पाठकों से अनुरोध है इस पक्ष पर अपने विचार रखें । इस सन्दर्भ में दिए सभी विद्वानों के उत्तर पढ़े, सभी अपनी जगह ठीक थे, परंतु किसी ने भी न यह जानने की कोशिश की, कि उससे कन्या दान क्यों कहा जाता है, और यह प्रथा कब से चली। बिना जाने समझे अगर हम सब अपनी प्रतिक्रिया देंगे तो शायद समाज अपना इतिहास और संस्कृति खो बैठेगा।
चलिये जानते है इसके पीछे की वैदिक रीति । वैदिक रीति के अनुसार विवाह आठ तरह के होते है:-
1 ब्रह्म विवाह
2 दैव विवाह
3 अर्श विवाह
4 प्रजापत विवाह
5 गन्धर्व विवाह
6 असुर विवाह
7 राक्षस विवाह
8 पिशाच विवाह
इन सभी में केवल ब्रह्म विवाह में कन्यादान की रीती है। ब्रह्म विवाह में जब कोई लड़का अपना ब्रह्मचर्य आश्रम पूरा करके गुरुकुल से लौट आता है तब उसके परिवारजन किसी सुयोग्य कन्या के घर जा कर उसका दान मांगते है। तब कन्या का पिता कन्या से पूछ कर उसका दान करता है। वैदिक काल में स्वयं को भी दान दे देने की प्रथा थी, और मातृ और पितृ ऋण के चलते हम सभी अपने माता पिता की पूँजी ही माने जाते है। केवल मातृ ऋण और पितृ ऋण देने के पश्चात ही आप मुक्त हो सकते है। एक लड़की माँ बन कर मातृ ऋण चूका देती है, और पिता को कन्या दान का सुख देकर पितृ ऋण। वहीँ एक लड़का माता की सेवा कर और पितृ का श्राद्ध कर यह ऋण चुकता है।
अभी किसी ने कहा कि अब सिर्फ पाणिग्रहण संस्कार होता है। प्रजापत विवाह पद्धति में जब लड़की का पिता उसके लिए वर देखने जाता है, या किसी योग्य वर को उससे सौंप कर आता है उससे पाणिग्रहण संस्कार कहते है, जिसमे लड़का उसकी रक्षा का वचन देता है।
बाकी सभी विवाह में न कन्यादान होता है और न ही पाणिग्रहण संस्कार।
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