बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥ पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ राम चरित मानस में संतशिरोमणि...
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें।
उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
राम चरित मानस में संतशिरोमणि तुलसीदास जी यदि संतों की बंदना करते हैं तो साथ में दुष्टों की बंदना करते हैं। कहते हैं कि —
अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है, लेकिन हम संतों को प्रणाम करते हैं जिनमें हमेशा परोपकार की भावना होती है। दुष्टों से दूर भागते हैं —
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते ।
साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु।।
ब्राह्मण अच्छे भोजन से तृप्त होते है. मोर मेघ गर्जना से, साधु दूसरों की सम्पन्नता देखकर और दुष्ट दूसरों की विपदा देखकर संतुष्ट होते हैं।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया॥
जगत में दरिद्रता यानी गरीबी के समान कोई दुख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत में कोई सुख नहीं है। क्योंकि मन, वचन और शरीर से परोपकार करना ही संतों का सहज स्वभाव है। महान संत आपको अच्छे विचार देते हैं, जिससे आप समाज की भलाई के लिए काम करते हैं।
परोपकार करने वाले को भगवान हर समय खड़ा होकर सहायता करते हैं। रामचरित मानस में तुलसी दास ने परोपकार धर्म की बहुत अच्छी व्याख्या की है। कहा कि त्रेता काल में पशु-पक्षी भी भगवान भक्त थे। उनमें भी परोपकार की भावना थी। जब माता सीता को रावण हरण कर ले जा रहा था तो नर-देवता किसी ने अपना धर्म निर्वहन नहीं किया। उस समय एक गिद्ध ने इन सब से ऊपर उठकर धर्म निभाया। वह रावण से लड़ने को तैयार हुआ। उसने अपनी चोंच से रावण को घायल का मूर्च्छित कर दिया। रावण ने क्रोध में आकर उस पर तलवार चलाकर घायल कर दिया।
तनु तिज तात जाहु मम धामा।
देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥
भगवान ने गिद्ध के इस परोपकार को मोक्ष देकर निभाया।
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।
जिस मनुष्य के हृदय में परोपकार बसा हुआ है , वहाँ विपत्ति आ ही नहीं सकती , वहाँ तो नित्यप्रति समृद्धि ही आती है।
परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम् ।
स नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदःस्युः पदे पदे ॥
इस पृथ्वी पर परोपकार से बड़ा कोई पुण्य नहीं है।
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः ।
नादन्ति शस्यं खलु वारिवाहाः
परोपकाराय सतां विभूतयः ॥
नदियाँ अपना पानी स्वयं नहीं पीती हैं, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं, बादल (स्वयं से उगाया हुआ) अनाज नहीं खाते हैं। इसी प्रकार सत्पुरुषों का जीवन परोपकार के लिए ही होता है।
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥
परोपकार करनें वाले सज्जन पुरुष पुण्य के लिए काम करते हैं । वहीं दुष्ट पुरुष दूसरे को पीड़ा पहुंचाने में प्रसन्नता रखते हुए पाप करते हैं ।
दूसरों की निःस्वार्थ भाव से सेवा करना है। किसी का भला या दुःखों का निवारण निष्काम भाव से करना ही परोपकार होता है, लेकिन आज कल परोपकार का अर्थ ही दिखावा है, निःस्वार्थ भाव कुछ भी नहीं, व्यापार बन गया है।
आज किसी मरीज को अस्पताल में देखने जाते हैं तो दो केला देते हुए चार आदमी फोटो खिंचवाते हैं, और बड़े गर्व से समाचारपत्र एवं फेसबुक पर शेयर करते हैं, बेचारा मरीज़ भी यह सब देखकर सोचता होगा कि हे प्रभु इतनी बदनामी से तो अच्छी मौत ही थी।
सब नाटक है हो, मात्र दिखावा और कुछ नहीं, लोग भगवान को भी नहीं छोड़ते, जाने दीजिए प्रभु सबका कल्याण करेंगे।
काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।।
विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है।
जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
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