माता सीता को जब रावण हरके ले जा रहा था तब मातासीता बहुत प्रकार से विलाप करने लगी जिसको सुनकर सभी जड़-चेतन जीव दुखी हो गए। गीधराज जटायु ने ...
माता सीता को जब रावण हरके ले जा रहा था तब मातासीता बहुत प्रकार से विलाप करने लगी जिसको सुनकर सभी जड़-चेतन जीव दुखी हो गए। गीधराज जटायु ने सीताजी की दुखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुलतिलक श्रीरामचंद्रजी की पत्नी है। नीच राक्षस माता सीता को लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय मलेच्छ के पाले पड़ गयी हो। वह बोला कि हे पुत्री सीते! भय मत करो। और जटायु रावण से युद्ध करने लगा और अपनी चोंचों द्वारा रावण के शरीर को घायल कर दिया तब रावण ने अपनी कटार निकालकर जटायु के पंख काट डाले । जटायु श्रीरामजी की अद्भुत लीलाका स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुछ समय पश्चात श्रीरामजी माता जानकी को खोजते हुए वहां पहुचे जहाँ जटायु श्रीरामजी के चरणों का स्मरण कर रहा था । कृपासागर श्रीरघुवीर ने अपने करकमल से उसके सिर का स्पर्श किया। श्रीरामजी का मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही। तब धीरज धरकर जटायु ने ये वचन कहा – हे जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाले श्रीराम! सुनिए । रावण ने मेरी ये दशा की है उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है। हे प्रभु ! मैंने आपके दर्शनों के लिए प्राण रोक रखे थे । हे कृपानिधान ! अब ये चलना ही चाहते हैं। तब प्रभु श्रीरामजी ने कहा—हे तात! शरीर छोड़कर अब आप मेरे धाम को जाओ और सीताहरण की बात आप जाकर पिताजी से मत कहियेगा। यदि मै राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुंबसहित वहां आकर स्वयं ही कहेगा। अखंड भक्ति का वर मांगकर जटायु श्रीहरि के परमधाम को चला गया। श्रीरामजी ने उसका दाहकर्म यथायोग्य अपने हाथों से किया।
आओ इस प्रसंग के तत्व को समझें।
रावण से युद्ध करने के बाद जब जटायु घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा और दर्द से कराहने लगा तो क्या उसने ये नहीं सोचा होगा कि माता सीता को बचाने का कार्य सर्वश्रेष्ठ कार्य था परन्तु यह करने के बाद भी मेरी यह दुर्दशा हुई, मेरे पंख कट गए, पृथ्वी पर पड़ा हूँ, लहुलुहान हूँ, पीड़ा से कराह रहा हूँ और मृत्यु के निकट हूँ। जैसे हम सब यह सोचतें हैं कि दुसरो का भला करने के बाद भी हम क्यों दुखी रहते हैं। यह जटायु ने भी सोचा होगा। पर यह वही जटायु है जो अपने भाई सम्पाती के साथ सूर्य को पकड़ने गया था और सूर्य के नजदीक पहुंचकर सम्पाती के पंख जलने लगे और यह दोनों वापस लौट आये। मात्र एक छोटे से सूर्य को नहीं पकड़ पाए और अपने पंख भी गवां दिए। लेकिन माता सीता के लिए अपने पंखों की आहुति देने का यह परिणाम हुआ कि जिसके रोम रोम में अनंत कोटि के ब्रह्माण्ड हैं, जिसके प्रकाश से अरबों खरबों सूर्य प्रकाशित होते हैं। उन श्री रामजी को स्वयं चलकर जटायु के पास आना पड़ा, जटायु को उनके पास नहीं जाना पड़ा। जटायु के सिर को गोद में रखकर श्रीरामजी ने कहा अगर आप प्राण रखना चाहते हैं तो प्राण रख सकते हैं। जटायु कहने लगे आपकी गोद में प्राण त्यागने से तो इस शरीर की सार्थकता सिद्ध हो जायेगी। श्रीरामजी ने फिर कहा कि परलोक जाकर मेरे पिता से सीताहरण के बारे में मत कहना और अगर मै राम हूँ तो रावण अपने कुटुंब सहित आकर स्वयं बताएगा अर्थात् मै उसको मार डालूँगा। महात्मा जटायु पहले तो यह सोचकर विस्मित हो गए कि क्या इस मांसभक्षी पक्षी गिद्ध, जिसका जन्म अधम योनी में हुआ है उसको श्रीरामजी वही लोक दे रहें हैं जो लोक श्रीरामजी ने अपने पिता श्री दशरथजी को दिया हैं। तभी तो कह रहे हैं कि वहां जाकर मेरे पिता को सीताहरण के बारे में ना बताना। पुन: जब जटायु ने श्रीरामजी को यह कहते सुना कि रावण अपने कुटुंब सहित जाकर स्वयं श्री दशरथ जी को बताएगा तो जटायु श्रीरामजी के आगे नतमस्तक हो गया कि अपने परम शत्रु रावण को भी क्या श्रीरामजी वही लोक देंगे जो लोक श्रीरामजी ने अपने पिता श्री दशरथ जी को दिया है।
अर्थात् श्रीरामजी से वियोग होने पर श्री दशरथ ने प्राण त्याग दिए और दशमुख रावण के प्राण श्रीरामजी से योग (मिलने पर) होने पर निकले परन्तु दोनों का परिणाम एक ही हुआ। श्रीरामजी को कोई भी जीव प्रेम अथवा वैर से याद करे, परिणाम सुखद होगा।
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