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नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की..!!

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 नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की..!! आज हर दिन किसी न किसी का घर खराब हो रहा है । इसके मूल कारण और जड़ पर कोई नहीं जा रहा है, जो कि अति ...

 नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की..!!

आज हर दिन किसी न किसी का घर खराब हो रहा है ।

इसके मूल कारण और जड़ पर कोई नहीं जा रहा है, जो कि अति संभव है एवं निम्न हैं:--

1, पीहरवालों की अनावश्यक दखलंदाज़ी।

2, संस्कार विहीन शिक्षा

3, आपसी तालमेल का अभाव

4, ज़ुबानदराज़ी

5, सहनशक्ति की कमी

6, आधुनिकता का आडम्बर

7, समाज का भय न होना

8, घमंड झूठे ज्ञान का

9, अपनों से अधिक गैरों की राय

10, परिवार से कटना।

11.घण्टों मोबाइल पर चिपके रहना और घर गृहस्थी की तरफ ध्यान न देना।

12. अहंकार के वशीभूत होना ।

पहले भी तो परिवार होता था,

और वो भी बड़ा।

लेकिन वर्षों आपस में निभती थी!

भय था, प्रेम था और रिश्तों की मर्यादित जवाबदेही भी।

पहले माँ बाप ये कहते थे कि मेरी बेटी गृह कार्य में दक्ष है, 

और अब कहते हैं कि मेरी बेटी नाज़ों से पली है।

आज तक हमने तिनका भी नहीं उठवाया।

तो फिर करेगी क्या शादी के बाद ?

शिक्षा के घमँड में बेटी को आदरभाव, अच्छी बातें, घर के कामकाज सिखाना और परिवार चलाने के सँस्कार नहीं देते।

माँएं खुद की रसोई से ज्यादा बेटी के घर में क्या बना इसपर ध्यान देती हैं।

भले ही खुद के घर में रसोई में सब्जी जल रही है।

मोबाईल तो है ही रात दिन बात करने के लिए।

परिवार के लिये किसी के पास समय नहीं।

या तो TV या फिर पड़ोसन से एक दूसरे की बुराई या फिर दूसरे के घरों में तांक-झांक।

जितने सदस्य उतने मोबाईल।

बस लगे रहो।

बुज़ुर्गों को तो बोझ समझते हैं।

पूरा परिवार साथ बैठकर भोजन तक नहीं कर सकता।

सब अपने कमरे में।

वो भी मोबाईल पर।

बड़े घरों का हाल तो और भी खराब है।

कुत्ते बिल्ली के लिये समय है।

परिवार के लिये नहीं।

सबसे ज्यादा बदलाव तो इन दिनों महिलाओं में आया है।

दिन भर मनोरँजन,

मोबाईल,

स्कूटी.. कार पर घूमना फिरना ,

समय बचे तो बाज़ार जाकर शॉपिंग करना

और ब्यूटी पार्लर।

जहां घंटों लाईन भले ही लगानी पड़े ।

भोजन बनाने या परिवार के लिये समय नहीं।

होटल रोज़ नये-नये खुल रहे हैं।

जिसमें स्वाद के नाम पर कचरा बिक रहा है।

और साथ ही बिक रही है बीमारी एवं फैल रही है घर में अशांति।

आधुनिकता तो होटलबाज़ी में है।

पहले शादी ब्याह में महिलाएं गृहकार्य में हाथ बंटाने जाती थीं।

और अब नृत्य सीखकर।

क्यों कि महिला संगीत में अपनी नृत्य प्रतिभा जो दिखानी है।

जिस महिला की घर के काम में तबियत खराब रहती है वो भी घंटों नाच सकती है।

घूँघट हटना तो चलो ठीक है,

लेकिन बदन दिखाऊ कपड़े ?

बड़े छोटे की शर्म या डर रहा क्या ?

वरमाला में पूरी फूहड़ता।

कोई लड़के को उठा रहा है।

कोई लड़की को उठा रहा है

और हम ये तमाशा देख रहे हैं, खुश होकर, मौन रहकर।

माँ बाप बच्ची को शिक्षा तो बहुत दे रहे हैं,

लेकिन उस शिक्षा के पीछे की सोच ?

ये सोच नहीं है कि परिवार को शिक्षित करें।

बल्कि दिमाग में ये है कि कहीं तलाक-वलाक हो जाये तो अपने पाँव पर खड़ी हो जाये

ख़ुद कमा खा ले।

जब ऐसी अनिष्ट सोच और आशंका पहले ही दिमाग में हो तो रिज़ल्ट तो वही सामने आना ही है।

साइँस ये कहता है कि गर्भवती महिला अगर कमरे में सुन्दर शिशु की तस्वीर टांग ले तो शिशु भी सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट होगा।

मतलब हमारी सोच का रिश्ता भविष्य से है।

बस यही सोच कि - अकेले भी जिंदगी जी लेगी गलत है ।

संतान सभी को प्रिय है।

लेकिन ऐसे लाड़ प्यार में हम उसका जीवन खराब कर रहे हैं।

पहले पुराने समय में , स्त्री तो छोड़ो पुरुष भी थाने, कोर्ट कचहरी जाने से घबराते थे।

और शर्म भी करते थे।

लेकिन अब तो फैशन हो गया है।

पढ़े-लिखे युवक-युवतियाँ तलाकनामा तो जेब में लेकर घूमते हैं।

पहले समाज के चार लोगों की राय मानी जाती थी।

और अब तो समाज की कौन कहे , माँ बाप तक को जूते की नोंक पर रखते हैं।

सबसे खतरनाक है - ज़ुबान और भाषा, जिस पर अब कोई नियंत्रण नहीं रखना चाहता।

कभी-कभी न चाहते हुए भी चुप रहकर घर को बिगड़ने से बचाया जा सकता है।

लेकिन चुप रहना कमज़ोरी समझा जाता है। आखिर शिक्षित जो हैं।

और हम किसी से कम नहीं वाली सोच जो विरासत में मिली है।

आखिर झुक गये तो माँ बाप की इज्जत चली जायेगी।

गोली से बड़ा घाव बोली का होता है।

आज समाज ,सरकार व सभी चैनल केवल महिलाओं के हित की बात करते हैं।

पुरुष जैसे अत्याचारी और नरभक्षी हों।

बेटा भी तो पुरुष ही है।

एक अच्छा पति भी तो पुरुष ही है।

जो खुद सुबह से शाम तक दौड़ता है, परिवार की खुशहाली के लिये।

खुद के पास भले ही पहनने के कपड़े न हों।

घरवाली के लिये हार के सपने ज़रूर देखता है।

बच्चों को महँगी शिक्षा देता है।

मैं मानता हूँ पहले नारी अबला थी।

माँ बाप से एक चिठ्ठी को मोहताज़।

और बड़े परिवार के काम का बोझ।

अब ऐसा है क्या ?

सारी आज़ादी।

मनोरंजन हेतु TV,

कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन,

मसाला पीसने के लिए मिक्सी,

रेडिमेड पैक्ड आटा,

पैसे हैं तो नौकर-चाकर,

घूमने को स्कूटी या कार

फिर भी और आज़ादी चाहिये।

आखिर ये मृगतृष्णा का अंत कब और कैसे होगा ?

घर में कोई काम ही नहीं बचा।

दो लोगों का परिवार।

उस पर भी ताना।।

कि रात दिन काम कर रही हूं।

ब्यूटी पार्लर आधे घंटे जाना आधे घंटे आना और एक घंटे सजना नहीं अखरता।

लेकिन दो रोटी बनाना अखर जाता है।

कोई कुछ बोला तो क्यों बोला ?

बस यही सब वजह है घर बिगड़ने की।

खुद की जगह घर को सजाने में ध्यान दें , तो ये सब न हो।

समय होकर भी समय कम है परिवार के लिये।

ऐसे में परिवार तो टूटेंगे ही।

पहले की हवेलियां सैकड़ों बरसों से खड़ी हैं।और पुराने रिश्ते भी।

आज बिड़ला सीमेन्ट वाले मजबूत घर कुछ दिनों में ही धराशायी। 

और रिश्ते भी महीनों में खत्म।

इसका कारण है

रिश्तों मे ग़लत सँस्कार

खैर हम तो जी लिये।

सोचे आनेवाली पीढी

घर चाहिये या दिखावे की आज़ादी ?

दिनभर बाहर घूमने के बाद रात तो घर में ही महफूज़ होती है।

आप मानो या ना मानो आप की मर्जी मगर यह कड़वा सत्य है।..

क्या है आपकी राय ....?

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भागवत दर्शन: नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की..!!
नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की..!!
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