माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं। मनुवा तो चहुँदिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं।।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है पर उसका मन दसों दिशाओं में भागता है। यह कोई भक्ति नहीं है।

 प्रार्थना करना कुछ शब्दों को दोहराना नहीं है। प्रार्थना का अर्थ होता है-परमात्मा का मनन और उसकी अनुभूति। प्रार्थना हृदय से की जाती है। प्रार्थना तभी पवित्र होती है, जब मन राग-द्वेष से मुक्त होता है। प्रार्थना का मतलब ही होता है परम की कामना। परम की कामना के लिए क्षुद्र और तुच्छ कामनाओं का परित्याग करना पड़ता है। 

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।

राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार॥

 तुलसी कहते हैं कि जिनकी श्री राम में ममता और सब संसार में समता है, जिनका किसी के प्रति राग, द्वेष, दोष और दुःख का भाव नहीं है, श्री राम के ऐसे भक्त भव सागर से पार हो चुके हैं।

 तुलसी जौं पै राम सों नाहिन सहज सनेह।

 एक बात जो मुझे बहुत अच्छी तरह समझ में आती है वह है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हमारी मानसिक कामनाएँ यानि इच्छाएँ ही हमारे सब बंधनों का कारण है । इनसे मुक्त होने का उपाय भी पता है पर उसके लिए कठोर साधना करनी पड़ती है जो इतनी सरल नहीं है । मात्र संकल्प से कुछ नहीं होता । कोई भी साधना आसानी से नहीं होती, उसके लिए तितिक्षापूर्वक बहुत अधिक कष्ट सहन करना पड़ता है ।

 हम चाहें कितने भी संकल्प कर लें पर ये इच्छाएँ हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगी । इनसे मुक्त होने के लिए सत्संग, भक्ति, निरंतर नाम-जप, शरणागति, ध्यान और समर्पण साधना करनी ही पड़ती है, जो बड़ी कष्टप्रद होती हैं ।बहुत लम्बे अभ्यासके पश्चात जाकर परमात्मा की कृपा से हम कामनाओं से मुक्त हो सकते हैं।

     प्रार्थना भोजन की अपेक्षा करोड़ गुना ज्यादा उपयोगी चीज है । खाना भले ही छूट जाए, लेकिन प्रार्थना कभी न छूटनी चाहिए । प्रार्थना तो आत्मा का भोजन है । यदि हम पूरे दिन ईश्वर का चिंतन किया करें तो बहुत अच्छा, पर चूंकि यह सबके लिए संभव नहीं इसलिए हमें प्रतिदिन कम-से-कम कुछ समय के लिए ईश्वर का स्मरण करना चाहिए ।

     प्रार्थना करना, याचना नहीं है, वह तो आत्मा की सच्ची पुकार है । हम जब अपनी असमर्थता ख़ूब समझ लेते हैं और सब कुछ छोड़कर ईश्वर पर भरोसा करते हैं, तब उसी भावना का फल प्रार्थना है । प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है । इसी से गूंगे, तूतले, मूढ़ सभी प्रार्थना कर सकते हैं, जीभ पर अमृत हो और हृदय में हलाहल हो तो जीभ का अमृत किस काम का ? कागज के गुलाब से सुगंध कैसे निकल सकती है ? 

     प्रार्थना करने का उद्देश्य ईश्वर से संभाषण करना एवं अंतरात्मा की शुद्धि के लिए प्रकाश करना है, ताकि ईश्वर की सहायता से हम अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर सकें । 

 प्रार्थना मन से न  हो तो सब व्यर्थ है । प्रार्थना में जो कुछ बोला जाता है, उसका मनन कर अपने जीवन को वैसे ही बनाने का प्रयत्न करना चाहिए, तभी उसका पूर्ण लाभ है ।

 प्रार्थना करना कुछ शब्दों को दोहराना नहीं है। प्रार्थना का अर्थ होता है-परमात्मा का मनन और उसकी अनुभूति। प्रार्थना हृदय से की जाती है। प्रार्थना तभी पवित्र होती है, जब मन राग-द्वेष से मुक्त होता है।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।

’त्रिपाद एवं एकपाद नाम से ब्रह्म के एश्वर्य का संकेत है। अत: जीव के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ हैं, सबकी याचना परमात्मा से ही करनी चाहिए, अन्य से नहीं।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ॥

 मनुष्य प्रभु-भक्ति करने का दिखावा करता है। वह अपने हाथ में माला का मनका घुमाता हुआ भक्ति का ढोंग करता है, क्योंकि ऐसा करते हुए वह अपने मन पर नियंत्रण नहीं रख पाता। उसका मन चारों दिशाओं में भ्रमण करता रहता है। कवि इस आडंबरपूर्ण एवं दिखावे की भक्ति को प्रभु की सच्ची भक्ति नहीं मानता।

 भक्ति योगी भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण की वृद्धि करने के लिए अपनी आत्मा को समर्पित करते हैं। उनका लक्ष्य भगवान की भक्ति में खो जाना होता है और सभी कार्यों को भगवान के लिए सेवा समझना होता है।

भक्ति मतलब प्रेम एवं समर्पण है।

 अत्यन्त स्पृहाभाव से जो भक्त परमेश्वर में लीन रहते हैं वे परमेश्वर के स्वरूप को जान लेते हैं और उसी में रमण करते हैं। भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं - अत्यन्त स्पृहाभाव से जो मेरा भजन करते हैं वे अतिशय प्रिय आनन्द को प्राप्त करते हैं।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:।।

 अपने मन की शक्ति के माध्यम से स्वयं को ऊपर उठाएं, न कि स्वयं को नीचा दिखाएं, क्योंकि मन स्वयं का मित्र भी हो सकता है और शत्रु भी।

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