जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ। मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

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  जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन...

  जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।

  प्रायः लोग पूछा करते हैं कि क्या भगवत्प्रप्ति इसी जन्म में हो सकती है? ऐसा एक ही जन्म में हो सकता है या अनेक जन्मों में, इसका कोई नियम नहीं है, किन्तु जभी भगवान के प्रति प्रेम का गाढ़ उदय हो जाता है, भगवान तभी मिल जाते हैं-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना।

प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।।

  अनेक जन्मों तक भी यदि प्रेम का संचार न हो, तो भगवान नहीं प्राप्त होते, प्रेम प्रकट हो जाने पर भगवान एक ही जन्म में मिल जाते हैं। जिस समय भक्त भगवान से मिलने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वाध्याय, ध्यान आदि को प्राप्त होता है, उस समय भगवान को अवश्य प्रकट होना पड़ता है। आप्तकाम, पूर्णकाम, आत्माराम, परम निष्काम भगवान परम स्वतन्त्र हैं, तथामि भक्त प्रेम में पराधीन होना उनका एक स्वभाव है। अनुभवी लोगों ने कहा है —

अहो चित्रमहो चित्रं वन्दे तत्प्रेमबन्धनम्‌।

यद्बद्धं मुक्तिदं ब्रह्म क्रीडामृगीकृतम्‌।।

  अहो, कोई निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्म को, कोई सगुण-साकार ब्रह्म को भजते हैं, परन्तु मैं तो उस प्रेमबन्धन को भजता हूँ, जिससे बँधकर अनन्त प्राणियों को मुक्ति देने वाला, स्वयं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रह्म भक्तों का खिलौना बन जाता है। जिस समय भक्त भगवान के बिना न रह सके, उस समय भगवान भी भक्त के बिना नहीं रह सकते। 

  जैसे पंखरहित पतंग-शावक अपनी माँ को पाने के लिए व्याकुल रहते हैं, जैसे क्षुधार्त्त वत्सतर (छोटे गोवत्स) माँ का दूध चाहते हैं।

 जिस प्रकार से परदेश गये हुए प्रियतम से मिलने के लिए प्रेयसी विषण्ण होती है।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ।।

  यदि कोई मुझे भक्तिपूर्वक एक पत्ता, एक फूल, एक फल, या यहाँ तक कि पानी भी अर्पित करता है, तो मैं शुद्ध चेतना में मेरे भक्त द्वारा प्रेम से अर्पित की गई उस वस्तु को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता हूँ।

  श्रीकृष्ण भगवान के दयालु दिव्य स्वरूप को प्रकट करते हैं। उसे हमारी पेशकश के भौतिक मूल्य से कोई सरोकार नहीं है। बल्कि, वह हर चीज़ से ऊपर उस प्रेम को महत्व देता है जिसके साथ हम भेंट चढ़ाते हैं। इस प्रकार, हरि भक्ति विलास में कहा गया है —

तुलसी-दल-मात्रेण जलस्य चुलूकेण च ।

विक्रिणिते स्वं आत्मानं भक्तेभ्यो भक्त-वत्सलः।।

  यदि आप सच्चे प्रेम से भगवान को केवल एक तुलसी का पत्ता और अपनी हथेली में जितना हो सके उतना जल अर्पित करेंगे, तो वह बदले में स्वयं को आपको अर्पित कर देंगे क्योंकि वह प्रेम से प्रिय हैं।" यह कितना अद्भुत है कि असीमित ब्रह्मांडों के परम स्वामी, जिनके गौरवशाली गुण और विशेषताएं वर्णन से परे अद्भुत हैं, और जिनके विचार मात्र से कई ब्रह्मांड अस्तित्व में आते हैं और फिर से गायब हो जाते हैं, अपने भक्त की सबसे विनम्र पेशकश को भी स्वीकार करते हैं। सच्चा प्यार. यहाँ प्रयुक्त शब्द प्रयतात्मनः है , जिसका अर्थ है, "मैं उन लोगों का प्रसाद स्वीकार करता हूँ जिनका हृदय शुद्ध है।"

  श्रीमद्भागवत में भगवद गीता के उपरोक्त श्लोक के समान ही श्लोक है। अपने मित्र सुदामा के घर सूखे चावल खाते समय श्री कृष्ण ने कहा —

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतम् अश्नामि प्रयतात्मनः ।।

  यदि कोई मुझे भक्तिभाव से एक पत्ता, एक फूल, एक फल या यहाँ तक कि जल भी अर्पित करता है, तो मैं शुद्ध चेतना वाले मेरे भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पित की गई उस वस्तु को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता हूँ।"

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥

  जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ, जब अहंकार (अहम) समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले , जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ, तब अहंकार स्वत: ही नष्ट हो गया , ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ , प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता, प्रेम की संकरी (पतली) गली में केवल एक ही समा सकता है - अहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है।

  महाभारत युद्ध से पहले, जब श्री कृष्ण कौरवों और पांडवों के बीच एक समझौते की संभावना तलाशने के लिए हस्तिनापुर गए थे, तो दुष्ट दुर्योधन ने गर्व से उनके लिए छप्पन विभिन्न वस्तुओं के साथ भोजन तैयार किया था। हालाँकि, श्री कृष्ण ने उनके आतिथ्य को अस्वीकार कर दिया और इसके बजाय विदुरानी की विनम्र कुटिया में चले गए, जो अपने प्रिय भगवान की सेवा करने के अवसर के लिए गहराई से तरस रही थी। भगवान को अपने घर पाकर विदुरानी बहुत प्रसन्न हुईं। उसे केवल केले ही चढ़ाने थे, लेकिन उसकी बुद्धि प्रेमपूर्ण भावनाओं से इतनी स्तब्ध थी कि उसे यह भी एहसास नहीं हुआ कि वह फल गिरा रही थी और केले के छिलके उनके मुँह में डाल रही थी। फिर भी, उनकी भक्ति देखकर, श्री कृष्ण ने आनंदपूर्वक छिलके खाये, जैसे कि वे दुनिया का सबसे स्वादिष्ट भोजन हों।

  ईश्वर किसी वस्तु या रूप पैसे के भूखे नहीं होते बल्कि सच्चे प्रेम, भाव के भूखे होते हैं। जो अच्छी श्रद्धा भाव प्रेम से ईश्वर को याद करते हैं ईश्वर उनके साथ होते हैं। रामचरितमानस महाकाव्य के "शबरी के झूठे बेर" वाले प्रसंग को हम सभी जानते हैं जिसमें श्री राम ने शबरी के चखे हुए झूठे बेर खाए थे।

  ईश्वर को खोजने के लिए माईक अर्थात लाउडस्पीकर की जरूरत नहीं है।

  आज कल अजीब दिखावा पन है एक जगह राम चरित मानस पाठ ठेका पद्धति से हो रहा था, वहां हमने देखा कि मानस का पाठ करने वाले संज्जन सबसे पहले साउंड सिस्टम का मुंह अपनी तरफ़ करवा लिए, फिर माइक स्टैंड से निकाल कर अपने हाथ में लेकर मुंह के सामने लगाकर मानस का पाठ करने लगे ।

  शायद उनको लगा होगा कि प्रभु को हमारी आवाज कम सुनाई पड़ती होगी, या भगवान ही बहरे हो गये होंगे।

  जैसा भी हो भगवान सुनें कि नहीं यह तो हमें नहीं मालूम, लेकिन एक भी चौपाई हमारे समझ में नहीं आयी।

कबीर जी कहते हैं कि —

"चींटी के पग नूपुर बाजे"

  एक चींटी कितनी छोटी होती है, अगर उसके पैरों में भी घुंघरू बाँध दे तो उसकी आवाज को भी भगवान सुनते है। यदि आपको लगता है, कि आपकी पुकार भगवान नहीं सुन रहे तो ये आपका वहम है या फिर आपने भगवान के स्वभाव को नहीं जाना।

  कभी प्रेम से उनको पुकारो तो सही, कभी उनकी याद में आंसू गिराओ तो सही। फिर एहसास होगा कि केवल भगवान ही है जो बात को सुनते है।

एक छोटी सी कथा संत बताते है —

  एक भगवान के भक्त हुए , उन्होंने 20 साल तक लगातार पाठ किया। अंत में भगवान ने उनकी परीक्षा लेते हुए कहा, अरे भक्त! तू सोचता है की मैं तेरे पाठ से खुश हूँ, तो ये तेरा वहम है।

  मैं तेरे पाठ से बिलकुल भी प्रसन्न नही हुआ। जैसे ही भक्त ने सुना तो वो नाचने लगा, और झूमने लगा।

  भगवान ने बोला, अरे! मैंने कहा कि मैं तेरे पाठ करने से खुश नही हूँ और तू नाच रहा है।

  वो भक्त बोला, भगवन आप खुश हो या नहीं हो ये बात मैं नही जानता।

  लेकिन मैं तो इसलिए खुश हूँ, कि आपने मेरा पाठ कम से कम सुना तो सही, इसलिए मैं नाच रहा हूँ। ये होता है भाव। थोड़ा सोचिये,विचार कीजिए —

  जब भी भगवान को याद करो उनका नाम जप करो तो ये मत सोचना कि भगवान आपकी पुकार सुनते होंगे या नहीं ? कोई संदेह मत करना, बस ह्रदय से उनको पुकारना, तुम्हे खुद लगेगा कि हाँ, भगवान आपकी पुकार को सुन रहे है। और आपको इसका अहसास भी होने लगेगा।

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भागवत दर्शन: जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ। मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
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