मन आत्मा का क्रिया स्वरूप है मन से सारे अविष्कार सारे सुख साधन सब मन की ही सृष्टि है पूर्व जन्मों के संस्कारों से ही मन की उत्पत्ति होती ह...
मन आत्मा का क्रिया स्वरूप है मन से सारे अविष्कार सारे सुख साधन सब मन की ही सृष्टि है पूर्व जन्मों के संस्कारों से ही मन की उत्पत्ति होती है और मन की क्रियाशीलता भी उन्हीं से संबंधित है मन का मैल और मन की शुद्धता कैसे होती है यह प्रश्न है इसका उत्तर जानना मनुष्य के लिए बहुत ही आवश्यक है। मनुष्य को जैसे संस्कार मिलते हैं मनुष्य को जैसे संस्कार मिलते हैं वैसे ही उससे कर्म होने लगते हैं और जैसे कर्म होते हैं वैसा ही उसका मन होता है जैसा मन बनता है वैसे ही उसका प्रारब्ध बनता है।
प्रत्येक मनुष्य चाहे जिसकी धर्म से संबंध रखता हूं वह जानना चाहता है कि उसका परलोक कैसा होगा कैसी उसकी गति होगी तो उसे किसी से यह पूछने की आवश्यकता नहीं है वह केवल अपने मन के अंदर झांक कर देख ले जैसी उसके मन की अवस्था होगी वैसे ही वह अपने पर लोग को भी समझ ले यही ईश्वर का कानून है और यही ईश्वरीय कानून है इसमें कोई भी रियायत की गुंजाइश नहीं होती कोई बड़ा हो कोई छोटा स्त्री हो या पुरुष ब्राह्मण हो या शूद्र यह ईश्वर यह नियम सब पर बराबर लागू होता है हम प्रतिदिन जैसी भी मानसिकता के अधीन कर्म करते हैं उन कर्मों के संस्कारों की एक संस्कार पत्रिका बनती जाती है।
और यही हमारे कर्मों का लेख पत्र होता है और उसी कर्म लेख पत्र के अनुसार ईश्वरीय नियम हमारे फैसले करती है बल्कि इसे यूं समझना चाहिए ईश्वर की अदालत में आपके फैसले हुए पडे है यहां जैसा बीज वैसा ही वहां फल होता है मनुष्य की खोपड़ी पीछे की तरफ जो ठुढ होता है उसमें हमारे सैकड़ों जन्मों के संस्कार भरे रहते जैसे ही मन सक्रिय होता है उसमें वह संस्कार घुलने लगते हैं परन्तु मनुष्य के बाहरी वातावरण और उससे संबंधित मनुष्यों के विचारों मैं अपने कर्म से भी मन प्रभावित होता है और वही उस मनुष्य का चरित्र बन जाता है इसी चरित्र के प्रभाव से समाज में उस मनुष्य को अच्छा या बुरा संत या दुर्जन कहा जाता है।
मनुष्य का जन्म भी बेहोशी में ही होता है और उसकी मृत्यु भी बेहोशी में ही होती है मृत्यु की बेहोशी के समय मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के कर्मों को देखता है जो मैं अच्छे कर्म करता है और बूरे इसलिए मरणासन्न व्यक्ति के चेहरे पर तरह-तरह के भाव आते रहते हैं क्योंकि जब तक वह अपने प्राण नहीं त्याग ता जब तक मन एक शरीर का निर्माण नहीं कर लेता वह शरीर कोई भौतिक शरीर नहीं होता वह शरीर सूक्ष्म शरीर वह भौतिक शरीर के बीच का शरीर होता है जिसे प्रेत शरीर कहते हैं।
जैसे ही उस पर एक शरीर का निर्माण होता है आत्मा झटके से भौतिक शरीर को छोड़ती है और उस पर यह शरीर में प्रवेश कर जाती है अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक देखे गए कार्यों से वह प्रेत जीव बड़ा घबराया हुआ और निर्बल होता है और और उसका मन उसके पापों की वजह से कर्मों की वजह से मन वैसी ही सृष्टि कर डालता है जिससे उसे घोर कष्ट का अनुभव होता है। परंतु कुछ लोग अच्छे लोगों के संपर्क में होने से इस पीड़ा से जीवित रहते हैं मुक्त हो जाते हैं।
संस्कारों व भौतिक वातावरण और मनुष्य के संपर्क से भी मनुष्य के जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है कर्मों की वजह से आप अच्छे लोगों के संपर्क में रहेंगे तो कर्म अच्छे होंगे अगर आप बुरे लोगों के संपर्क में रहेंगे या बुरे वातावरण से प्रभावित रहेंगे तो आपके कर्म भी बुरे ही रहेंगे और इन सब में मन दर्पण की तरह काम करता है और मन से ही आपका परलोक होता है परलोक के विषय में जो कथाएं हैं वह सभी धर्मों में लगभग एक समान ही है कि कहीं पर नर्क है और कहीं पर स्वर्ग ऐसा है अभी और नहीं भी अब प्रश्न उठता है कि ऐसा कहां है स्वर्ग और नरक कहां पर है अगर यह दोनों कहीं भोगने का स्थान किसी और लोक में होता तो यहां पर कैसा वातावरण होता तो मृत्यु लोक का वातावरण ऐसा होता कि मैं यहां दुख होता और न सुख?
क्योंकि दुख भोगने के लिए नर्क और सुख भोगने के लिए स्वर्ग वह लोक तो परलोक कहलाता है तो इस मृत्यु लोक मे यह सब क्यो होता इसी लोक मे दुख को खत्म करने के लिए भजन जागरण कथा अनुष्ठान इबादत चर्जो मे प्रार्थना व सुख पाने के लिए मंदिर मस्जिद चर्च आदि मे प्रार्थना सुख व सम्मान पाने के लिए धर्म परिवर्तन आदि कर्म करने पडते है ।
साधना मोक्ष में मुक्ति पाने के लिए की जाती है साधक होश में जन्म लेता है और होश नहीं मरता है यह तो सभी कहते हैं कि कर्म करो उसके फल की चिंता मत करो परंतु ऐसा करता कौन है पहले फल के विषय में सोचते हैं फिर कर्म करते हैं और साधकों से मिला हूं सब सांसारिक सुख पाने के लिए ही साधना करनी चाहते हैं उपासना करनी जाते हैं लेकिन इन सांसारिक दुखों से मुक्ति पाने के लिए बहुत ही कम लोग साधना करनी चाहते हैं क्योंकि यह संसार दुख के अलावा क्या है यहां पर कौन सा सुख है और क्या अपना है यह शरीर भी अपना नहीं ना यहां कोई कुछ लेकर आता है और ना भौतिक वस्तु लेकर जाता है।
परन्तु वह लेकर जाता है। अपनी अतृप्त वासनाएँ कामनाएँ अपने मन पर अपने अनैतिक कार्यो की वह पत्रिका जिसके कारण वह यहाँ दुबारा इस भौतिक नर्क आ गिरता है यदि मन मैला है तो सब कुछ मैला है मनुष्य के कर्मकांड आदि सब मैले हैं लोग भूले हुए हैं कि मन का मैल उतारने के लिए शरीर को धोते हैं भला शरीर धोने से कभी मन शुद्ध हो सकता है। कदापि नही
मन पर मैल कौन सी है जिससे मन मलीन हो गया है इसका उत्तर यह है कि मन मैला संसार की ममता के कारण हो गया है जिसके कारण से बेचारा जीव बार-बार जन्मता और मरता रहता है शरीर को धोना अलग बात है मन को साफ करना अलग बात है।
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