"एकदासुरराट् पुत्रमङ्कंमारोप्य पाण्डव। पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भवान्।।" एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को...
"एकदासुरराट् पुत्रमङ्कंमारोप्य पाण्डव।
पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भवान्।।"
एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेम से गोद में लेकर पूछा- ‘बेटा! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है?'
प्रह्लाद जी ने कहा -
"तत्साधुमन्येऽसुरवर्य देहिनां,
सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात्।।
हित्वाऽऽत्मपातमं गृहमन्धकूपं,
वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत्।।"
"पिताजी! संसार के प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रह में पड़कर सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अधःपतन के मूल कारण, घास से ढके हुए अँधेरे कुएँ के समान इस घर को छोड़कर वन में चले जायँ और भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करें।"
"श्रुत्वा पुत्रगिरो दैत्यः परपक्षसमाहिताः।
जहास बुद्धिर्बालानां भिद्यते परबुद्धिभिः।।"
प्रह्लाद जी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँसते हुए कहा,दूसरों के बहकाने से बच्चों की बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है।
"सम्यग्विधार्यतां बालो गुरुगेहे द्विजातिभिः।
विष्णु पक्षैः प्रतिच्छन्नैर्न भिद्येतास्य धीर्यथा।।"
जान पड़ता है गुरु जी के घर पर विष्णु के पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाये, जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने ने पाये।'
जब दैत्यों ने प्रह्लाद को गुरु जी के घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितों ने उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी वाणी से पूछा -
"वत्स प्रह्लाद भद्रं ते सत्यं कथय मा मृषा।
बालानति कुतस्तुभ्यमेष बुद्धिविपर्ययः।।"
'बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो, ठीक-ठीक बतलाना, देखो, झूठ न बोलना, यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी,और किसी बालक की बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई।
कुलनन्दन प्रह्लाद! बताओ तो बेटा! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुमको बहका दिया है?'
प्रह्लाद ने कहा -
"स्वः परश्चेत्यसद्ग्राहः पुंसां यन्मायया कृतः।
विमोहितधियां दृष्टस्तस्मै भगवते नमः।।"
"जिन मनुष्यों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्हीं को भगवान् की माया से यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह ‘अपना’ है और यह ‘पराया’। उन मायापति भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।
"स यदानुव्रतः पुंसां पशुबुद्धिर्विद्यते।
अन्य एष तथान्योऽहमिति भेदगतासती।।"
वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशु बुद्धि के कारण ही तो ‘यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न है’ इस प्रकार का झूठा भेदभाव पैदा होता है।
" स एष आत्मा स्वपरेत्यबुद्धिभि-
र्दुरत्ययानुक्रमणो निरुप्यते।
मुह्यन्ति यद्वर्त्मनि वेदवादिनो,
ब्रह्मादयो ह्येष भिनत्ति मे मतिम्।।"
वही परमात्मा यह आत्मा है, अज्ञानी लोग अपने और पराये का भेद करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आप लोगों के शब्दों में मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है।
"यथा भ्राम्यत्ययो ब्रह्मन् स्वयमकर्षसन्निधौ।
तथा मे भिद्यते चेतश्चक्रपाणेर्यदृच्छया।।"
गुरुजी! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान् की स्वच्छन्द इच्छाशक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है।
परमज्ञानी प्रह्लाद अपन गुरु जी से इतना कहकर चुप हो गये, पुरोहित बेचारे राजा के सेवक एवं पराधीन थे, वे डर गयेगये, उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिड़क दिया और कहा-----
"कुलाङ्गारस्य दुर्बुद्धेश्चतुर्थोऽस्योदितो दमः।"
यह हमारी कीर्ति में कलंक लगा रहा हैहै, इस दुर्बुद्धि कुलांगार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा।
"दैतेयचन्दनवने जातो$यं कण्टकद्रुमः।
यन्मूलोन्मूलपरशोर्विष्णोर्निलायितोऽर्भकः।।"
दैत्यवंश के चन्दन वन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ? जो विष्णु इस वन की जड़ काटने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है,इस प्रकार गुरु जी ने तरह-तरह से डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी शिक्षा दी।
कुछ समय के बाद जब गुरु जी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी माँ के पास ले गये, माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ों से सजा दिया।
इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये, प्रह्लाद अपने पिता में चरणों में लोट गये,हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था,हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा,उनके नेत्रों से प्रेम के आँसूं गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा -
"प्रह्लादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्।
कालेनैतावताऽऽयुष्मन् यदशिक्षद्गुरोर्भवान्।।"
चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।
प्रह्लाद जी ने कहा -
"श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
इतिपुंसार्पिता विष्णौ भक्तश्चेनवलक्षणा।
क्रियते भगवत्याद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्।।"
"पिताजी! विष्णु भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं - "भगवान् के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन" यदि भगवान् के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाये, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ। प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फड़कने लगे,उसने गुरुपुत्र से कहा----
"ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते विपक्षं श्रयतासता।
असारं ग्राहितो बालो मामनादृत्य दुर्मते।।"
'रे नीच ब्राह्मण! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है।
संसार में ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करने वालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है।'
गुरुपुत्र ने कहा -
"न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं,
सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो।।
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्,
नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः।।"
'इन्द्रशत्रो! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है।
राजन्! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये।'
जब गुरु जी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा -
"न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोऽभद्रासती मतिः।"
‘क्यों रे! यदि तुझे ऐसी अहित करने वाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँ से प्राप्त हुई?
प्रह्लाद ने कहा----
"मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा,
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं,
पुनः पुनश्चर्वितर्वणानाम्।।"
पिताजी! संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के संग से भगवान् श्रीकृष्ण में नही नहीं लगती।
"न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं,
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः।
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना,
वाचीशतन्त्यामुरुदाम्नि बद्धाः।।"
जो इन्द्रियों से दीखने वाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढ़े में गिरने के लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सी के-काम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं-उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है।
"नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं,
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः।
महीयसां पादरजो$भिषेकं,
निष्किञ्चनानां न वृणीत्।।"
जिनकी बुद्धि भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थ का सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती,प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये।
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