ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद। सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  जो समस्त ब्रह्मांड में एक समान रूप से व्याप्त है, निर्गुण है, निरंजन है, निराकार है, वही परम पुरुष परमात्मा कोशल्या के प्रेम और भक्ति के वश में हो कर उसकी गोद में आ कर खेल रहे हैं। प्रेम होने पर प्रेमी के प्रति प्रेमी की प्रसन्नता के लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भक्ति है। अर्थात् , मान लो हमें जिससे प्रेम हो जाता है । प्रेम की अभिव्यक्ति ही भक्ति है।

 प्रेमभाव होने पर प्रेमी की प्रसन्नता के लिए किया हुआ कर्म भक्ति है. जिसे संसार से प्रेम हो जाता है वह संसार के लिए जो भी कर्म करता है वह संसार की भक्ति है. जिसे गुरु से प्रेम हो जाता है वह गुरु की प्रसन्नता के लिए जो भी कर्म करता है वह गुरु भक्ति है. जिसे श्रीराम से प्रेम हो जाता है वह श्री राम की प्रसन्नता के लिए जो भी कर्म करता है वही भक्ति है।

सीता लखन समेत प्रभु, सोहत तुलसीदास ।

हरषत सुर बरषत सुमन, सगुन सुमंगल बास ।।

  तुलसीदास कहते है, श्री सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु रामचंद्र शोभा दे रहे है और देवतागण आनंद से पुष्पवृष्टि कर रहे है। भगवान का यह सगुन स्वरुप सुमंगल एवं परमकल्याणकारी है।

  हिन्दू धर्म शास्त्रो में ईश्वर को जानने, पहचानने और उनसे प्रेम के दो मार्गो का अति सुदंर विवरण है।

  प्रथम है - निर्गुण। यह वह मार्ग है जिसमे ईश्वर के निराकार (जिसका कोई आकार, रूप,रंग न हो) रूप का ध्यान किया जाता है। इसे शास्त्रों में परम् ब्रह्म कहा गया है।

 दूसरा है- सगुण रूप। जब परम् ब्रह्म ईश्वर अपने भक्तो के प्रेमवश मनुष्य रूप में इस धरती पर अवतरित हुए तो उनके उस रूप की भक्ति सगुण मार्ग है। इसमें भक्त अपने भगवान को अपने परम् प्रिय की तरह मनाता , पूजता है। उनकी मूर्ति को ही अपने प्रेम से सजीव कर देता है।

  तुलसी दास जी कहते है कि निर्गुण और सगुण दोनों एक ही है क्योकि दोनों ही अपने ईश्वर के दर्शन हेतु तत्पर है। और फिर परमब्रह्म श्री राम जी का तो नाम ही हृदय को भगति प्रकाश से भर देता है।

हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन रसना राम सुनाम।

मनहुं पुरट संपुट लसत तुलसी ललित ललाम।।

  यहां तुलसीदासजी कहते हैं कि ह्रदय में निर्गुण ब्रह्मा का ध्यान, नेत्रों के सम्मुख सगुण स्वरुप की सुंदर झांकी और जीभ से प्रभु का सुंदर राम-नाम का जप करना। यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो। 'राम' नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान दोनों से बड़ा है। नाम की इसी महिमा को ध्यान में रखकर यहां नाम को रत्न कहा गया है तथा निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान को उस अमूल्य रत्न को सुरक्षित रखने के लिए सोने का संपुट (डिबिया के निचे-ऊपर के भाग को) बताया गया है।

सगुन ध्यान रूचि सरस नहिं जिर्गुन मन ते दुरि।

तुलसी सुमिरहु रामको नाम सजीवन मूरि।।

  तुलसीदासजी कहते हैं कि सगुण रूप के ध्यान में तो प्रीतियुक्त रूचि नहीं है और निर्गुण स्वरूप मन से दूर है। ऐसी स्थिति में रामनाम स्मरणरूपी संजीवनी बूटी का सदा सेवन करो।

ग्यान कहै अग्यान बिनु तम बिनु कहै प्रकास ।

निरगुन कहै जो सुगन बिनु सो गुरु तुलसीदास।।

  जो अज्ञान का कथन किए बिना ज्ञान का प्रवचन करे, अंधकार का ज्ञान कराए बिना ही प्रकाश का स्वरूप बतला दे और सगुण को समझाए बिना ही निर्गुण का निरूपण कर दे, वह मेरा गुरु है कहने का तात्पर्य यह है कि अज्ञान के बिना ज्ञान, अंधकार के बिना प्रकाश और सगुण के बिना निर्गुण की सिद्धि नहीं हो सकती, निर्गुण कहते ही सगुण की सिद्धि हो जाती है।

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा।

गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

अगुन अरूप अलख अज जोई।

भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥

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