जिसको रवि पंचक नहीं है , उसको चतुर्थी नहीं आयेगी। उसको सप्तक घेरकर रखेगा और उसके जीवन में तृतीया नहीं आयेगी। मतलब क्या हुआ ? रवि -पंचक ...
जिसको रवि पंचक नहीं है , उसको चतुर्थी नहीं आयेगी। उसको सप्तक घेरकर रखेगा और उसके जीवन में तृतीया नहीं आयेगी। मतलब क्या हुआ ?
रवि -पंचक का अर्थ होता है - रवि से पाँचवाँ यानि गुरुवार ( रवि , सोम , मंगल , बुद्ध , गुरु ) अर्थात् जिनको गुरु नहीं है , तो सन्त सद्गुरु के अभाव में उसको चतुर्थी नहीं होगी।
चतुर्थी यानी बुध ( रवि , सोम , मंगल, बुध ) अर्थात् सुबुद्धि नहीं आयेगी। सुबुद्धि नहीं होने के कारण वह सन्मार्ग पर चल नहीं सकता है। सन्मार्ग पर नहीं चलनेवाले का परिणाम क्या होगा ?
तेहि सप्तक घेरे रहे ' सप्तक क्या होता है ?
शनि ( रवि , सोम मंगल , बुध , बृहस्पति , शुक्र , शनि ) अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा और —
कबहुँ तृतीया नाहिं।
तृतीया यानी मंगल ( रवि , सोम , मंगल )। उसके जीवन में मंगल नहीं आवेगा ।
इसलिए अपने जीवन में मंगल चाहते हो , तो संत सद्गुरु की शरण में जाओ । जैसा कि कहा गया है —
भगति पदारथ तब मिले,जब गुरु होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो,पूरण भाग मिलाय।।
भक्तिरूपी अमोलक वस्तु तब मिलती है जब यथार्थ सतगुरु मिलें और उनका उपदेश प्राप्त हो । जो प्रेम - प्रीति से पूर्ण भक्ति है, वह पुरुषार्थरुपी पूर्ण भाग्योदय से मिलती है ।
पांच तत्वों से बने इस शरीर के भीतर-स्थान में एक अदृश्य ज्ञानस्वरूप चेतन जीव निवास करता है। परंतु सद्गुरु के निर्णय वचनों के प्रमाणों से कोई बिरला इसका भेद ठीक से जान सकता है
सामान्य लोग यही समझते हैं कि यह जड़ तत्वों से निर्मित शरीर ही सब कुछ है। परंतु विचार करने पर साधारण आदमी भी इस बात को समझ सकते हैं कि इस जड़ काया को चलाने वाला इससे भिन्न चेतन जीव है जो इस शरीर में रहकर इसे उसी प्रकार चलाता है जैसे गाड़ी में बैठकर गाड़ी का चालक गाड़ी को चलाता है। यदपि वह आँख से नहीं दिखता, तथापि वह अखंड ज्ञानस्वरूप पदार्थ है। जैसे जैसे वायु पदार्थ होते हुए भी आंखों से नहीं दिखता, वैसे जीव स्वतंत्र पदार्थ होते हुए भी नहीं दिखता। जैसे त्वचा में लगने से और वृक्षादि हिलने से वायु का ज्ञान होता है, वैसे देहो में सुख-दुख का ज्ञान करने वाला होने से जीव का ज्ञान होता है। उसके निकल जाने पर शरीर में कोई ज्ञान नहीं होता है। शरीर नाशवान है, चेतन जीव अविनाशी है।
इसलिए सत्य इच्छुक को चाहिए कि वह किसी बोधवान सद्गुरु के पास जाकर विनम्रतापूर्वक सेवा करते हुए उनके सत्संग द्वारा स्वरूप के रहस्य को समझने की चेष्टा करें। सब कुछ जानना, किंतु अपने को नहीं जाना, सबकुछ पाया, किंतु अपने आप को नहीं पाया तो उसका सब जानना और पाना निरर्थक है। स्वरूप ज्ञान सर्वोच्च ज्ञान है तथा स्वरूप स्थिति सर्वोच्च उपलब्धि है ।
पर्वत ऊपर हर बहै, घोड़ा चढ़ि बसै गाँव ।
बिना फूल भौरा रस चाहें, कहु बिरवा को नाँव ।।
अपनी आत्मा को परम तत्व न समझकर शब्द जालों में पड़े हुए जो अलग परमात्मा या मोक्ष खोजते हैं, वे मानो पत्थर पर हल चलाना चाहते हैं, घोड़े पर चढ़कर उस पर गांव बसाना चाहते हैं और उनका मन भौरा बिना फुलके ही रस चाहता है। कहो भला कल्पना को छोड़कर उस वृक्ष का नाम क्या हो सकता है।
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