजी पहुँचे भगवान् के पास, दोनों का संदेश नारदजी ने भगवान को दिया, बूढ़े तपस्वी के लिये भगवान ने कहा कि दस जन्म अभी इस वृद्ध को और लेने पड़ेंगे, और ये जो दुसरा युवक है उसको जाकर बताइये कि इमली के वृक्ष पर जितने पत्ते हैं, इतने जन्म जब लोगे तब तुम को हमारा साक्षात्कार होगा, नारदजी आ गये और वृद्ध के पास पहुँचे, उनको भगवान का उत्तर बताया कि अभी दस जन्म और ऐसे ही साधना करोगे तब जाकर प्रभु कृपा होगी।

  तपस्वी तो लाल-पिला हो गया, कण्ठी तोड़ दी, हाथ की माला फेंक दी, बोले हद हो गयी. इतना अन्याय जगतपिता के यहाँ? मैं तपस्या करते-करते वृद्ध हो गया हूँ, दस जन्मों तक कौन प्रतीक्षा करेगा? भाड़ में जाने दो, पैर पछाड़ता हुआ छोड़कर चला गया, अब नारदजी उस युवक के पास पहुँचे, नारदजी ने उसे भी प्रभु का संदेश सुनाया कि जितने इस इमली के पेड़ पर पत्ते हैं उतने जन्मों तक जब तक तू ऐसे ही मेरा भजन करेगा तब कृपा होगी।

  इतना सुनकर वो युवक तो नाचने लगा, ओह! कम से कम मुझे दर्शन की गारंटी तो हो गई, इतना भावविभोर होकर नाचने लगा कि उसी समय भगवान् तुरन्त प्रकट हो गये, नारदजी तो एकदम आश्चर्य चकित रह गये, प्रभु! आपने तो कुछ और कहा था, मुझे तो आपने झूठा साबित कर दिया, भगवान् ने कहा नारद! इतने जन्मों के बाद इसकी जो अवस्था आने वाली थी वो आज ही आ गयी, अब हम क्या करते प्रकट तो होना ही पड़ा, हम तो अवस्था देखते हैं व्यवस्था से प्रकट नही होते।

लेकिन तभी आगे की लाइन बेहद डरा देती है ।

सो मायाबस भयउ गोसाईं ।

बंध्यो कीर मरकट की नाई ।।

अपने ही बनाये खेल के मायावश होकर —

मैं और मोर तोर ते माया।

जेहि बस कीन्हें जीव निकाया।।

 ये बन्दर तोते आदि की तरह अपने ही कर्मजाल जाल में फ़ँस गया । 

तब क्या हुआ ।

जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई ।

जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।

  इस पूर्ण चेतन में जङ शरीर और जङ पदार्थों से आसक्ति के कारण ग्रंथि यानी गाँठ पङ गयी । यधपि ये गाँठ मिथ्या है । फ़िर भी बहुत कठिनाई से छूटती है । और फ़िर आगे इसी को सत्य मान बैठा ।

तब ते जीव भयउ संसारी ।

छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ।।

  यानी ये स्व बृह्म स्थिति से संसारी जीव हो गया । और अब न वह गाँठ खुल पाती है । और न ये सुखी हो पा रहा है ।

  अहम भाव जागृत होने से हुआ । तब उस स्थिति का पहला शब्द " सोहम " था । इसी सोहम से मन का निर्माण हुआ है । मन यानी माना हुआ । सोहम का सीधा सा अर्थ है । सो - हम । यानी - वही मैं हूँ । फ़िर ये उसी अहम भाव से मन के द्वारा विभिन्न खेल खेलता गया । और खेल में इस कदर लवलीन हुआ कि " सोहम " यानी वही - मैं हूँ । ये बात भी भूल गया । और कृमशः शक्तिहीनता को प्राप्त हुआ । इसलिये पहली पंक्ति जहाँ हर्ष सुख प्रदान करती है

धर्मस्य दुर्लभो ज्ञाता, सम्यग् वक्ता ततोऽपि च।

श्रोता ततोऽपि श्रद्धावान्, कर्ता कोऽपि ततः सुधीः ।।

  धर्म को जानने वाला दुर्लभ होता है, उसे श्रेष्ठ तरीक़े से बताने वाला उससे भी दुर्लभ, श्रद्धा से सुनने वाला उससे दुर्लभ, और धर्म का आचरण करने वाला सुबुद्धिमान् सबसे दुर्लभ है, भगवान् व्यवस्था नहीं जीवन की अवस्था देखते हैं, वो व्याकुलता देखते हैं, भगवान् के लिये तड़प चाहिये।

 कबीर जी कहते हैं कि —

तड़पे बिनु बालम मोर जिया।

 कबीरजी की बाणी सुनने में भले ही अटपटी लगती है लेकिन बड़ा गहरा अध्यात्म भरा है उनकी वाणी में!

  आप अपने धर्म को समझ सके हैं - धर्म का शाब्दिक अर्थ धारण करना है । आप जो भी मन के द्वारा विचार आवरण धारण कर लेते हो । उसी को धर्म मानने लगते हो । यह देह धर्म कहलाता है । यह देही अवस्था रहने तक रहता है । और उसी के साथ समाप्त हो जाता है । पर आत्मा अनादि और सनातन है । अतः उसका धर्म भी सनातन है । यानी जो कभी बदलता नहीं । सदा एक सा ही रहता है । और सनातन धर्म की परिभाषा ही यह है कि - मैं न मन हूँ । न शरीर हूँ । बल्कि मैं शुद्ध चैतन्य अविनाशी आत्मा हूँ । इसको जानकर सब जाना हुआ ही हो जाता है । क्योंकि सबका मूल यही है ।

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भागवत दर्शन: सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥ जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥ जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥
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