शिव तांडव स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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नटराज शिव तांडव नृत्य करते हुए
नटराज शिव तांडव नृत्य करते हुए 


 ॥ शिव तांडव स्तोत्र ॥

जटाटवी गलज्जलप्रवाहपावितस्थले 

गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं 

          चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥१॥

  जिनशिव की सघन वन रुपी जटा से प्रवाहित होकर गंगाजी की धाराए उनके कंठ को प्रक्षालित होती है। जिनके गले में बड़े एवम लंबे सर्पो की मालाए लटक रही है। तथा जो शिव डम-डम डमरू बजा रहे है, और डमरू बजाकर प्रचंड तांडव करते है, वे शिवजी हमारा कल्याण करे।

जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी 

विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके 

         किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥

  जिन शिवजी की जटाओ में अति वेग से विलास पूर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शीश पर लहरा रही है। जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धुधक-धुधक कर प्रज्वल्लित हो रही है, उन बाल चन्द्रमा विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर 

स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।

कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि 

        क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥

  जो पर्वत राज की पुत्री पार्वती जी के विलास में रमणीय कटाक्ष में परम आनंदचित्त रहते है। जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि तथा प्रणिगण वास करते है तथा जिनकी भक्ति मात्र से भक्तजन की समस्त विपत्तिया दूर हो जाती है, ऐसे दिगम्बर(आकाश को वस्त्र सामान धारण करनेवाले) शिवजी मेरी आराधना से मेरा चित सर्वदा आनंदित रहे। 

जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा 

कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्वधूमुखे।

मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे 

        मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥

  मैं उन शिवजी की भक्ति में आनंदित रहु, जो सभी प्राणिओ के आधार एवं रक्षक है। जिनकी जटाओ में लिपटे सर्पो की फन की माणिओ का पिले वन प्रभा समूह रूप केसर प्रकाश सभी दिशाओ को प्रकाशित करता है। और जो गज चर्म से विभूषित है। 

सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर 

प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।

भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः 

        श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥

  जिन शिवजी के चरण इंद्र आदि देवताओ के मस्तक के फूलो की धुल से वंचित है जिनकी जटा पर लाल सर्प बिराजमान है। वो चंद्रशेखर चिरकाल के लिए हमे संपदा दे।

ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंगभा 

निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्‌।

सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं 

          महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥

  जिन शिवजी ने इंद्र आदि देवताओ का गर्व दहन करते हुवे, कामदेव को अपने विशाल मस्तक के अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया था। तथा जो सभी देवो के द्वारा पूज्य है। तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा शुशोभित है। वे देव हमे सिद्धि प्रदान करे।

करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल 

द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।

धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक

           प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥

  जिनके मस्तक से निकली प्रचण्डज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया। तथा जो शिव पार्वतीजी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करनेमे अति चतुर है( यहाँ पर पारवती प्रकृति है तथा चित्रकारी सर्जन है।) उन शिवमे मेरी प्रीति अटल हो। 

नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर

त्कुहूनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।

निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः 

        कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥

  जिनका कंठ नविन मेघो की घटाओ से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि की समान काला है, जो गजचर्म गंगा एवं बालचर्म द्वारा शोभायमान है। और जो जगतका बोज धारण करनेवाले है वे शिवजी हमे सभी प्रकार की सम्पन्नताए प्रदान करे।  

प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा 

वलम्वि कंठकंदली रुचि प्रबंधकंधरम्‌।

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं 

          गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥

  जिनका कंठ और गला पूर्ण कमल की निलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से बिभूषित है जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक है संसार के दुखो को दूर करने वाले दक्ष यज्ञ के विनाशक गजासुर अवं अंतकासुर के संहारक है तथा जो मृत्यु को वश में करनेवाले है। उनशिवजी को में भजता हु।

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी 

रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।

स्मरांतकं पुरांंतकं भवान्तकं मखांतकं 

          गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥

  अर्थात् जो कल्याण में अविनाशी, समस्त कलाओ के रस का आस्वादन करने वाले जो कामदेव को भस्म करनेवाले त्रिपुरासुर, गजासुर, अंधकासुर के संहारक, दक्ष यज्ञ के विंध्वस्तक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यम स्वरुप है। उन शिवजी की में वंदना करता हु।

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमश्वसद् 

द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभाल हव्यवाट्।

धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगल

             ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥

  अर्थात् अत्यंग्वेग से भ्रमण कर रहे सर्पो के फुक्कार से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि के मध्य के म्रदंग के मंगलकारी उच्च धीम धीम के धवनि के साथ तांडव नृत्य में लीन शिवजी सभी प्रकार से शुशोभित हो रहे है।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजो

र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः 

             समप्रवृत्तिकः  कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥१२॥

 अर्थात् कठोर पत्थर एवं कोमल शैया सर्प एवं मोतिओं की मालाओ बहुमूल्य रत्नो, मिटटी के टुकड़ो, शत्रु एवं मित्रो, प्रजाओं तथा प्रचाओ, तिनको तथा कमलो पर समान दृष्टि रखने वाले शिव को में भजता हु।

कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌ 

विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।

विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः 

           शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥

  अर्थात् कब में गंगाजी के कछर्भुज में निवास करता हुआ निष्कपट हो, सर पर अंजलि धारण कर चंचल नेत्र तथा ललाटवाले शिवजी का मंत्रोच्चार करते हुवे अक्षयसुख को प्राप्त करूँगा।  

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका 

निगुम्फनिर्भक्षरन्म ध्रुष्णीकामनोहर:।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीमहर्निशं 

           परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषा च य: ॥१४॥

  देवांगनाओं के सिर में गुथे पुष्पों की मालाओ के जड़ते हुवे सुगंध में पराग से मनोहर परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगो सुन्दरताई परमानंद युक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सदा पढ़ाती रहे।

प्रचण्ड वाडवानल  प्रभाशुभप्रचारणी 

महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।

विमुक्त वामलोचनो विवाहकालिकध्वनि:

           शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥

  प्रचन्ड वाडवानल की भाति पापो को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादि अष्ट महासिद्धिओ तथा चंचल नेत्रों वाली देव कन्याओ से शिव विवाह समय में गान की गई मंगल ध्वनि, सब मंत्रो में परम श्रेष्ठ शिव मंत्र से मोहित सांसारिक दुखो को नष्ट करके विजय पाए।

इमं हि नित्यमेवमुक्तमुक्तमोत्तमस्तवं 

पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं 

          विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥

  इस उत्तमोत्तम शिव तांडव स्रोत को नित्य पढ़ने या सुनने मात्र से प्राणी पवित्र होकर परम गुरु शिव में स्थापित हो जाता है। तथा सभी प्रकार के भ्रमो से मुक्त हो जाता है।

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं 

यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।

तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां

               लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥ १७ ॥

 अर्थात् प्रातः काल शिव पूजन के अंत में शिव तांडव स्त्रोत के गान से लक्ष्मीजी सदा स्थिर रहती है। तथा भक्त रथ, गज, घोडा, आदि से संपदा से सर्वथा युक्त रहते है।

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