यह स्तोत्र प्रसिद्ध योगसूत्र के लेखक और संकलनकर्ता ऋषि पतंजलि का है। एक समय की बात है, शिव के वाहक नंदी ने पतंजलि मुनि को भगवान शिव (चिदंबरम के नटराज) के दर्शन करने की अनुमति नहीं दी। भगवान शिव तक पहुंचने के लिए, व्याकरणिक रूपों पर अपनी महारत के साथ, पतंजलि ने बिना किसी विस्तारित (`दीर्घ') अक्षर का उपयोग किए (बिना 'चरण' और 'श्री~नगा' यानी पैर और पैर के) बिना भगवान की स्तुति की। शिव तुरंत प्रसन्न हुए, भक्त को दर्शन दिए और इस स्तोत्र की मधुर धुन पर नृत्य किया।
जिस स्थान पर यह घटना घटित हुई बताई जाती है वह स्थान चिदम्बरम (जिसे थिल्लई भी कहा जाता है) है, जो भारत के मद्रास, तमिलनाडु से लगभग सौ मील की दूरी पर स्थित है। इसे भारत के सबसे पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है। सोने से ढकी छत वाले इस मंदिर में भगवान नटराज ब्रह्मांड-नृत्य रूप में मौजूद हैं। मंदिर और उसके देवता की महानता पर कई किताबें लिखी गई हैं और इसका अनुमान शैव सिद्धांत संतों द्वारा भगवान की स्तुति में रचित विभिन्न रचनाओं से भी लगाया जा सकता है।
अथ चरणशृङ्गरहित श्री नटराज स्तोत्रम्
सदञ्चित मुदञ्चित निकुञ्चितपदं झलझलं चलितमञ्जुकटकं
पतञ्जलि दृगञ्जनमनञ्जनमचञ्चलपदं जननभञ्जनकरम् ।
कदम्बरुचिमम्बरवसं परममम्बुदकदम्बक विडम्बक गलं
चिदम्बुधिमणिं बुधहृदम्बुजरविं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥१॥
हरं त्रिपुरभञ्जनमनन्तकृतकङ्कणमखण्डदयमन्तरहितं
विरिञ्चिसुरसंहतिपुरन्धर विचिन्तितपदं तरुणचन्द्रमकुटम् ।
परं पद विखण्डितयमं भसितमण्डिततनुं मदनवञ्चनपरं
चिरन्तनममुं प्रणवसञ्चितनिधिं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥२॥
अवन्तमखिलं जगदभङ्ग गुणतुङ्गममतं धृतविधं सुरसरि-
-त्तरङ्ग निकुरुम्ब धृति लम्पट जटं शमनदम्भसुहरं भवहरम् ।
शिवं दशदिगन्तरविजृम्भितकरं करलसन्मृगशिशुं पशुपतिं हरं
शशिधनञ्जयपतङ्गनयनं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥३॥
अनन्तनवरत्नविलसत्कटककिङ्किणि झलं झलझलं झलरवं
मुकुन्दविधिहस्तगतमद्दल लयध्वनि धिमिद्धिमित नर्तनपदम् ।
शकुन्तरथ बर्हिरथ नन्दिमुख दन्तिमुख भृङ्गिरिटिसङ्घनिकटं
सनन्दसनकप्रमुखवन्दितपदं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥४॥
अनन्तमहसं त्रिदशवन्द्यचरणं मुनिहृदन्तर वसन्तममलं
कबन्ध वियदिन्द्ववनि गन्धवह वह्नि मखबन्धु रवि मञ्जवपुषम् ।
अनन्तविभवं त्रिजगदन्तरमणिं त्रिनयनं त्रिपुरखण्डनपरं
सनन्दमुनिवन्दितपदं सकरुणं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥५॥
अचिन्त्यमलिबृन्दरुचिबन्धुरगलं कुरित कुन्द निकुरुम्ब धवलं
मुकुन्द सुरवृन्द बलहन्तृ कृतवन्दन लसन्तमहिकुण्डलधरम् ।
अकम्पमनुकम्पितरतिं सुजनमङ्गलनिधिं गजहरं पशुपतिं
धनञ्जयनुतं प्रणतरञ्जनपरं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥६॥
परं सुरवरं पुरहरं पशुपतिं जनित दन्तिमुख षण्मुखममुं मृडं
कनकपिङ्गलजटं सनकपङ्कजरविं सुमनसं हिमरुचिम् ।
असङ्घमनसं जलधि जन्मगरलं कबलयन्तमतुलं गुणनिधिं
सनन्दवरदं शमितमिन्दुवदनं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ७ ॥
अजं क्षितिरथं भुजगपुङ्गवगुणं कनकशृङ्गिधनुषं करलस-
-त्कुरङ्ग पृथुटङ्कपरशुं रुचिर कुङ्कमरुचिं डमरुकं च दधतम् ।
मुकुन्द विशिखं नमदवन्ध्यफलदं निगमबृन्दतुरगं निरुपमं
सचण्डिकममुं झटितिसंहृतपुरं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥८॥
अनङ्गपरिपन्थिनमजं क्षितिधुरन्धरमलं करुणयन्तमखिलं
ज्वलन्तमनलन्दधतमन्तकरिपुं सततमिन्द्रसुरवन्दितपदम् ।
उदञ्चदरविन्दकुलबन्धुशतबिम्बरुचि संहति सुगन्धि वपुषं
पतञ्जलिनुतं प्रणवपञ्जरशुकं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥९॥
इति स्तवममुं भुजगपुङ्गव कृतं प्रतिदिनं पठति यः कृतमुखः
सदः प्रभुपदद्वितयदर्शनपदं सुललितं चरणशृङ्गरहितम् ।
सरः प्रभव सम्भव हरित्पति हरिप्रमुख दिव्यनुत शङ्करपदं
स गच्छति परं न तु जनुर्जलनिधिं परमदुःखजनकं दुरितदम् ॥१०॥
इति श्रीपतञ्जलिमुनि प्रणीतं चरणशृङ्गरहित नटराज स्तवम् ॥
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