करम बचन मन छाड़ि छलु, जब लगि जनु न तुम्हार । तब लगि सुख सपनेहुँ नहीं, किएँ कोटि उपचार ॥ जब तक कर्म,वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपक...
करम बचन मन छाड़ि छलु, जब लगि जनु न तुम्हार ।
तब लगि सुख सपनेहुँ नहीं, किएँ कोटि उपचार ॥
जब तक कर्म,वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका अर्थात प्रभु का दास नहीं हो जाता,तब तक करोड़ों उपाय करने से भी,स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता ।
जीव संसार में आ कर परम दयालु-कृपालु परमात्मा को भूल गया, उनसे विमुख हो गया। जहाँ उसे भगवान की भक्ति करनी चाहिए वहाँ वह उनसे ही अलग हो गया। परमात्मा से विमुख होने के कारण ही, जीव संसार में दर-बदर भटक रहा है, दुःख प्राप्त कर रहा है। और यह क्रम जन्म-जन्मों से यूँ ही चला आ रहा है। संसार में दुःख प्राप्त होने का बस एक ही कारण है, भगवन से विमुख हो जाना। हम सब संसार को अपना मान बैठे हैं, और उसी को पाने की होर में लगें हैं। बस ९९ को १०० करने के चक्कर में दिन-रात लगे रहतें हैं। थोड़े समय के लिए कुछ मिल जाता है तो सुखी हो जातें हैं और किसी कारण से अगर न मिलें तो दुःखी, और ये स्वाभाविक है। अब मान लीजिये, किसी ने आप को कुछ सामान दिया रखने के लिए, और आप थोड़े दिनों में उसे अपना मान बैठे, उसका उपयोग करने लगे, उस से मन लगा लिया और उस में आशक्त हो गए। तो जब कभी वह व्यक्ति अपना सामान लेने आएगा, तो देने में आप को दुःख होगा। आप का था नहीं, पर आपने अपना मान लिया तो दुःख होगा। ऐसे ही हम सब ने संसार को अपना मान लिया है, वस्तुतः अपना है ही नहीं, कल किसी का था, बस आज थोड़े से समय ले लिए अमानत रूप से अपने पास है, कल फिर किसी और के पास चला जायेगा, जाना तय है। तो फिर क्यों इसमें आशक्त होना? तो भगवान से विमुखता और संसार में आशक्ति ही मूलतः दुःख का कारण है।
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी।
कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे।
सो माया प्रभु सों भय भाखे॥
श्री रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं ।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।
जिस क्षण जीव भगवान के सन्मुख हो पूर्णरूपेण शरणागत हो जाता है, भगवान उसी क्षण बिना देर किये, अपनी कृपा कर देतें हैं। उसका सारा अज्ञान हर कर, उसे हमेशा के लिए दुखों से मुक्त कर देतें हैं। उसे कभी न ख़त्म होने वाले परमानन्द की प्राप्ति करा देतें हैं। और उसे सदा-सर्वदा के लिए अपनी माया से मुक्त कर देतें हैं। फिर वह जीव सदा- सदा के लिए दुःखों से छुटकारा पा लेता है।
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही योगी है और वही सुखी है।
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुष: पर:।।
शरीर के भीतर भी सर्वोच्च भगवान निवास करते हैं। उन्हें साक्षी, अनुमति देने वाला, समर्थक, पारलौकिक आनंद लेने वाला, परम नियंत्रक और परमात्मा (सर्वोच्च आत्मा) कहा जाता है।
एक ब्रह्म, एक उस ब्रह्म की माया और एक हम सब जीव। तो जो कुछ भी हम देखतें हैं, कहिये तो सारा संसार, भगवान की माया शक्ति से बना है, जो की जड़ है। अब आप पूछ सकतें हैं कि, भगवान ने संसार को बनाया ही क्यों? तो भगवान ने हम सब जीवों को सुख देने के लिए, हम सब के कल्याण के लिए, कृपा करके संसार की रचना की। ताकि जीव संसार में आ कर, भगवान के नाम, गुण, रूप, लीला, धाम आदि का गान करते हुए उनकी सहज भक्ति कर सके और आसानी से उनको पा सके।
संसार में सुख है या दुःख? संसार को परमपिता परमेश्वर ने रचा है। कहतें हैं, ये जगत प्रभु की सर्वोत्तम रचनाओं में से एक है। और प्रभु तो आनंदमय हैं, सुख की राशि हैं। इसलिए तो परमात्मा का एक नाम सच्चिदानंद है। तो ऐसे सुखमय प्रभु ने जब यह संसार बनाया तो संसार में दुःख कैसे हो सकता है? जैसे चीनी से बनाया गया रसगुल्ला मीठा होता है, आप सब ने खाया होगा, लेकिन उसी रसगुल्ले को अगर नमक से बनाया जाये तो क्या वह मीठा होगा? नहीं, बिलकुल नहीं, नमक से बना रसगुल्ला नमकीन ही होगा। तो ऐसे ही आनंदघन स्वरुप भगवान ने संसार को रचा है तो इसे उन्हीं के जैसा सुखमय होना चाहिए!
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
मानव शरीर में पांच इंद्रियां होती हैं - दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण की इंद्रियां - और ये, उनकी धारणा की वस्तुओं के संपर्क में, खुशी और परेशानी की संवेदनाओं को जन्म देती हैं। इनमें से कोई भी अनुभूति स्थायी नहीं है। वे बदलते मौसम की तरह आते हैं और चले जाते हैं। यद्यपि शीतल जल ग्रीष्म ऋतु में सुख देता है, परंतु वही जल शीत ऋतु में कष्ट देता है। इस प्रकार, इंद्रियों के माध्यम से अनुभव की गई खुशी और दुख की दोनों धारणाएं क्षणभंगुर हैं। यदि हम स्वयं को उनसे प्रभावित होने देते हैं, तो हम पेंडुलम की तरह इधर-उधर डोलने लगेंगे। विवेकशील व्यक्ति को सुख और दुःख दोनों ही भावनाओं से विचलित हुए बिना सहन करने का अभ्यास करना चाहिए।
आप अपनी सांसारिक इच्छाओं की कैद में बन्द हो। उससे छूटने के लिये यदि सब प्रकार से अपने आपको प्रभु के चरणों में अर्पित कर दोगे तो तुम्हारी रक्षा होगी और तुम्हें सच्चा सुख मिलेगा। जो मनुष्य ईश्वर के सिवा न किसी से डरता, न किसी की आशा रखता, जिसे अपने सुख-सन्तोष की अपेक्षा प्रभु का सुख-सन्तोष अधिक प्रिय है, उसी का ईश्वर के साथ मेल हो जायेगा
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादवत्त्य
नाश्न्नन्नन्यो अभिचक्षतीति।।
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नो
निषाया शोचति मुह्यमान:।
जुष्टां यदा पश्यत्यान्यामीष
मस्य महिमानमिति विशोकः।।
जीवित रूप के वृक्ष (शरीर) के घोंसले (हृदय) में दो पक्षी बैठे हैं। वे जीवात्मा (व्यक्तिगत आत्मा) और परमात्मा (परमात्मा) हैं। जीवात्मा की पीठ परमात्मा की ओर है , और वह वृक्ष के फल (शरीर में रहते हुए प्राप्त कर्मों का फल) का आनंद लेने में व्यस्त है। जब कोई मीठा फल आता है, तो वह प्रसन्न हो जाता है; जब कोई कड़वा फल आता है तो दुख होता है। परमात्मा जीवात्मा का मित्र है , लेकिन वह हस्तक्षेप नहीं करता; वह तो बस बैठ कर देखता रहता है। यदि जीवात्मा केवल परमात्मा की ओर मुड़ सकती है , तो उसके सभी दुख समाप्त हो जाएंगे। जीवात्मा को स्वतंत्र इच्छा अर्थात ईश्वर से विमुख होने या उसकी ओर मुड़ने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। उस स्वतंत्र इच्छा के अनुचित उपयोग से जीवात्मा बंधन में है, और इसका उचित उपयोग सीखकर, वह भगवान की शाश्वत सेवा प्राप्त कर सकता है और अनंत आनंद का अनुभव कर सकता है।
जो आनंद सिंधु सुखरासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
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