सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा।
धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥
भावार्थ:-वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो॥
धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।
एक बार भगवान वेदव्यासजी से राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने पूछा—‘सम्राट युधिष्ठिर धर्म के अवतार ‘धर्मराज’ थे । उन्होंने राजसूय-यज्ञ किया और यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को प्रचुर मात्रा में दक्षिणा दी गयी । उस यज्ञ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उपस्थित रहकर ब्राह्मणों की जूठी पत्तलें उठायीं । भारद्वाज आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने उस यज्ञ कार्य को सम्पादित किया । वेद-मन्त्रों से यज्ञ में आहुतियां दी गयीं । एक महीने तक यज्ञ चला, अंत में पूर्णाहुति दी गयी । इस प्रकार भाव और विधि-विधान में कोई कमी नहीं रखी गयी; किन्तु इस यज्ञ का परिणाम क्या हुआ ?
इस यज्ञ को सम्पन्न करने के एक महीने के बाद ही पाण्डवों को घोर कष्ट उठाना पड़ा। वे जुए में हार गए, भरी सभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटा गया, पाण्डवों को अत्यन्त कष्टमय वनवास भोगना पड़ा। अज्ञातवास में उन्हें राजा विराट के यहां नौकरी करनी पड़ी । द्रौपदी को दासी का अपमानजनक कार्य करना पड़ा और कीचक ने उसे अत्यन्त कष्ट दिया अर्थात् पांडवों को कष्ट-ही-कष्ट हुआ । तब राजसूय यज्ञ से होने वाला सुफल कहां चला गया ?’
सत्कर्म करते समय रखें इस बात का ध्यान !
सत्कर्म करने पर भी यदि विपरीत परिणाम प्राप्त हो, तो अवश्य सोचना चाहिए कि कार्य करने में कोई कमी अवश्य रह गयी । सम्राट युधिष्ठिर द्वारा किया गया राजसूय-यज्ञ इसलिए सफल नहीं हुआ क्योंकि वह यज्ञ राजस-यज्ञ था— उसमें बहुत अधिक धन व्यय किया गया ।
राजसूय-यज्ञ में आए सभी राजा बहुमूल्य रत्नों की भेंट लाए थे । सभी राजाओं ने होड़ लगाकर युधिष्ठिर को धन दिया । किसी ने भी एक हजार स्वर्ण मुद्राओं से कम भेंट नहीं दी थी । सभी राजा चाहते थे कि युधिष्ठिर मेरे द्वारा दिए गए धन से यज्ञ सम्पन्न करें । अत: यज्ञ में दूसरों से उपहारस्वरूप प्राप्त धन का प्रयोग किया गया।
पशु बलि के लिए सुन्दर यूप (खम्भे) गाड़े गए थे, और यह यज्ञ बड़े अभिमानपूर्वक किया गया था, अत: अहंकार को बढ़ाने वाला था,भगवान वेदव्यास ने जनमेजय को बताया—
अन्यायोपार्जितेनैव द्रव्येण सुकृतं कृतम् ।
न कीर्तिरिहलोके च परलोके न तत्फलम् ।।
(देवीभागवत ३।१२।८)
अर्थात्—कार्य की सफलता के लिए धन की शुद्धि परम आवश्यक है क्योंकि अन्याय से कमाये हुए धन द्वारा जो पुण्य कार्य किया जाता है, वह न तो इस लोक में कीर्ति दे सकता है और न परलोक में ही उसका कुछ फल मिलता है ।
धन के प्रकार !
शास्त्रों में गृहस्थ मनुष्य की धन-सम्पत्ति तीन प्रकार की बतायी गयी है—१. शुक्ल, २. शबल और ३. असित या काला या कृष्ण धन ।
१. शुक्ल धन—अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कार्य करने पर न्यायपूर्वक जो कुछ भी धन-सम्पत्ति प्राप्त होती है, वह ‘शुक्ल धन’ कहलाता है ।
२. शबल धन— दूसरे के व्यापार से अर्जित, घूस, कर से अर्जित धन और जो सम्पत्ति बेचने योग्य नहीं है उसके बेचने से प्राप्त धन या दूसरे से उपकार के बदले में प्राप्त धन ‘शबल धन’ कहलाता है ।
३. असित या कृष्ण या काला धन — छल-कपट, ठगी, बेईमानी, जुआ, चोरी, मिलावट, डकैती, ब्याज और बुरे कार्य से प्राप्त धन ‘कृष्ण धन’ या ‘काला धन’ कहलाता है ।
मनुष्य जिस प्रकार के धन से पुण्य कार्य करता है, उसका फल भी उसे उसी प्रकार मिलता है । न्याय से अर्जित धन से किया गया सत्कर्म लोक-परलोक सब जगह शान्ति देने वाला व सब प्रकार की उन्नति करने वाला होता है । यदि शबल धन से सत्कर्म किया जाए तो उसका फल मध्यम कोटि का होता है । किन्तु अन्याय के धन से किये गये सत्कर्म से लाभ की जगह हानि और पतन ही होता है ।
राजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ में जिस धन का प्रयोग किया था, वह विभिन्न देशों के राजाओं को कर व लूटपाट द्वारा प्राप्त हुआ था । दूसरों से प्राप्त भेंट व उपहार में प्राप्त धन न्यायपूर्वक उपार्जित धन नहीं है, वह एक प्रकार का कृष्ण धन (काला धन) ही है, तो फिर सफलता कैसे मिलती ?
इस प्रसंग से हमें यही शिक्षा लेनी चाहिए कि जब साक्षात् धर्मराज की काले धन ने ऐसी स्थिति कर दी तो फिर सामान्य मनुष्य की तो बात ही क्या ? काला धन मनुष्य के विनाश का कारण बन जाता है।
आज समाज में धार्मिक आयोजन विशाल पैमाने पर और बहुत अधिक संख्या में आयोजित हो रहे हैं, फिर भी चारों तरफ अशान्ति और असंतुष्टि छाई हुई है क्योंकि ऐसे आयोजनों में केवल दिखावा, आडम्बर, और समाज में अपना दबदबा स्थापित करने का ध्यान रखा जाता है।
जबकि पुराने समय में धार्मिक कार्य कम संख्या में होते थे किन्तु उनमें धन-क्रिया-मन्त्र-विधान की शुद्धि का बहुत ध्यान रखा जाता था। यजमान और होता दोनों ही आडम्बररहित होकर पूरे विधि-विधान का पालन करते थे, इसी से वे सत्कर्म पूर्ण फलदायी होते थे।
देवीभागवत में इसका समाधान बताते हुए कहा गया है कि सात्विक यज्ञ सबके लिए सम्भव नहीं क्योंकि धन की शुद्धि, श्रद्धा, कर्म, ब्राह्मण, समय व स्थान में कमियां रह सकती हैं । अत: मोक्ष की कामना वाले मनुष्य को मानस-यज्ञ करना चाहिए।
मानस-यज्ञ के लिए मन व शरीर को पूर्णत: शुद्ध कर मन से ही यज्ञ-मंडप व यज्ञ-वेदी की स्थापना कर मानसिक अग्नि प्रज्ज्वलित करें । परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए मन में कल्पना करके मानसिक हवन-सामग्रियों से अपने प्राण रूपी अग्नि में आहुति देनी चाहिए। फिर शांत चित्त से परमात्मा के ध्यान में लीन हो जाएं । इस प्रक्रिया से मनुष्य के सारे सांसारिक प्रपंच मानस-यज्ञ में जल जाते हैं और वह जीवन्मुक्त हो जाता है ।
जहँ जहँ जाऊँ सोइ परिक्रमा,
जोइ जोइ करूँ सो पूजा।
सहज समाधि सदा उर राखूँ,
भाव मिटा दूँ दूजा।।
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