पुराणों में एक कथा मिलती है। एक बार की बात है कि महर्षि जैमिनी के मन में महाभारत, कृष्ण और उसके युद्ध को लेकर कुछ संदेह था। उन्होंने अपने इस संदेह के निवारण के लिए मार्कण्डेय ऋषि से संपर्क किया और उनसे इस संदेह के निवारण का आग्रह किया।
उस समय मार्कण्डेय मुनि के संध्यावंदन का समय हो चला था। उन्होंने जैमिनी ऋषि से कहा कि यदि आपको अपनी शंका का समाधान विस्तार से करना है तो विंध्याचल में पिंगाक्ष, निवोध, सुपुत्र और सुमुख नाम के 4 पक्षी हैं। ये चारों पक्षी द्रोण के पुत्र हैं, जो वेद और शास्त्रों में पारंगत हैं। उनसे तुम अपनी शंकाओं का निवारण कर सकते हो। उन 4 पक्षियों का पालन-पोषण शमीक ऋषि करते हैं।
यह सुनकर जैमिनी ऋषि ने विस्मित होकर पूछा कि पक्षी द्रोण के पुत्र कैसे हो सकते हैं? मानवों की भाषा का ज्ञान पक्षियों को कैसे हो सकता है? वे कैसे मेरी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं?
यह सुनकर मार्कण्डेय ने कहा कि एक बार की बात है। देवमुनि नारद अमरावती नगर पहुंचे। अमरावती के इंद्र, महेंद्र ने नारद का स्वागत-सत्कार किया और उनको बिठाकर कहा कि देवमुनि, आपको विदित ही है कि देवसभा में रंभा, ऊर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका, घृतांचि, उर्वशी आदि देव गणिकाएं, अप्सराएं और नर्तकियां हैं। आपके विचार से इनमें से श्रेष्ठ कौन है?
नारद ने उन अप्सराओं को संबोधित कर पूछा कि हे देव गणिकाओं, तुम लोगों में से जो अधिक सुंदर, सरस-संलाप आदि विधाओं में श्रेष्ठ हैं, वही हमारे समक्ष नृत्य करें। नारद का प्रश्न सुनकर सभी अप्सराएं मौन रहीं। तब इंद्र ने नारद से कहा कि देवर्षि इन अप्सराओं में से आप ही स्वयं श्रेष्ठ सुंदरी का चयन करें। इस पर नारद ने देव नर्तकियों से कहा कि तुम लोगों में जो नर्तकी दुर्वासा को मोह-जाल में बांध सकती है, वही मेरी दृष्टि में श्रेष्ठ है।
नारद के वचन सुनकर सभी देव नर्तकियां फिर से मौन रह गईं, लेकिन वपु नामक एक अप्सरा अपने स्थान से उठकर बोली कि मैं मुनि दुर्वासा का तपोभंग कर सकती हूं। वपु का दृढ़ निश्चय देख महेंद्र ने प्रसन्न होकर कहा कि यदि तुम मुनि दुर्वासा के असाधारण तप को भंग कर दोगी तो मैं तुम्हें मुंहमांगा इनाम दूंगा।
मुनि दुर्वासा उस समय हिमाचल प्रदेश में घोर तपस्या कर रहे थे। अप्सरा वपु दुर्वासा मुनि के आश्रम के पास पहुंचकर मधुर संगीत का आलाप करने लगी। संगीत के माधुर्य पर मुग्ध हो मुनि दुर्वासा अपनी तपस्या बंद कर देव कन्या के समीप पहुंचे। अपना तपोभंग करने वाली देवांगना को देख क्रुद्ध हो दुर्वासा ने श्राप दिया कि हे देव कन्ये, तुम मेरी तपस्या में विघ्न डालने के षड्यंत्र से यहां पर आई हो इसलिए तुम गरुड़ कुल में पक्षी बनकर जन्म धारण करोगी।
अप्सरा वपु भयभीत हो गई और उसने दुर्वासा मुनि से अपने अपराध की क्षमा मांगी। वपु पर दया करके महर्षि दुर्वासा ने कहा कि तुम 16 वर्ष पक्षी रूप में जीवित रहकर 4 पुत्रों को जन्म दोगी, तदनंतर बाण से घायल होकर प्राण त्याग करके पूर्व रूप को प्राप्त करोगी।
दुर्वासा मुनि के श्राप के प्रभाव से वपु ने गरुड़वंशीय कंधर नामक पक्षी की पत्नी मदनिका के गर्भ से केक पक्षिणी के रूप में जन्म लिया। उसका नाम तार्क्षी था। बाद में उसका विवाह मंदपाल के पुत्र द्रोण से विवाह किया गया। 16 वर्ष की आयु में उसने गर्भ धारण किया। इसी अवस्था में उसके मन में महाभारत का युद्ध देखने की इच्छा जाग्रत हुई।
वह आकाश में उड़ रही थी उसी समय अर्जुन ने अपनी किसी शत्रु के ऊपर बाण का संधान किया था। दुर्भाग्यवश यह बाण तार्क्षी के पंखों को छेदता हुआ निकल गया और वह अपने गर्भस्त्र अंडों को गिराकर स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त होकर पुन: अपने अप्सरा स्वरूप में आकर देवलोक चली गई। लेकिन उसके अंडे गर्भ-विच्छेद के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े। संयोगवश उसी समय युद्ध लड़ रहे भगदत्त के सुप्रवीक नामक गजराज का विशालकाय गलघंट भी बाण लगने से टूटकर गिरा और उसने अंडों को आच्छादित (ढंक लिया) कर दिया।
कुछ समय बाद उन अंडों से बच्चे निकले। तभी उस समय मार्ग से विचरण करते हुए मुनि शमीक आ निकले। मुनि उन पक्षी शावकों पर अनुकंपा करके अपने आश्रम में ले जाकर पालने लगे। कुछ समय बाद वे परिपुष्ट होकर मनुष्य की वाणी बोलते हुए अपने गुरु यानी मुनि को प्रणाम करने गए। मुनिवर शमीक ने विस्मित होकर उनसे पूछा कि तुम कैसे यह वाणी बोलते हो? तब उन चारों पक्षियों ने अपने पूर्व जन्म का वृत्तांत सुनाया।
उन्होंने कहा कि मुनिवर प्राचीनकाल में विपुल नामक एक तपस्वी ऋषि थे। उनके सुकृत और तुंबुर नाम के दो पुत्र हुए। हम चारों सुकृत के पुत्र थे। एक दिन इंद्र ने पक्षी के रूप में हमारे पिता के आश्रम में पहुंचकर मनुष्य का मांस मांगा। हमारे पिता ने हमें आदेश दिया कि हम पितृऋण चुकाने के लिए इंद्र का आहार बनें। हमने नहीं माना। इस पर हमारे पिता ने हमें पक्षी रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया और स्वयं पक्षी का आहार बनने के लिए तैयार हो गए। तब इंद्र ने प्रसन्न होकर हमारे पिता से कहा कि मुनिवर, आपकी परीक्षा लेने के लिए मैंने मनुष्य का मांस मांगा था। आप बड़े दयालु हैं, मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। यह कहकर इंद्र अपने लोक चले गए।
हे गुरुवर, इसके बाद हमने अपने पिता से कहा कि पिताजी आप हम पर कृपा करके हमें श्राप से मुक्त कर दीजिए। हमारे पिता ने अनुग्रह करके हमें श्रापमुक्त होने का उपाय बताया कि पुत्रो, तुम लोग पक्षी रूप में ज्ञानी बनकर कुछ दिन विंध्याचल पर्वत की कंदरा में निवास करोगे। महर्षि जैमिनी तुम्हारे पास आकर अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिए तुम लोगों से प्रार्थना करेंगे, तब तुम लोग मेरे श्राप से मुक्त हो जाओगे। इस कारण हम पक्षी बन गए।
उपरोक्त सारा वृत्तांत सुनकर शमीक ने उन्हें समझाया कि तुम लोग शीघ्र विंध्याचल में चले जाओ। मुनि शमीक के आदेशानुसार केक पक्षी विंध्याचल में जाकर निवास करने लगे।...यह कथा सुनाकर मार्कण्डेय मुनि ने जैमिनी ऋषि से कहा कि इसीलिए हे जैमिनी, तुम विंध्याचल में जाकर उन पक्षियों से अपनी शंका का समाधान कर लो।
जैमिनी महर्षि विंध्याचल पहुंचे और उन्होंने वहां उच्च स्वर में वेदों का पाठ करते पक्षियों को देखा। यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। जब जैमिनी ने उन चारों पक्षियों को प्रणाम किया और उनसे अपने 4 प्रश्न उनसे पूछे।
ये चार प्रश्न इस प्रकार थे —
1. इस जगत के कर्ता-धर्ता भगवान ने मनुष्य का जन्म क्यों लिया?
2. राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी पांच पतियों की पत्नी क्यों बनी?
3. श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम ने किस कारण तीर्थयात्राएं कीं?
4. द्रौपदी के पांच पुत्र उपपांडवों की ऐसी जघन्य मृत्यु क्यों हुई?
चारों पक्षियों ने ऋषि जैमिनी की शंका का समाधान करने के लिए एक बहुत ही लंबी कथा सुनाई और जैमिनी ऋषि उसे सुनकर संतुष्ट हो गए। इस तरह चारों पक्षियों को भी पक्षी योनि से मुक्ति मिली।
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