महान राजा भोज की यह प्रिय राजधानी,जिसकी समृद्धि का गुणगान आज भी किया जाता है !

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 मध्यप्रदेश में धार आज एक कोने के जनजातीय अंचल का शहर है। लेकिन परमार राजवंश के सबसे महान राजा भोज की यह प्रिय राजधानी थी, जिसे धारा नगरी कहा जाता था।

  लगभग तीन सौ साल राज करने के बाद एक दिन परमारों का वैभव समाप्त हो गया और पीछे छूट गई उनकी बेमिसाल स्मृतियाँ। अपने विशाल राज्य की सीमाओं में परमारों की हर पीढ़ी ने पत्थरों पर अपनी रचनाशीलता के प्रमाण छोड़े थे। मध्यप्रदेश में ही बुंदेलखंड की सीमाओं से लेकर आज के राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के भीतर तक उनका राज्य विस्तृत था। सैकड़ों मंदिर और पाठशालाएं बनवाई गई थीं, जिनके खंडहर आज भी अपने बुलंद अतीत की गवाही देते हैं।

  राजधानी धार के विवरण एक वैभवशाली नगर के हैं, जहां राजा भोज ने तीन में से एक सरस्वती कंठाभरण का निर्माण कराया था। यह सरस्वती का मंदिर और संस्कृत का नॉलेज सेंटर था, जहां देश भर के विद्वानों की परिषद जमा होती थी। भोज सिर्फ राजा भर नहीं थे। वे अपने समय के अत्यंत प्रतिभाशाली और कला प्रेमी शासक थे, जिन्होंने कई विषयों पर पुस्तकें लिखीं। वे वास्तु के जानकार थे, जिन्होंने समरांगण सूत्रधार जैसे ग्रंथ रचे।

  भोपाल का बड़ा तालाब उनके ही समय बने मानवनिर्मित बांध पर फैला हुआ है। चौक बाजार वाले पुराने भोपाल की चोकोर बसाहट के रचनाकार वे ही थे। वह एक हजार साल पुराने नक्शे पर काफी हद तक बची हुई देश की एकमात्र नगर रचना का बेजोड़ उदाहरण है। भोजपुर की चट्टान पर शिव मंदिर का अधूरा प्रोजेक्ट उनके समय का ही है। बांध, बावड़ियों और जलाशयों के रूप विशाल जल सरंचनाएं बनवाने में परमारों का कोई मुकाबला नहीं था।

  इल्तुतमिश और खिलजियों के हाथों बरबाद विदिशा में बीजामंडल और तुगलक के कब्जे में आने के बावजूद किसी चमत्कार से उदयपुर में पूरी ऊंचाई में बचा रह गया शिव मंदिर परमारों के ही हस्ताक्षर हैं। गांव-गांव में उनके स्थापत्य के नमूने बिखरे हुए हैं। उज्जैन के अनंतपेठ मोहल्ले में बिना नींव की मस्जिद के पत्थरों की पुकार सुनिए, वह परमारों का ही पता बताते हैं। वसंतपंचमी जैसे अवसरों पर हमें इन स्थानों की यात्रा के प्रसंग आयोजित करने चाहिए।

 वसंत पंचमी का दिन भारत के उसी वैभव को स्मरण करने का दिन है। देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां भी बरबादी की इबारतें मध्यकाल के मुस्लिम हमलावर लुटेरों के जत्थों के हाथों हुईं। नालंदा से लेकर सरस्वती कंठाभरण तक सब कुछ लूटकर बेरहमी से बरबाद किया गया। उन खानाबदोश जाहिलों के लिए ये बुतखाने थे, जिन्हें तोड़-गिराने के आकाशीय आदेश उन्हें धरती की सबसे आखिरी पुस्तक से प्राप्त थे, क्योंकि उसके बाद ईश्वर ने छापेखाने बंद कर दिए थे और दिमागों पर ढक्कन लगा दिए थे ताकि कोई दूसरी किताब न लिख सके, न छप सके।

  वे अंधड़ भी गुजर गए। लेकिन अपने पीछे बरबादी की लंबी दास्तानें छोड़ गए। सिर्फ पत्थरों से बनी इमारतों की पहचानें ही नहीं बदली गई थीं, लोगों से भी उनकी पहचानें छीनी गई थीं, उनके धर्म छीन लिए गए थे। सरस्वती कंठाभरण के मलबे को भाेजशाला बना दिया गया था। शहरों के नाम बदलकर इलाहाबाद और होशंगाबाद कर दिए गए थे। मगर कोई यह न भूले कि हर होशंग के पीछे एक नर्मदा प्रसाद या देवी नर्मदा की आहें और कराहें हैं, जो सुनी जानी शेष हैं। इतिहास से बेखबरी ने यह विवेक भी छीन लिया कि हम किन पर गर्व करें और किन पर शर्म करें।

 भूली भटकी स्मृतियों वाले इबादतगाहों पर अपने दावे ठोकते हैं, जिनके पुरखों ने ही ये सरस्वती कंठाभरण बनाए थे या नालंदा जैसे विश्वविद्यालय खड़े किए थे और जिनसे तलवारों के जोर पर उनकी पहचानें छीन ली गई थीं। यह सत्य है। भले ही कुछ कड़वा हो। आजाद भारत के सेक्युलर निजाम ने इतिहास को एक मजार बना दिया और उस पर झूठ की चादर पेश कर दी। वेाटों की घृणित राजनीति ने यह पाप कराया।

  वसंतपंचमी का दिन ज्ञान की देवी सरस्वती का दिन है। राजा भोज की आराध्य, जिन्होंने सरस्वती कंठाभरण जैसे महान योगदान भारत की संस्कृति में जोड़े थे। यही कामना की जाए कि देवी बंद दिमागों के ढक्कन खोलें ताकि अपने आहत अतीत की पुकार कानों में सुनाई दे सके। हम उस पर गर्व करें जो गर्व करने लायक है और उस पर शर्म करें, जो शर्म करने लायक हैं। कम से कम इतना बुद्धि-विवेक भी आ जाए तो भारत एक बड़े भूल सुधार के लिए तैयार हो सकता है।

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