तीन गुण : सत रज तम

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  सत्व, रज और तम,यह तीन आत्मा के तीन तत्व है,संसार के प्रत्येक प्राणी में यह गुण न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं,जिस प्राणी मे जिस गुण की अधिकता होती है वह उन्ही लक्षणों की तरह से व्यवहार करता है,सत्व गुण ज्ञानमय है,तमोगुण अज्ञानमय है,और रजो गुण रागद्वेश मय होता है,सत्व गुण में प्रति प्रकाशरूप शान्ति होती है,रजोगुण में आत्मा की अप्रतीतिकर दुख कातरता और विशयभोग की लालसा होती है,तमोगुण मोह युक्त विषयात्मक,अविचार और अज्ञानकोटि मे आता है,इसके अतिरिक्त इन गुणो के उत्तम,मध्यम और निम्न लक्षण भी मिलते है,यथा सतोगुणी व्यक्ति मे वेदाभ्यास,तप,ज्ञान,शौच,जितेन्द्रियता,धर्मानुष्ठान,परमात्म चिन्तन के लक्षण मिलते है,रजोगुणी व्यक्ति के अन्दर सकाम कर्म मे रुचि,अधैर्य,लोकविरुद्ध तथा अशास्त्रीय कर्मो का आचरण और अत्याधिक विषयभोग के लक्षण मिलते है,तमोगुणी व्यक्ति लोभी, आलसी, अधीर, क्रूर, नास्तिक आचारभ्रष्ट याचक तथा प्रमादी होता है. अतीत, वर्तमान,और आगामी क्रमानुसार भी सत्वगुण, रजो गुण और तमोगुण के शास्त्रो मे लक्षण बताये गये है.जो कार्म पहले किया गया हो,और अब भी किया जा रहा हो,और आगे करने मे लज्जा का अनुभव हो,उसे तमोगुणी कर्म कहते है,लोक प्रसिद्ध के लिये जो कार्य किये जाते है,उनके सिद्ध न होने पर मनुष्य को दुख होता है, इन्हे ही रजोगुण कर्म कहते हैं, जिस कार्य को करने में मनुष्य के अन्दर सदा इच्छा बनी रहे और वह सन्तोषदायक हो तथा जिसे करने पर मनुष्य को किसी प्रकार की लज्जा न हो उसे ही सतोगुणी कर्म कहते है। प्रवृत्ति के विचार से तमोगुण काममूलक,कहा जाता है, रजो गुण अर्थ मूलक और सतोगुण धर्म मूलक कहा जाता है,सतोगुणी व्यक्ति देवत्व को रजोगुणी मनुष्यत्व को और तमोगुणी तिर्यक योनियों को प्राप्त होता है। ऊपर वाली तीन गतियां भी कर्म और ज्ञान के भेद से तीन तीन प्रकार की है जैसे अधम सात्विक, मध्यम सात्विक और उत्तम सात्विक, और अधम राजसिक, मध्यम राजसिक और उच्च राजसिक, अधम तामसिक, मध्यम तामसिक, और उच्च तमसिक आदि। महाराजा ' मनु ' के अनुसार इन्द्रियगत कर्मो में अतिशय आसक्ति तथा धर्म भावना के अभाव में मनुष्य को अधोगति प्राप्त होती है, जिस विशय की तरफ़ इन्द्रियों का अधिक झुकाव होता है, उसी मे उतरोत्तर आसक्ति बढती जाती है, इससे मानव का वर्तमान तो बिगडता ही है परलोक मे भी अति दुख और नरक पीडा भुगतनी पडती है नरक का मतलब है कि निम्न कोटि की योनियो मे जन्म लेना पडता है,और अपार यातना सहनी पडती है जिन भावनाओ से जो जो कर्म किये जाते है,उन्ही के अनुसार शरीर धारण करके कष्ट भोगने पडते है, संक्षेप मे प्रवृत्तिमार्गी कर्मो के यही परिणाम है, निवृत्ति मार्गी कर्मो के अनुसार वेदाध्ययन तप ज्ञान अहिंसा और गुरु सेवा आदि कर्म मोक्ष के कारक है, इनमे आत्म ज्ञान श्रेष्ठ है,यही मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन कहा जाता है, ऊपर बताये गये सभी कर्म, वेदाध्ययन या वेदाभ्यास के अन्तर्गत समाविष्ट है, वैदिक कर्म मूलत: दो तरह के है-प्रवृत्ति मूलक और निवृत्ति मूलक,पहले का अनुष्ठान मनुष्य को देवयोनि मे प्रवेश दिलाता है,और निवृत्ति मूलक कर्म से मोक्ष मिलता है.आत्मज्ञानी सर्वभूतो मे आत्मा को तथा आत्मा में सर्वभूतो को देखता है,इससे उसे ब्रह्म पद की प्राप्ति होती है,यही कर्मज्ञ की पूर्णता है।

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