भवितव्यता (होनहार ) होती है वैसी हीं सहायता मिलती है। या तो वह सहायता अपने आप स्वयं आ जाती है या वह व्यक्ति को वहाॅ ले जाती है।
इसका तात्पर्य है कि हमारे साथ जो भी होना होता है हमें उसी प्रकार की सहायता अर्थात उसी से समबन्धित सहयोग अपने आप मिल जाता है। यह सहयोग, किसी व्यक्ति के रूप में अथवा परिस्थिति के रूप में हमें उसी घटना की तरफ खींचकर ले जाता है जो हमारे साथ घटित होना है। हमारे द्वारा किये गए पिछले कई जन्मों के कर्मों के निर्धारण अनुसार होनहार हमारे लिए अच्छी भी हो सकती है और हमारे लिए हानिकारक भी। यदि हमें किसी कार्य को करने से लाभ होना है तो उसी प्रकार के सहयोगी हमें अपने आप मिल जाते हैं। इसी प्रकार यदि हानि होना है तो भी इस प्रकार की परिस्थितयां अपने आप निर्मित होती हैं जो कि हम समझ नहीं सकते हैं।
यदि हम अच्छी विचारधारा के साथ सद्कर्म करते रहेंगे तो हमारे साथ होनी अच्छी ही घटित होगी जिसके लिए सहायता अपने आप मिलती जाएगी।
"भवितव्यता खलु बलवती ।"
निश्चय ही भावी, होनी बलवान है ,उसे कोई भी टाल नहीं सकता।
तुलसीदास दास जी लिखते है कि -
सुनहु भरत भावी प्रबल,
बिलखि कहेहु मुनिनाथ।।
हानि लाभ जीवन मरण,
यश अपयश विधि हाथ।।
जो नियंता की नियति है वह इतनी प्रबल है उसे हम पढ़ नहीं पाते। जान नहीं पाते। क्या नियत हुआ है हमारे लिए ,हमारा भवितव्य क्या है हम जान नहीं पाते।
हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश व अपयश यह छह वस्तु भगवान के हाथ में होती है, मनुष्य के हाथ में नहीं।
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो विधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ् न मेटनिहार ।।
विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते॥
"कल्याणमनुकर्तव्यं पुरुषेण बुभूषता।"
ऐश्वर्य के इच्छुक को कल्याणकारी कर्म करना चाहिये।
"वाक्कायमनसा नाचरेदशुभम्"
मनुष्य दूसरों के जिस कर्म की निंदा करे (अशुभम्), उसी को स्वयं वाक्, काया और मन (मनसा वाचा कर्मणा) से भी न करे। "
"न आचरेत्" इसका दूसरा अर्थ है कि किसी की भी निंदा से बचें ।
"शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्"
अर्थात् शरीर ही धर्म का पहला और उत्तम साधन है। व शरीर ही धर्म को जानने का माध्यम है। इस तन में ही हम अपनी वास्तविकता को समझ सकते हैं कि हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं और कहाँ जाना है?
अब भला ऐसा क्यों कहा गया है, इसे समझने का प्रयास करेंगे।
धर्म का क्या अर्थ होता है?
धर्म शब्द "धृञ्" धातु से निकला है, जिसका मतलब होता है- धारण करना।
"धारणाद् धर्मं इति आहुः"
अर्थात् जिसे धारण किया जाता है, वही धर्म है।
शास्त्रों में कहा गया है- मनुष्यों में और पशुओं में यदि कुछ भेद है, तो वह है धर्म का। ऐसा क्या है धर्म में?
किस धर्म को धारण कर मनुष्य -मनुष्य बनता है?
विवेकानंद जी ने स्पष्ट शब्दों में धर्म को परिभाषित किया।
''Religion is the Realization of God- धर्म परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति है।"
आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, उससे तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार कर लेना - यही वास्तविक धर्म है।
इस शरीर के माध्यम से ही उस वास्तविक धर्म, ईश्वर व जीवन के वास्तविक लक्ष्य तक हम पहुँच सकते है।
thanks for a lovly feedback