भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।। मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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भाव सहित खोजइ जो प्रानी।

पाव भगति मनि सब सुख खानी।।

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।

राम ते अधिक राम कर दासा॥

  जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस भक्ति रूपी मणि को पा जाता है। हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं॥

अन्याश्रयाणां त्यागो 'नान्याता

  अन्य सभी आश्रयों को अस्वीकार करें, और भगवान के लिए अनन्य बनें।

  अनन्य भक्ति से तात्पर्य यह है कि केवल भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और भगवान के संतों के प्रति ही मन की आसक्ति होनी चाहिए। इसका तर्क अत्यंत सरल है। साधना का उद्देश्य मन को शुद्ध करना है और यह केवल मन को पूर्ण शुद्धात्मा के साथ भगवान में अनुरक्त करने पर संभव होता है किन्तु यदि हम भगवान का चिन्तन कर मन को शुद्ध करते हैं और फिर सांसारिकता में डूब कर उसे पुनः मलिन कर देते हैं, तब चाहे हम कितनी अवधि तक ही क्यों न प्रयास करें, हम कभी इसे शुद्ध नहीं कर सकते। 

एक भरोसो, एक बल, एक आस, विश्वास।

स्वाति-सलिल रघुनाथ-जस, चातक तुलसीदास ॥

  तुलसीदास जी कहते हैं कि मुझे अपने इष्ट श्रीराम पर पूरा भरोसा है। एक ही बल, एक ही आशा और एक उन्हीं पर अटूट विश्वास है; ठीक वैसे ही जैसे कि भगवान श्री रघुनाथजी यदि स्वाति नक्षत्र का जल है, तो तुलसीदास चातक पक्षी की तरह है।

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।

तस्याहं सुगम्य: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:।।

  श्री कृष्ण कहते हैं कि उन्हें प्राप्त करना आसान है। लेकिन केवल उन योगियों के लिए जो अनन्य-चेता: हैं , जिसका अर्थ है कि उनका मन विशेष रूप से भगवान में लीन है। अ-नान्या शब्द का व्युत्पत्तिशास्त्रीय etymology का अर्थ है ना अन्या , या "कोई अन्य नहीं।" इस प्रकार ईश्वर प्राप्ति के लिए अनन्य भक्ति ही पूर्व शर्त है। 

व्युत्पत्ति' का अर्थ है ‘विशेष उत्पत्ति’।

मामेकमेव शरणम् आत्मानं सर्व-देहिनाम्।।

 केवल मुझको समर्पण करो, जो सभी जीवित प्राणियों का सर्वोच्च आत्मा हूं।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।

  भक्ति की खुद की जो उत्कट अभिलाषा है, उस अभिलाषा में ऐसी ताकत है कि वह भगवान् में भी भक्त से मिलने की उत्कण्ठा पैदा कर देती है। भगवान् की इस उत्कण्ठा में बाधा देने की किसी में भी सामर्थ्य नहीं है। अनन्त सामर्थ्यशाली भगवान् की जब भक्त की तरफ कृपा उमड़ती है, तब वह कृपा भक्त के सम्पूर्ण विघ्नों को दूर करके, भक्त की योग्यता-अयोग्यता को किञ्चिन्मात्र भी न देखती हुई भगवान् को भी परवश कर देती है, जिससे भगवान् भक्त के सामने तत्काल प्रकट हो जाते हैं।

 ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुम्' ।

  ऐसी अनन्यभक्ति से ही मैं तत्त्व से जाना जा सकता हूँ, अनन्यभक्ति से ही मैं देखा जा सकता हूँ और अनन्यभक्ति से ही मैं प्राप्त किया जा सकता हूँ।

  जिस दिन भक्ति खो गई समझो उस दिन धर्म भी खो गया, भक्ति है तो भगवान हैं और उनका भक्त भी, भक्ति के हटने पर धर्म कट्टर सिद्धांत के संपुट में बंद हो जाता है और मजहबी उन्माद बनकर सामाजिक समरसता को भंग कर सकता है, परमात्मा को तभी जाना जा सकता है जब भक्ति में आनंद बनकर आंसू झरने लगता है।

  प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है, पक्षियों के कलरव में, पहाड़ों के सन्नाटो में, वृक्षों के शीतलताओ में, सागरों के गहराईयों में परमात्मा मौजूद है, आप अगर ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं, उत्सवी भक्ति परमात्मा से मिलाती है, शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं है।

मम गुन गावत पुलक सरीरा।

गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥

काम आदि मद दंभ न जाकें।

तात निरंतर बस मैं ताकें ॥

  मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ।

  जब भावविभोर होकर भक्त नाचता है तभी भगवान प्रकट होते हैं, भक्ति में अद्भुत शक्ति होती है, यह भक्ति ईश्वर को भी प्रभावित करती है और उन्हें भक्त को गले लगाने के लिए मजबूर कर देती है, सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती, ईश्वर उनकी अवश्य सुनता है जो उसे साफ मन से याद करते हैं, सच्चा भक्त मिल गया तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं।

  जब तक हृदय की वीणा नहीं बजेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा, धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है, जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं, अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है, परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जायें, इसलिये परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है।

भाव बिना बाज़ार मै वस्तु मिले न मोल ।

तो भाव बिना कैसे मिले, जो प्रभु हैं अनमोल।।

  प्राणों में प्रेम के गीत उठते ही भगवान् भक्त के पास दौड़े चले आते है, हम उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं, बिना पता-ठिकाने के जायें भी तो कहां जाएं? भक्ति प्यास है, जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं।

  जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी, छोटा शिशु जब पालने पर रोता है तो मां सहज ही दौड़ी चली आती है, इसी तरह भक्त के भजन में ऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते, आखिर सारे भजन तो तड़पते भक्त के आंसुओं की ही छलकन हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।

  प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं, श्रवण (परीक्षितजी), कीर्तन (शुकदेवजी), स्मरण (प्रह्लादजी), पादसेवन (लक्ष्मीजी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूरजी), दास्य (हनुमानजी), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

 श्रवण- ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना, कीर्तन- ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना, स्मरण- निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

महाभारत के समय की एक कहानी याद आ रही है

   महात्मा विदुर की पत्नी का नाम पारसंवी था। पारसंवी का भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति प्रेम था। महात्मा विदुर हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री आज की भाषा में नहीं तो मंत्री होने के साथ-साथ आदर्श भगवद्भक्त, उच्च कोटि के साधु और स्पष्टवादी थे। यही कारण था कि दुर्योधन उनसे सदा नाराज ही रहा करता था तथा समय असमय उनकी निन्दा करता रहता था। धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह से अनन्य प्रेम की बजह से वे दुर्योधन के द्वारा किये जाते अपमान को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री होने के बाद भी उनका रहन-सहन एक सन्त की ही तरह था। श्रीकृष्ण में इनकी अनुपम प्रीति थी। इनकी धर्मपत्नी पारसंवी भी परम साध्वी, त्यागमूर्ति तथा भगवद्भक्तिमयी थी।

   भगवान श्रीकृष्ण जब दूत बनकर संधि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर पधारे, तब दुर्योधन के प्रेमरहित महान स्वागत-सत्कार किया। दुर्योधन द्वारा संधि प्रस्ताव को अस्वीकार करने के उपरांत दुर्योधन ने उन्हें रात्रि विश्राम और भोजन आदि करने को कहा। भाव रहित दुर्योधन का यह आतिथ्य श्रीकृष्ण ने अस्वीकार कर दिया। कारण पूछने पर श्रीकृष्ण ने कहा हे दुर्योधन ! "किसी का आतिथ्य स्वीकार करने के तीन कारण होते है। 'भाव, प्रभाव और अभाव" अर्थात तुम्हारा ऐसा भाव नहीं है जिसके वशीभूत तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जाये। तुम्हारा ऐसा प्रभाव भी नहीं है जिससे भयभीत होकर तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जाये तथा मुझे ऐसा अभाव भी नहीं है जिससे मजबूर होकर तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जाये।" इसके बाद श्रीकृष्ण वहाँ से प्रस्थान कर गये।

मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए।

कंद मूल फल मधुर मँगाए॥

   श्रीकृष्ण महात्मा विदुर और उनकी धर्मपत्नी पारसंवी के भाव को जानते थे। दुर्योधन के महल से निकल कर वे महात्मा विदुर के आश्रम रूपी घर पर पहुंचे। महात्मा विदुर उस समय घर पर नहीं थे तथा पारसंवी नहा रही थीं। द्वार से ही श्रीकृष्ण ने आवाज दी द्वार खोलो, मैं श्रीकृष्ण हूँ, और बहुत भूखा भी हूँ। पारसंवी ने जैसे ही श्रीकृष्ण की पुकार सुनी तो भाव के वशीभूत तुरन्त बैसी ही स्थिति में दौड़ कर द्वार खोलने आ गयीं। उनकी अवस्था को देख अपना पीताम्बर पारसंवी पर ड़ाल दिया। प्रेम-दिवानी पारसंवी को अपने तन की सुध ही कहाँ थी उसका ध्यान तो सिर्फ इस पर था कि द्वार पर श्रीकृष्ण हैं और भूखे हैं। पारसंवी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर अन्दर खींचते हुए ले आई। श्रीकृष्ण की क्षुधा शान्त करने के लिए उन्हें क्या खिलाये यही कौतूहल उसके मस्तिष्क में था। इसी प्रेमोन्मत्त स्थिति में उसने श्रीकृष्ण को उल्टे पीढ़े पर बैठा दिया। श्रीकृष्ण भी पारसंवी के इस अनन्य प्रेम के वशीभूत हो गये और उस उल्टे पीढे पर बैठ गये। दौड़ कार पारसंवी अन्दर से श्रीकृष्ण को खिलाने के लिए केले ले आयी, और श्रीकृष्ण की क्षुधा शान्त करने के लिए उन्हें केले खिलाने बैठ गयी। श्रीकृष्ण के प्रेमभाव में वह इतनी मग्न थी कि वह केले छिल-छिल कर छिलके श्रीकृष्ण को खाने के लिए दिये जा रही थी तथा गूदा फेंकती जा रही थी। श्रीकृष्ण भी पारसंवी के इस अनन्य प्रेम के वशीभूत हो केले के छिलके खाने का आनन्द ले रहे थे। तभी महात्मा विदुर आ गये। वे कुछ देर तो स्तम्भित होकर खड़े रहे, फिर उन्होंने यह व्यवस्था देखकर पारसंवी को डांटा, तब उसे होश आया और वह पश्चाताप करने के साथ ही अपने मन की सरलता से श्रीकृष्ण पर ही नाराज होकर उनको उलाहना देने लगी।

 छिलका दीन्हेे स्याम कहँ, भूली तन मन ज्ञान।

 खाए पै क्यों आपने, भूलि गए क्यों भान।।

   भगवान इस सरल वाणी पर हँस दिये। भगवान ने कहा- "विदुर जी आप बड़े बेसमय आये। मुझे बड़ा ही सुख मिल रहा था। मैं तो ऐसे ही भोजन के लिये सदा अतृप्त रहता हूँ।" अब विदुर जी भगवान को केले का गूदा खिलाने लगे। भगवान ने कहा- "विदुर जी आपने केले तो मुझे बड़ी सावधानी से खिलाये, पर न मालूम क्यों इनमें छिल्के-जैसा स्वाद नहीं आया।" विदुरपत्नी के नेत्रों से प्रेम के आँसू झर रहे थे।

   ऐसा होता है भक्तों का प्रेमोन्माद जिसके भगवान् भी सदा ही भूखे रहते हैं।

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