अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।। मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  वे अर्थात् प्रभु चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है); वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परंतु जहाँ उसके लिए अरणिमंथनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्मा ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की।

  जैसे दियासलाई-घर्षण करते ही अग्नि प्रकट हो जाती है । दियासलाई में अग्नि तो पहले भी थी । पहले नहीं होती तो प्रकट कैसे होती ? अतः दियासलाई में अग्नि है पर प्रकट नहीं है । ऐसे ही भगवान् सब जगह हैं और परिपूर्ण हैं पर वे प्रकट नहीं हैं । वे प्रकट कब होते हैं ? जैसे दियासलाई को रगड़ लगती है तो उससे अग्नि प्रकट हो जाती है, ऐसे ही जब प्रेमरूप रगड़ लगती है अर्थात् भगवान्‌ का चिन्तन करते-करते प्रेम हो जाता है तो उससे भगवान् प्रकट हो जाते हैं ।

प्रेम सदा बढ़िबौ करै, ज्यों ससिकला सुबेष ।

पै पूनो यामें नहीं, ताते कबहुँ न सेष ॥

   सब जगह एक सच्चिदानन्द घन परमात्मा परिपूर्ण है; ऐसे परमात्मतत्व में स्थित होने पर एक अखंड आनन्द रहता है । वह आनन्द भी किंचिन्मात्र भी घटता नहीं । अनन्त ब्रह्मा उत्पन्न हो-होकर समाप्त हो जायँ तो भी वह ज्यों-का-त्यों रहता है । परन्तु प्रेम का आनन्द प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है । सन्तों ने कहा है कि चन्द्रमा की कला बढ़ती है और बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा आ जाती है पर प्रेम के आनन्द में कभी पूर्णिमा आती ही नहीं।

  ऐसा जो प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम है, भगवान्‌ के प्रति खिंचाव है, उसका नाम है‒श्रीराधा ।

  रुक्मिणी और राधिका दोनों ने प्रेम किया था। एक ने बालक कन्हैया से, दूसरे ने राजनीतिज्ञ कृष्ण से। एक को अपनी मनमोहक बातों के जाल में फँसा लेने वाला कन्हैया मिला था, और दूसरे को मिले थे सुदर्शन चक्र धारी, महायोद्धा कृष्ण।

    कृष्ण राधिका के बाल सखा थे, पर राधिका का दुर्भाग्य था कि उन्होंने कृष्ण को तात्कालिक विश्व की महाशक्ति बनते नहीं देखा। राधिका को न महाभारत के कुचक्र जाल को सुलझाते चतुर कृष्ण मिले, न पौंड्रक-शिशुपाल का वध करते बाहुबली कृष्ण मिले।

   रुक्मिणी कृष्ण की पत्नी थीं, महारानी थीं, पर उन्होंने कृष्ण की वह लीला नहीं देखी जिसके लिए विश्व कृष्ण को स्मरण रखता है। उन्होंने न माखन चोर को देखा, न गौ-चरवाहे को। उनके हिस्से में न बाँसुरी आयी, न माखन।

   कितनी अद्भुत लीला है, राधिका के लिए कृष्ण कन्हैया था, रुक्मिणी के लिए कन्हैया कृष्ण थे। पत्नी होने के बाद भी रुक्मिणी को कृष्ण उतने नहीं मिले कि वे उन्हें "तुम" कह पातीं। आप से तुम तक की इस यात्रा को पूरा कर लेना ही प्रेम का चरम पा लेना है। रुक्मिणी कभी यह यात्रा पूरी नहीं कर सकीं।

  राधिका की यात्रा प्रारम्भ ही 'तुम' से हुई थीं। उन्होंने प्रारम्भ ही "चरम" से किया था। शायद तभी उन्हें कृष्ण नहीं मिले।

   कितना अजीब है न, कृष्ण जिसे नहीं मिले, युगों युगों से आज तक उसी के हैं, और जिसे मिले उसे मिले ही नहीं।

   कृष्ण को पाने का प्रयास मत कीजिये। पाने का प्रयास कीजियेगा तो कभी नहीं मिलेंगे। बस प्रेम करके छोड़ दीजिए, जीवन भर साथ निभाएंगे कृष्ण। 

चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।

चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।

  इस दुनिया में चन्दन को सबसे अधिक शीतल माना जाता है पर चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होती है लेकिन एक अच्छे मित्र चन्द्रमा और चन्दन दोनों से शीतल होते हैं।

  कृष्ण इस सृष्टि के सबसे अच्छे मित्र हैं। राधिका हों या सुदामा, कृष्ण ने मित्रता निभाई तो ऐसी निभाई कि इतिहास बन गया।

  राम ने जो किया है उसका अनुसरण कीजिए और कृष्ण जी ने जो कहा है उसका अनुकरण करना चाहिए।

    राधा और रुक्मिणी जब मिली होंगी तो रुक्मिणी राधा के वस्त्रों में माखन की गंध ढूंढती होंगी और राधा ने रुक्मिणी के आभूषणों में कृष्ण का वैभव तलाशा होगा। कौन जाने मिला भी या नहीं। सब कुछ कहाँ मिलता है मनुष्य को कुछ न कुछ तो छूटता ही रहता है।

   जितनी चीज़ें कृष्ण से छूटीं, उतनी तो किसी से नहीं छूटीं। 

  कृष्ण से उनकी माँ छूटी, पिता छूटे, फिर जो नंद-यशोदा मिले वे भी छूटे। संगी-साथी छूटे। राधा छूटीं। गोकुल छूटा, फिर मथुरा छूटी। कृष्ण से जीवन भर कुछ न कुछ छूटता ही रहा। कृष्ण जीवन भर त्याग करते रहे। हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ भी छूटने पर टूटने लगती है, उसे कृष्ण को गुरु बना लेना चाहिए। 

"कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्"

  जो कृष्ण को समझ लेगा वह कभी अवसाद में नहीं जाएगा। कृष्ण आनंद के देवता हैं। कुछ छूटने पर भी कैसे खुश रहा जा सकता है, यह कृष्ण से अच्छा कोई नहीं जान सकता।

अतसी पुष्प संकाशं हार नुपुर शोभितम्।

रत्न कंकण केयूरं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्।।

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