मैं प्रलयरात्रि में जग कर,
जीवन सागर को मथ कर,
विकराल गरल को पीकर ,
पीयूष कलश छलका कर , अभिनन्दन बाँट रहा हूँ ।
जलते ललाट पर जग के , मैं चन्दन बाँट रहा हूँ ।।
मैं महाविष्णु वामन हूँ ,
अग जग का जीवनधन हूँ ,
मैं पौरुष का . यौवन हूँ ,
मैं क्षीरपयोनिधि मथ कर, दुःख जग के काट रहा हूँ।
चिन्तातुर मानवता हित , मैं चन्दन बाँट रहा हूँ।।
मैं अवधरत्न अद्भुत हूँ ,
वधहीन धरा संप्लुत हूँ,
मैं सरयू जल .प्लावित हूँ,
मैं रोम रोम में रमता , संबोधन बाँट रहा हूँ ।
मैं राम धर्मरक्षण हित संशोधन बाँट रहा हूँ ।।
मैं द्वापर का नायक हूँ,
मैं गीता का गायक हूँ ,
मैं तो अमोघ सायक हूँ,
मैं पार्थसखा गीता का , उद्बोधन बाँट रहा हूँ ।
मैं व्रज्याव्रत गौतम को नव स्यन्दन बाँट रहा हूँ ।।
मैं हर युग का अक्षर हूँ ,
जग जड़. है, मैं संचर हूँ,
मैं ऋषिप्रदत्त शुभ वर हूँ ,
मैं आराधन का स्वर बन,भवबन्धन काट रहा हूँ।
मेरे स्वर में मिल जाओ , अमृतद्रव बाँट रहा हूँ ।।
"प्रणव"
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