तुलसी काया खेत है, मनसा भयौ किसान। पाप पुण्य दोउ बीज हैं, बुवै सौ लुनै निदान ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  तुलसीदास जी कहते हैं कि हमारा यह शरीर एक खेत है और मन किसान है तथा पाप व पुण्य दोनों बीज हैं। इस प्रकार खेत में जिस प्रकार का बीज बो कर खेती होती है, वैसी फसल प्राप्त होती है। उसी प्रकार शरीर रूपी खेत में मन रूपी किसान पाप-पुण्य दोनों के बीज डालता है। इनमें से जो भी बीज किसान बोता है, उसी की फसल भी काटता है। अर्थात् मनुष्य का मन ही पाप व पुण्य दोनों में से किसी एक की ओर आकर्षित होता है। हम जैसा बोयेंगे, वैसा ही फल पायेंगे अर्थात् अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा मिलेगा।

न दैवमपि सञ्चित्य त्यजेदुद्योगमात्मनः।

अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति॥

  दैव यानी भाग्य का विचार करके व्यक्ति को कार्य-संपादन का अपना प्रयास त्याग नहीं देना चाहिए।भला समुचित प्रयास के बिना कौन तिलों से तेल प्राप्त कर सकता है ?

  भाग्य कर्म से ही बनता है। हम जैसे काम करते हैं वैसा ही हमारे भाग्य का निर्माण होता है। हम अपने कर्म पर टीके रहें। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम कोई काम पूरी मेहनत से करते हैं, लेकिन फिर भी नतीजे विपरीत आते हैं। ऐसे में कुछ लोगों को कहने का मौका मिल जाता है कि हमारी किस्मत में ऐसा ही लिखा था। दरअसल जब भी किसी काम का नतीजा संतुष्टि देने वाला न हो तो अतीत में देखना चाहिए कि आपसे कहां चूक हुई थी। 

  श्रीराम को वनवास हो चुका था। राम, सीता और लक्ष्मण तीनों वन के लिए जा रहे थे। तब राजा दशरथ इस पूरी घटना को नियति का खेल बता रहे थे। वो ये सब भाग्य का लिखा मान रहे थे। राम के जाने के बाद जब वे अकेले कौशल्या के साथ थे तो उन्हें अपनी गलतियां नजर आने लगी। उनसे युवावस्था में श्रवण कुमार की हत्या हुई थी, दशरथ को याद आ गया। बूढ़े मां-बाप से उनका एकलौता सहारा छिन गया था। ये सब उसी का परिणाम है। हर परिणाम के पीछे कोई कर्म जरूर होता है। बिना कर्म हमारे जीवन में कोई परिणाम आ ही नहीं सकता। अपने कर्मों पर नजर रखें। तभी आप भाग्य को समझ सकेंगे।

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय ।

ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोय॥

 कबीर दास जी कहते हैं, देह धारण करने का भोग (दंड) व प्रारब्ध निश्चित है, जो सब को भुगतना होता है। अंतर केवल इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को समझदारी से भोगता है और संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए, दुखी मन से सब कुछ झेलता है ।

 भगवान में मन लगाएँ और देह को प्रारब्ध पर छोड़ें।

  सचमुच, प्रारब्ध के भोग किसी के भी नहीं टलते। प्रारब्ध का संबंध देह तक ही होता है, मन से नहीं होता। देह को प्रारब्ध से सुख दुःख मिलता है। दुःख को कोई नहीं चाहता, किंतु दुःख आता ही है। सुख का भी वैसा ही है। प्रारब्ध यानी कृत कर्मों का फल। यह अच्छा या बुरा भी हो सकता है।

   सुख के भोग आए तो आदमी को कुछ लगता नहीं, किन्तु दुःख का प्रसंग आने पर वह कहता है, 'मैंने भगवान की इतनी सेवा की, मैं फलाने फलाने सत्पुरुष का शिष्य हूँ, फिर भी मुझे ऐसा दुःख क्यों भुगतना पड़ता है?' किन्तु वह यह नहीं समझता कि यह सब उसी के कर्म का फल है, उसमें भगवान या संत क्या करें?

  मान लो, हमें कुछ पैसों की जरुरत है और हमारी पहचान का या करीब का कोई रिश्तेदार किसी बड़े बैंक का मैनेजर है, लेकिन हमारे खुद के नाम पर यदि बैंक में पैसा जमा न हो तो वह मैनेजर कुछ भी नहीं कर सकेगा। बहुत हुआ तो वह अपनी खुद की जेब से कुछ पैसे निकाल कर हमें देगा।

  उसी प्रकार हमारे नसीब में यदि सुख नहीं है तो वह हमें कहाँ से मिलेगा? बहुत हुआ तो कोई संत आवश्यकता अनुसार हमारा दुःख खुद भोगकर हमारा बोझ हल्का करेगा, बस।

सुखाय कर्माणि करोति लोको 

न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा।

विन्देत भूयस्तत एव दुःखं 

यदत्र युक्तं भगवान् वदेनः।।

  सभी लोग सुख प्राप्त करने के लिए साकाम कर्मों में संलग्न रहते हैं किन्तु फिर भी उन्हें इससे संतोष नहीं मिलता अपितु फल के प्रति आसक्त होकर कर्म करने से उनके कष्ट और अधिक बढ़ जाते हैं।

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।

  कभी कभी लोग जिस जन्म में कर्म करते हैं, किसी कारण से उसी जन्म में कर्म का फल नहीं भोग पाते हैं। ऐसी परिस्थिति में वह कर्म जमा हो जाता है, जिसे संचित कर्म कहते हैं। कालान्तर में जब परमात्मा उसी संचित कर्म से कुछ कर्म का फल हमें भोगने देते हैं, तब उसे प्रारब्ध या भाग्य कहते हैं।

  इसलिए अपने प्रारब्ध से प्राप्त भले-बुरे फल हम देह से भोगें और मन से भगवान का स्मरण बनाएँ रखें। सच्चा भक्त अपनी देह को भूला हुआ होता है इसलिए देह के भोग भोगना या न भोगना इन दोनों ही बातों की उसे फ़िक्र नहीं होती, इसलिए वह भोग टालता नहीं।

 मनुष्य की देह के अवयवों में असमानता होती है वैसे ही मनुष्य के विकार और गुण पूर्वजन्म के संस्कार के अनुसार अर्थात नसीब के अनुसार कम-अधिक मात्रा में आते हैं। हमारी देह को प्राप्त होने वाला भोग हमारे कर्मों का ही फल होता है। किन्तु वह अमुक कर्म का फल है यह हम नहीं जानते। इसलिए हम उसे नसीब अर्थात प्रारब्ध कहते हैं।

   संसार में जैसे अनेक बनाव-बिगाड़ होते रहते हैं वैसे ही हमारी सब बातें प्रारब्ध से होती हैं। हम पर आनेवाली आपत्तियाँ हमारे प्रारब्ध का फल होती हैं। वे भगवान की ओर से नहीं आती। वे मेहमान जैसी होती हैं, वे जैसे आती हैं वैसे चली भी जाती हैं। हम अपनी ओर से उन्हें न लाएँ और प्रारब्ध के कारण आएँ तो घबराएँ नहीं।

     प्रारब्ध की और ग्रहों की गति देह तक ही होती है। मन से भगवान को भजने में उनकी ओर से कोई बाधा नहीं होती। जो संत या गुरु की आज्ञा का पालन करता है उसका प्रारब्ध, प्रारब्ध के रूप में नहीं रहता। भगवान के अनुसंधान की आदत डाल लें तो हमने प्रारब्ध पर मानो विजय ही प्राप्त कर ली है।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।

  समबुद्धि युक्त ऋषि मुनि कर्म के फलों की आसक्ति से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं जो मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र में बांध लेती हैं। इस चेतना में कर्म करते हुए वे उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो सभी दुखों से परे है।

  जो भगवान का हो जाता है वह, देह प्रारब्ध पर छोड़ सकता है।

पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्

नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्।

धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्

यत् पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं क: क्षम:॥

  यदि कांटों से भरे हुए करील के वृक्ष में पत्तियों नहीं होती है तो उस में वसन्त ऋतु का क्या दोष है ?

  और यदि उल्लू पक्षी को दिन के प्रकाश में कुछ भी दिखाई नहीं देता है तो इसमें सूर्य की क्या गलती है ?

  यदि वर्षा का जल चातक के मुख में नहीं गिरता है तो इसमें मेघ (बादलों) की क्या त्रुटि (गलती) है ?

  विधाता द्वारा किसी के भाग्य में जो कुछ भी पहले लिख दिया हो उसे मिटाने की क्षमता भला किस व्यक्ति में है ?अर्थात् कोई भी सक्षम नहीं है।

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