ज्योतिष्मती नारियाँ

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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१. विदुषी लीलावती

  बहुत दिनों की बात है, भारत के प्रत्येक विद्यार्थी और अध्यापक की जीभपर साध्वी लीलावती का नाम रहता था। लीलावती गणितविद्या की आचार्या थी; जिस समय विदेशी गणित का क-ख-ग भी नहीं जानते थे, उस समय उसने गणित के ऐसे-ऐसे सिद्धान्त सोच डाले, जिन पर आधुनिक गणितज्ञों की भी बुद्धि चकरा जाती है। दसवीं सदी की बात है, दक्षिण भारत में भास्कराचार्य नामक गणित और ज्योतिष विद्या के एक बहुत बड़े पण्डित थे। उनकी कन्या का नाम लीलावती था। वही उन की एकमात्र सन्तान थी। उन्होंने ज्योतिष की गणना से जान लिया कि 'वह विवाहके थोड़े दिनोंके ही बाद विधवा हो जायगी।' उन्होंने बहुत कुछ सोचने के बाद ऐसा लग्न खोज निकाला, जिस में विवाह होने पर कन्या विधवा न हो। विवाह की तिथि निश्चित हो गयी। जलघड़ी से ही समय देखने का काम लिया जाता था। एक बड़े कटोरे में छोटा-सा छेद कर पानी के घड़े में छोड़ दिया जाता था। सूराखके पानीसे जब कटोरा भर जाता और पानीमें डूब जाता था तब एक घड़ी होती थी। विधाताका ही सोचा होता है। लीलावती सोलह श्रृंगार किये सजकर बैठी थी, सब लोग उस शुभ लग्नको प्रतीक्षा कर रहे थे कि एक मोती लीलावतीके आभूषणसे टूटकर कटोरे में गिर पड़ा और सूराख बन्द हो गया; शुभ लग्न बीत गया और किसीको पतातक न चला। विवाह दूसरे लग्न पर ही करना पड़ा; लीलावती विधवा हो गयी पिता और पुत्रीके धैर्य का बाँध टूट गया!

  पुत्री का वैधव्य-दुःख दूर करने के लिये भास्कराचार्य ने उसे गणित पढ़ाना आरम्भ किया। उसने भी गणित के अध्ययन में ही शेष जीवन की उपयोगिता समझी। थोड़े ही दिनों में वह उक्त विषय में पूर्ण पण्डिता हो गयी। पाटीगणित, बीजगणित और ज्योतिष विषय का एक ग्रन्थ 'सिद्धान्तशिरोमणि' भास्कराचार्य ने बनाया है। इसमें गणितका अधिकांश भाग लीलावती की रचना है। पाटीगणित के अंश का नाम ही भास्कराचार्य ने अपनी कन्या को अमर कर देने के लिये 'लीलावती' रखा है।

मनुष्य के मरने पर उस की कीर्ति ही रह जाती है। लीलावती ने गणित के आश्चर्यजनक और नवीन, नवीनतर तथा नवीनतम सिद्धान्त स्थिरकर विश्वमात्र का उपकार किया है। वैधव्य ने उस साध्वी नारी की कीर्ति में चार चाँद लगा दिये।

२. सखी खना

  गणित में लीलावती और ज्योतिष में खना का नाम बहुत प्रसिद्ध है। खना लंकाद्वीप के एक ज्योतिषी की कन्या थी। सातवीं या आठवीं सदी की बात है। उज्जयिनी में महाराज विक्रम का राज्य था। उनके दरबार में बड़े-बड़े कलाकार, कवि, पण्डित, ज्योतिषी आदि विद्यमान थे। वराह ज्योतिषियों के अगुआ थे। उनकी गणना नवरत्नों में होती थी। इतिहासज्ञ वराहमिहिर के नाम से परिचित हैं। मिहिर वराह का लड़का था। मिहिर का जन्म होने पर वराह ने गणना करके देखा कि मिहिर की आयु केवल दस साल की थी; परंतु यह उसकी भूल थी। उसने गणना करते समय एक शून्य छोड़ दिया था, उसकी आयु सौ सालकी थी । 

  वराह ने उसे एक हाँड़ी में बन्दकर क्षिप्रा नदी में फेंक दिया, हाँड़ी व्यापारियो के हाथ लगी; उन्होंने उसे पाल- पोसकर बड़ा किया और काम में लगा दिया। मिहिर होनहार तो था ही, ज्योतिषविद्या उसकी पैतृक सम्पत्ति थी; वह घूमता-फिरता लंका में एक ज्योतिषी के घर पहुँचा। उसने ज्योतिष का अध्ययन किया। ज्योतिषी की कन्या से उसका विवाह हो गया, जो ज्योतिष में पारंगता थी। कालान्तर में उसने भारतयात्रा की। उज्जयिनी में भी आकर उसने वराह तक को परास्त किया। किसी तरह वराह को पता चल गया कि यह उसका ही पुत्र है। अब ज्योतिष के कड़े-से-कड़े प्रश्न हल हो जाया करते थे। कभी-कभी घर के भीतर बैठी खना ससुर को बड़ी-से-बड़ी भूल का ज्ञान करा देती थी। नगरवाले नहीं जानते थे कि मिहिर की पत्नी इतनी विदुषी है। वराह उसकी विद्वत्तापर मन-ही-मन कुढ़ता था । उसे यह बात कभी नहीं अच्छी लगती थी कि समय-समय पर मेरी गणना में भूल निकाला करे। खना को ऐसी-ऐसी गणनाएँ आती थीं, जिनका वराह या मिहिर को थोड़ी मात्रा में भी ज्ञान नहीं था।

  एक दिन राजा ने तारा गणों के सम्बन्ध में वराह से कठिन प्रश्न किया। उसने मौका माँगा। सन्ध्या-समय घर लौटकर, वह प्रश्न हल करने लगा, परंतु किसी प्रकार से मीमांसा न हुई। रात में भोजन करते समय बात-की-बात में खना ने उसे समझा दिया; वराह यह सोचकर प्रसन्न हुआ कि पुत्रवधू की विद्या से राजसभा में मेरा मान बना रहेगा। दूसरे दिन राजा ने हल की विधि पूछी। वराह को कहना ही पड़ा कि प्रश्न का हल खना ने किया है। राजा तथा सभा-सदस्य चकित हो उठे। राजाने कहा, 'उसे आदर के साथ सभा में लाइये, हम और प्रश्न करेंगे।' वराह को यह बात अच्छी न लगी। उसने घर आकर पुत्र को खना की जीभ काट लेने की आज्ञा दी। मिहिर पिता के आज्ञापालन और सती- साध्वी विदुषी खना के प्रेम से घिर गया। खना ने मिहिर को समझाया कि स्त्री के मोह या प्रेम से अधिक महत्त्व पिता की आज्ञा का पालन करने में है; उसने कहा कि 'मेरी मृत्यु किसी दुर्घटना से होगी, इसलिये आप निर्भय होकर जीभ काट लें।'

  मिहिर ने पतिव्रता की बात मान ली। उसने उस की जीभ काट ली। इस तरह साध्वी खना ने पति को स्वधर्मपरायणता की सच्ची सीख दी और ससुर को अपनी कुलवधू को राजदरबार में उपस्थित करने से बचा लिया। किसान और देहाती जन खना के बताये सिद्धान्तों और गणनाओं से पानी बरस ने, सूखा पड़ने आदि का भविष्य बतलाते हैं।

३. भडली

श्रावण पहिले पाँच दिन, मेघ न भाँडे आव।

पिया पधारी मालवा, मैं जैहाँ मौसाल ॥

पूरब दिसिमें काचवी, जो आथमते सूर।

भडली वायक इमि भड़े, दूध जमाऊँ कूर ॥

सनि, आदित या मंगलहिं, जौं पौढ़ें जदुराय।

चाक चढ़ावै मेदिनी, पृथ्वी परलै धाय ॥

स्त्रावन सुक्ला सप्तमी उदय न दीखै भानु।

तब लगि देव बरसहीं, जब लगि देव उठान॥

अंडा लै चींटी चढ़े, चिड़ो नहावै धूर।

ऊँचे चील उड़ान लै, है बरसा भरपूर ॥

  ये कृषकों के लिये जीवनसूत्र हैं। काठियावाड़ से लेकर उत्तर भारत तक इन का प्रचार है। इस प्रकार के सूत्ररूप दोहे ऋतु के सम्बन्ध में, उपज के सम्बन्ध में, पशुओं के सम्बन्ध में तथा कृषि-पशु एवं मनुष्यों के रोगों के सम्बन्ध में ग्रामों में अत्यन्त प्रचलित हैं। ये प्रायः ज्यों-के-त्यों सत्य सिद्ध होते हैं। पता नहीं, कितने दीर्घकालीन अनुभव एवं गहन ज्योतिष का तत्त्व इनमें निहित है। 

  मारवाड़ के सुप्रसिद्ध ज्योतिषी हुदाद की कन्या भडलीने इस प्रकार के दोहों का निर्माण किया है। ये दोहे ही बताते हैं कि उनका ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान कितना विशाल था। प्रायः भडली के दोहे अत्यन्त सरल ग्रामीण भाषा में हैं। सूत्र की भाँति उनमें पूरी बात कह दी गय है। ग्राम्य कृषकों के लिये तो वे पुराण हैं।

  पिता से भडली ने ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त किय था। साथ ही बड़ी सावधानी से उन्होंने दीर्घकाल तक प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण किया था। उनके ज्ञान एक अनुभव के द्वारा आज भी असंख्यों कृषकों का उपकर हो रहा है।

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